ख़िलजी
या ख़लजी वंश (1290-1320
ई.)
ख़िलजी
वंश के सुल्तानों ने 1290
से 1320 ई. तक राज्य किया। दिल्ली के ख़िलजी सुल्तानों में अलाउद्दीन
ख़िलजी (1296-1316
ई.) ही सबसे प्रसिद्ध और योग्य शासक सिद्ध हुआ था।
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी (1290-1296 ई.)
दिल्ली की मुस्लिम सल्तनत
का दूसरा शासक परिवार था। खिलजी वंश की स्थापना जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी (1290-1296 ई.) ने की थी। उन्होंने अपना जीवन एक सैनिक के
रूप में शरू किया था। अपनी योग्यता के बल पर उन्होंने 'सर-ए-जहाँदार/शाही अंगरक्षक' का पद प्राप्त किया तथा बाद में समाना का सूबेदार बना। कैकुबाद ने उसे 'आरिज-ए-मुमलिक' का पद दिया और 'शाइस्ता ख़ाँ' की उपाधि के साथ सिंहासन पर बिठाया।
उन्होंने दिल्ली के बजाय किलोखरी के माध्य में राज्याभिषेक करवाया तथा अपने
राज्याभिषेक के एक वर्ष बाद दिल्ली में प्रवेश किया। सुल्तान बनते समय जलालुद्दीन की
उम्र 70 वर्ष की थी।
दिल्ली का वह पहला सुल्तान थे जिसकी आन्तरिक नीति दूसरों को प्रसन्न करने के
सिद्धान्त पर थी। उन्होंने हिन्दू जनता के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी की हत्या
जलालुद्दीन
ख़िलजी की हत्या के षड़यंत्र में अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपने भाई अलमास वेग 'उलूग ख़ाँ' की सहायता ली 1296 में उसने अपने चाचा जलालुद्दीन
ख़िलजी की हत्या कर दी और स्वयं सुल्तान बनकर 22 अक्टूबर, 1296 को बलबन के लाल महल में अपना राज्याभिषेक करवाया।
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी उपलब्धियाँ
जलालुद्दीन
ख़िलजी का शासन उदार निरंकुशता पर आधारित था। अपनी उदार नीति के कारण जलालुद्दीन
ने कहा था,
“मै एक वृद्ध मुसलमान हूँ और मुसलमान का रक्त बहाना मेरी आदत नहीं है।
जलालुद्दीन
फ़िरोज ख़िलजी ने अपने अल्प शासन काल में कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त
कीं।
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने अगस्त,
1290 में कड़ामानिकपुर के सूबेदार मलिक छज्जू, जिसने ‘सुल्तान मुगीसुद्दीन’ की
उपाधि धारण कर अपने नाम के सिक्के चलवाये एवं खुतबा पढ़ा, के
विद्रोह को दबाया। इस अवसर पर कड़ामानिकपुर की सूबेदारी उसने अपने भतीजे अलाउद्दीन ख़िलजी को दी।
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी का 1291 ई. में रणथंभौर का अभियान असफल रहा।
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने 1292 ई. में मंडौर एवं झाईन के क़िलों को जीतने में
जलालुद्दीन को सफलता मिली।
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्रों में ठगों का दमन किया।
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने 1292 ई. में ही मंगोल आक्रमणकारी हलाकू का पौत्र अब्दुल्ला
लगभग डेढ़ लाख सिपाहियों के साथ पंजाब पर आक्रमण कर सुनाम तक पहुँच गया, परन्तु अलाउद्दीन
ने मंगोलों को परास्त करने में सफलता प्राप्त की और अन्त में दोनों के बीच सन्धि
हुई। मंगोल वापस जाने के लिए तैयार हो गये। परन्तु चंगेज़
ख़ाँ के नाती उलगू ने अपने लगभग 400 मंगोल समर्थकों के साथ इस्लाम धर्म ग्रहण कर भारत में
रहने का निर्णय लिया। कालान्तर में जलालुद्दीन ने उलगू के साथ ही अपनी पुत्री का विवाह किया और साथ ही रहने के लिए दिल्ली के समीप 'मुगरलपुर'
नाम की बस्ती बसाई गई। बाद में उन्हें ही ‘नवीन मुसलमान’ के नाम से जाना गया।
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी का व्यक्तित्व
जलालुद्दीन
ने ईरान के धार्मिक पाकीर सीदी मौला को हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया। यह सुल्तान का
एक मात्र कठोर कार्य था। इसके अलावा उसकी नीति उदारता और सभी को सन्तुष्ठ करने की
थी। जलालुद्दीन के शासन काल में ही उसके भतीजे अलाउद्दीन ख़िलजी ने 1292 ई. में अपने चाचा की स्वीकृति के बाद देवगिरि एवं भिलसा का अभियान किया। उस समय देवगिरि का
आक्रमण मुसलमानों का दक्षिण भारत पर प्रथम आक्रमण था। इन दोनों अभियानों से
अलाउद्दीन को अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई। अमीर ने जलालुद्दीन को मार्ग में ही
अलाउद्दीन ख़िलजी से सम्पत्ति छीनने की सलाह दी, परन्तु
जलालुद्दीन ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
अलाउद्दीन
ख़िलजी -
(1296-1316 ई.)
अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपने चाचा जलालुद्दीन ख़िलजी
की हत्या कर दिल्ली का सुल्तान बना। वह ख़िलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन ख़िलजी का भतीजा और दामाद था।
सुल्तान बनने के पहले उसे इलाहाबाद के निकट कड़ा की
जागीर दी गयी थी। अलाउद्दीन ख़िलजी का बचपन का नाम अली 'गुरशास्प'
था। मलिक छज्जू के विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने
के कारण जलालुद्दीन ने उसे कड़ा-मनिकपुर की सूबेदारी सौंप दी। भिलसा, चंदेरी एवं देवगिरि के सफल अभियानों से प्राप्त अपार धन ने
उसकी स्थिति और मज़बूत कर दी।
शासन व्यवस्था
राज्याभिषेक
के बाद उत्पन्न कठिनाईयों का सफलता पूर्वक सामना करते
हुए अलाउद्दीन ने कठोर शासन व्यवस्था के अन्तर्गत अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार
करना प्रारम्भ किया। अपनी प्रारम्भिक सफलताओं से प्रोत्साहित होकर अलाउद्दीन ने 'सिकन्दर सानी की उपाधि ग्रहण कर इसका उल्लेख अपने सिक्कों पर करवाया। वह विश्व-विजय
एवं एक नवीन धर्म को स्थापित करना चाहता था। उसके मित्र
एवं दिल्ली के कोतवाल 'अलाउल मुल्क' के
समझाने पर अपने विचार को त्याग दिया। यद्यपि अलाउद्दीन ने ख़लीफ़ा की सत्ता को
मान्यता प्रदान करते हुए ‘यामिन-उल-ख़िलाफ़त-नासिरी-अमीर-उल-मोमिनीन’
की उपाधि ग्रहण की, किन्तु उसने ख़लीफ़ा से
अपने पद की स्वीकृत लेनी आवश्यक नहीं समझी। उलेमा वर्ग को भी अपने शासन कार्य में
हस्तक्षेप नहीं करने दिया। उसने शासन में इस्लाम
धर्म के सिद्धान्तों को प्रमुखता न देकर राज्यहित को सर्वोपरि माना। अलाउद्दीन
ख़िलजी के समय निरंकुशता अपने चरम सीमा पर पहुँच गयी। अलाउद्दीन ख़िलजी ने शासन
में न तो इस्लाम के सिद्धान्तों का सहारा लिया और न ही उलेमा वर्ग की सलाह ली।
विद्रोहों
का दमन
अलाउद्दीन
ख़िलजी के राज्य में कुछ विद्रोह हुए, जिनमें 1299 ई.
में गुजरात के सफल अभियान
में प्राप्त धन के बंटवारे को लेकर ‘नवी मुसलमानों’ द्वारा किये गये विद्रोह का दमन
नुसरत ख़ाँ ने किया।
दूसरा
विद्रोह दिल्ली के हाजी मौला द्वारा किया गया, जिसका दमन सरकार हमीद्दीन ने किया।
तीसरा
विद्रोह अलाउद्दीन की बहन के लड़के मलिक उमर एवं मंगू ख़ाँ ने किया, पर इन दोनों को हराकर उनकी हत्या कर दी गई। चौथा विद्रोह अलाउद्दीन के
भतीजे अकत ख़ाँ द्वारा किया गया। मंगोलो के सहयोग से उसने अलाउद्दीन पर प्राण घातक हमला
किया, जिसके बदलें में उसे पकड़ कर मार दिया गया। ।
इस
प्रकार इन सभी विद्रोहों को सफलता पूर्वक दबा दिया गया
अलाउद्दीन
ने तुर्क अमीरों द्वारा किये जाने वाले विद्रोह के कारणों का अध्ययन कर उन कारणों
को समाप्त करने के लिए 4
अध्यादेश जारी किये। जो निम्न थे।
प्रथम
अध्यादेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने दान, उपहार एवं पेंशन के
रूप मे अमीरों को दी गयी भूमि को जब्त कर उस पर अधिकाधिक कर लगा दिया, जिससे उनके पास धन का अभाव हो गया।
द्वितीय
अध्याधेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने गुप्तचर विभाग को संगठित कर ‘बरीद’ (गुप्तचर अधिकारी) एवं ‘मुनहिन’
(गुप्तचर) की नियुक्ति की।
तृतीय
अध्याधेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ख़िलजी ने मद्यनिषेद, भाँग खाने एवं जुआ खेलने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया।
चौथे
अध्यादेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने अमीरों के आपस में मेल-जोल, सार्वजनिक समारोहों एवं वैवाहिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
सुल्तान
द्वारा लाये गये ये चारों अध्यादेश पूर्णतः सफल रहे। अलाउद्दीन ने खूतों, मुक़दमों आदि हिन्दू लगान अधिकारियों के विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया।
साम्राज्य विस्तार
अलाउद्दीन
ख़िलजी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने उत्तर भारत के राज्यों को जीत कर उन पर प्रत्यक्ष
शासन किया। दक्षिण भारत के राज्यों को अलाउद्दीन ने अपने अधीन कर उनसे वार्षिक कर
वसूला।
गुजरात विजय
1298
ई. में अलाउद्दीन ने उलूग ख़ाँ एवं
नुसरत ख़ाँ को गुजरात विजय के लिए भेजा। अहमदाबाद के निकट ‘बघेल राजा कर्ण’/राजकरन
और अलाउद्दीन की सेना में संघर्ष हुआ। राजा कर्ण ने पराजित होकर अपनी पुत्री देवल
देवी के साथ भाग कर देवगिरि के
शासक रामचन्द्र देव के यहाँ शरण ली। अलाउद्दीन ख़िलजी कर्ण की सम्पत्ति एवं उसकी
पत्नी कमला देवी को साथ लेकर वापस दिल्ली आ गया। कालान्तर में अलाउद्दीन ख़िलजी ने कमला देवी से विवाह कर उसे अपनी
सबसे प्रिय रानी बनाया। गुजरात अभियान के दौरान ही नुसरत ख़ाँ ने हिन्दू हिजड़े मलिक
काफ़ूर को एक हज़ार दीनार में ख़रीदा। युद्ध में विजय के पश्चात् सैनिकों ने सूरत, सोमनाथ और
कैम्बे तक आक्रमण किया।
जैसलमेर विजय
अलाउद्दीन
ख़िलजी की सेना के कुछ घोड़े चुराने के कारण उसने जैसलमेर के शासक दूदा एवं उसके सहयोगी तिलक सिंह को 1299 ई.
में पराजित किया और जैसलमेर की विजय की।
रणथम्भौर विजय
रणथम्भौर
का शासक हम्मीरदेव अपनी योग्यता एवं साहस के लिए प्रसिद्ध था। रणथम्भौर का शासक हम्मीरदेव ने विद्रोही मंगोल नेता मुहम्मद शाह एवं केहब को अपने यहाँ शरण दे रखी थी, इसलिए भी अलाउद्दीन रणथम्भौर को जीतना चाहता था। जुलाई, 1301 ई. में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर के क़िले को अपने क़ब्ज़े में कर लिया।
हम्मीरदेव वीरगति को प्राप्त हुआ। तथा उककी रानी रंगदेवी ने अन्य स्त्रियों के साथ
जौहर किया जो राजस्थान का प्रथम जौहर था। अलाउद्दीन ने रनमल और उसके साथियों का वध करवा
दिया, जो हम्मीरदेव से विश्वासघात करके उससे आ मिले थे।
चित्तौड़ आक्रमण एवं मेवाड़
विजय
रणथम्भौर
विजय के बाद वह मेवाड़ पर विजय प्राप्त करना चाहता था। इस समय मेवाड़ का शासक राणा रतन सिंह था, जिसकी राजधानी चित्तौड़ थी। चित्तौड़ का क़िला सामरिक दृष्टिकोण से बहुत सुरक्षित स्थान पर बना
हुआ था। इसलिए यह क़िला अलाउद्दीन की निगाह में चढ़ा हुआ था। कुछ इतिहासकारों ने 'पद्मावत की कथा' के आधार पर चित्तौड़ पर अलाउद्दीन
के आक्रमण का कारण रानी पद्मिनी के अनुपन सौन्दर्य के प्रति उसके आकर्षण को ठहराया है। अन्ततः 28 जनवरी, 1303 ई. को सुल्तान चित्तौड़ के क़िले पर
अधिकार करने में सफल हुआ। राणा रतन सिंह युद्ध में शहीद हुआ और उसकी पत्नी रानी
पद्मिनी ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया जो मेवाड़ का प्रथम जौहर था । क़िले
पर अधिकार के बाद सुल्तान ने लगभग 30,000 राजपूत वीरों का कत्ल करवा दिया। उसने चित्तौड़ का नाम ख़िज़्र ख़ाँ के नाम पर 'ख़िज़्राबाद'
रखा और ख़िज़्र ख़ाँ को सौंप कर दिल्ली वापस आ गया।
चित्तौड़
को पुनः स्वतंत्र कराने का प्रयत्न राजपूतों द्वारा
जारी था। इसी बीच अलाउद्दीन ने ख़िज़्र ख़ाँ को वापस दिल्ली बुलाकर चित्तौड़ दुर्ग
की ज़िम्मेदारी राजपूत सरदार मालदेव को सौंप दी। अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् गुहिलौत राजवंश के हम्मीरदेव ने मालदेव पर आक्रमण कर 1321 ई. में चित्तौड़ सहित पूरे मेवाड़ को आज़ाद करवा लिया। इस तरह अलाउद्दीन
की मृत्यु के बाद चित्तौड़ एक बार फिर पूर्ण स्वतन्त्र हो गया।
मालवा विजय
मालवा पर शासन करने वाला महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द बहादुर योद्धा थे। 1305
ई. में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार आईन-उल-मुल्क के नेतृत्व
में एक सेना को मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों के संघर्ष में
महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द मारा गया। नवम्बर, 1305 में
मालवा के क़िले पर अधिकार के साथ ही उज्जैन, धारानगरी, चंदेरी आदि
को जीत कर मालवा समेत दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया।
सिवाना
विजय
1308
ई. में अलाउद्दीन ने सिवाना पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया।
वहाँ के परमार राजपूत शासक शीतलदेव ने कड़ा संघर्ष किया, परन्तु अन्ततः वह
मारा गया। अलाउद्दीन ने सिवाना को जीत कर कमालुद्दीन
गुर्ग को वहाँ का शासक नियुक्त किया गया।
जालौर
1308
ई. में अलाउद्दीन ने सिवाना पर अधिकार करने के बाद जालौर पर अधिकार
करने के लिए कूच किया। कई प्रयासो के बाद भी अलाउद्दीन जालोर पर अधिकार करने मे
सफल नही हुआ तो उसने कूटनीति से दुर्ग
के ही एक प्रमुख भापला नामक व्यक्ति को प्रचूर धन का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया।
भापला ने दुर्ग के द्वार खोल दिये और मुस्लिम सेना ने दुर्ग में प्रवेश कर लिया।
दुर्ग में तैयारियां पूर्ण थी। ज्यों ही सुल्तान की सेना का दुर्ग मे प्रवेश हुआ
तो राजपूत यौधा भूखे शेरों की तहर टूट पड़े। मुट्ठीभर राजपूतों ने पुन: यह बता
दिया कि वे मर सकते हैं लेकिन हारते नहीं। अंतत इस युद्ध सुल्तान की सेना
ने कान्हणदेव को युद्ध में पराजित कर उसकी हत्या कर दी। 1308 मे शासक
कान्हणदेव और उसके पुत्र बिरामदेव को वीरगति प्राप्त हुए और दुर्ग की राजपूतों महिलाओं ने जौहर किया।
अलाउद्दीन की दक्षिण विजय
अलाउद्दीन
ख़िलजी के समकालीन दक्षिण भारत में सिर्फ़ तीन
महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ थीं-
देवगिरि
के यादव
दक्षिण-पूर्व
तेलंगाना के काकतीय और
द्वारसमुद्र के होयसल
अलाउद्दीन
द्वारा दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने के उद्देश्य के पीछे धन की चाह एवं विजय की लालसा थी। वह
इन राज्यों को अपने अधीन कर वार्षिक कर वसूल करना चाहता था। दक्षिण भारत की विजय
का मुख्य श्रेय ‘मलिक काफ़ूर’ को
ही जाता है।
देवगिरि
शासक
बनने के बाद अलाउद्दीन द्वारा 1296 ई. में देवगिरि के विरुद्ध किये गये अभियान की सफलता
पर, वहाँ के शासक रामचन्द्र देव ने प्रति वर्ष एलिचपुर की आय
भेजने का वादा किया था, पर रामचन्द्र देव के पुत्र शंकर देव /सिंहन
देव के हस्तक्षेप से वार्षिक कर का भुगतान रोक दिया गया। अतः अलाउद्दीन ने मलिक
काफ़ूर के नेतृत्व मे एक सेना को देवगिरि पर आक्रमण
करने के लिए भेजी गई। राजा कर्ण को युद्ध में परास्त कर मलिक काफ़ूर ने उसकी
पुत्री देवल देवी को दिल्ली भेज
दिया, जहाँ पर उसका विवाह ख़िज़्र ख़ाँ से कर दिया गया।
रास्ते भर लूट पाट करता हुआ मलिक काफ़ूर देवगिरि पहुँचा और पहुँचते ही उसने
देवगिरि पर आक्रमण कर दिया। भयानक लूट-पाट के बाद रामचन्द्र देव ने आत्मसमर्पण कर
दिया। मलिक काफ़ूर अपार धन-सम्पत्ति, ढेर सारे हाथी एवं राजा रामचन्द्र देव के साथ वापस
दिल्ली आया। रामचन्द्र के सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत होने पर सुल्तान ने उसके साथ
उदारता का व्यवहार करते हुए ‘राय रायान’ की उपाधि प्रदान की। उसे सुल्तान ने गुजरात की नवसारी जागीर एवं एक लाख स्वर्ण टके देकर वापस भेज दिया। कालान्तर में
राजा रामचन्द्र देव अलाउद्दीन का मित्र बन गया। जब मलिक काफ़ूर द्वारसमुद्र विजय
के लिए जा रहा था, तो रामचन्द्र देव ने उसकी भरपूर सहायता की
थी।
तेलंगाना
तेलंगाना
में काकतीय वंश के राजा राज्य करते थे। तत्कालीन
तेलंगाना का शासक प्रताप रुद्रदेव था, जिसकी राजधानी वारंगल थी। 1309 में मलिक
काफ़ूर तेलंगाना विजय के लिए रवाना हुआ। रास्ते में रामचन्द्र देव ने मलिक काफ़ूर
की सहायता की। मलिक काफ़ूर ने हीरों की खानों के ज़िले असीरगढ़ (मेरागढ़) के मार्ग
से तेलंगाना में प्रवेश किया। 1310 ई. में मलिक काफ़ूर अपनी
सेना के साथ वारंगल पहुँचा। प्रताप रुद्रदेव ने अपनी सोने की मूर्ति बनवाकर गले
में एक सोने की जंजीर डालकर आत्मसमर्पण स्वरूप काफ़ूर के पास भेजा, साथ ही 100 हाथी, 700 घोड़े,
अपार धन राशि एवं वार्षिक कर देने के वायदे के साथ अलाउद्दीन ख़िलजी
की अधीनता स्वीकार कर ली। इसी अवसर पर प्रताप रुद्रदेव ने मलिक काफ़ूर को संसार
प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा दिया
था।
होयसल
होयसल
का शासक वीर बल्लाल तृतीय था। इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। 1310 ई. में मलिक काफ़ूर ने
होयसल के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार 1311 ई. में साधारण
युद्ध के पश्चात् बल्लाल देव ने आत्मसमर्पण कर अलाउद्दीन की अधीनता ग्रहण कर ली।
उसने माबर के अभियान में मलिक काफ़ूर की सहायता भी की। सुल्तान अलाउद्दीन ने
बल्लाल देव को ‘ख़िलअत’, ‘एक मुकट’,
‘छत्र’ एवं दस लाख टके की थैली भेंट की।
पाण्ड्य
पाण्ड्य
को माबर (मालाबार) के नाम से भी जाना जाता था। यहाँ के शासक सुन्दर पाण्ड्य एवं वीर पाण्ड्य
थे। दोनों में हुए सत्ता संघर्ष में सुन्दर पाण्ड्य पराजित हुआ। सुन्दर पाण्ड्य
द्वारा सहायता माँगने पर मलिक काफ़ूर ने 1311 ई. में
पाण्ड्यों के महत्त्वपूर्ण केन्द्र ‘वीरथूल’ पर आक्रमण कर दिया, पर वीर पाण्ड्य हाथ नहीं आया। मलिक
काफ़ूर ने बरमतपती में स्थित ‘लिंग महादेव’ के सोने के मंदिर में खूब लूटपाट की। इसके अतिरिक्त ढेर सारे मंदिर उसके
द्वारा लूटे एवं तोड़े गये। अमीर ख़ुसरो के अनुसार मलिक काफ़ूर ने रामेश्वरम तक आक्रमण किया, वहाँ के हिन्दू मंदिर
को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई। 1311 ई. में मलिक काफ़ूर विपुल
धन सम्पत्ति के साथ दिल्ली पहुँचा,
परन्तु उसे वीर पाण्ड्य को पकड़ने में सफलता प्राप्त नहीं हुई।
सम्भवतः धन के दृष्टिकोण से यह मलिक काफ़ूर का सर्वाधिक सफल अभियान था।
मंगोल आक्रमण
अलाउद्दीन
के समय में हुए मंगोलों के आक्रमण का उद्देश्य भारत विजय और प्रतिशोध की भावना थी। 1297-98 ई. में मंगोल
सेना ने अपने नेता कादर के नेतृत्व में पंजाब एवं लाहौर पर आक्रमण
किया। जालंधर के निकट इन
आक्रमणकारियों को सुल्तान की सेना ने परास्त कर दिया। इस सेना का नेतृत्व जफ़र
ख़ाँ एवं उलूग ख़ाँ ने किया था। मंगोलों का दूसरा आक्रमण सलदी के नेतृत्व में 1298
ई. में सेहबान पर हुआ। जफ़र ख़ाँ ने इस आक्रमण को सफलता पूर्वक असफल
कर दिया। 1299 ई. में कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में मंगोल सेना के आक्रमण को जफ़र ख़ाँ ने असफल कर
दिया। इसी युद्ध के दौरान जफ़र ख़ाँ मारा गया। 1303 ई. में
मंगोल सेना का चौथा आक्रमण तार्गी के नेतृत्व में हुआ। लगभग 2 माह तक सीरी के क़िले को घेरे रहने के बाद भी उसे सफलता न मिलने पर दिल्ली के समीप के क्षेत्रों में लूटपाट कर
तार्गी वापस चला गया। 1305 ई. में ‘अलीबेग’,
‘तार्ताक’ एवं ‘तार्गी’
के नेतृत्व में मंगोलों ने अमरोहा पर आक्रमण किया। परंतु मलिक
काफ़ूर एवं गाजी मलिक ने मंगोलों को बुरी तरह पराजित किया। 1306 ई. में मंगोल सेना का नेतृत्व करने वाला इक़बालमन्द, गाजी मलिक (ग़यासुद्दीन तुगलक) द्वारा रावी नदी के किनारे परास्त किया गया। गाजी मलिक
तुगलक को अलाउद्दीन ने अपना सीमा रक्षक नियुक्त किया। इस प्रकार अलाउद्दीन ने अपने
शासन काल में मंगोलों के सबसे अधिक एवं सबसे भयानक आक्रमण का सामना करते हुए सफलता
प्राप्त की। मंगोल आक्रमण से
सुरक्षा के लिए उसने 1304 ई. में सीरी को अपनी राजधानी बनाया
तथा क़िलेबन्दी की।
अलाउद्दीन के प्रशासनिक सुधार
अपने
पूर्वकालीन सुल्तानों की तरह अलाउद्दीन के पास भी
कार्यपालिका व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका की सर्वोच्च शक्तियाँ विद्यमान थीं। वह
अपने को धरती पर ईश्वर का नायक या ख़लीफ़ा होने का दावा करता था तथा उसने अपने को
हमेशा उलेमा के आदेशों से अलग रखा। वह प्रशासन के केन्द्रीकरण पर विश्वास करता था।
उसने प्रान्तों के सूबेदार तथा अन्य अधिकारियों को अपने पूर्ण नियंत्रण में रखा।
अलाउद्दीन के
मंत्रीगण
मंत्रीगण
अलाउद्दीन को सिर्फ़ सलाह देते व राज्य के दैनिक कार्य को संभालते थे। अलाउद्दीन
के समय में 5
महत्त्वपूर्ण मंत्री थे, जो प्रशासन के
कार्यों में अपना बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखते थे। ये मंत्री एवं उनके संबंधित
विभाग निम्न प्रकार थे-
(1) दीवान-ए-वजारत - मुख्यमंत्री को ‘वज़ीर’ कहा जाता था। यह सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्री होता था। अलाउद्दीन के समय में वज़ीर का महत्त्वपूर्ण विभाग होता था। वित्त के अतिरिक्त उसे सैनिक अभियान के समय शाही सेनाओं का नेतृत्व भी करना पड़ता था। अलाउद्दीन ने वज़ीर पद अपने सैनिक अधिकारियों को सौंपा। अलाउद्दीन के शासन काल में ख्वाजा ख़ातिर, ताजुद्दीन काफ़ूर, नुसरत ख़ाँ आदि वज़ीर के पद पर कार्य कर चुके थे।
(1) दीवान-ए-वजारत - मुख्यमंत्री को ‘वज़ीर’ कहा जाता था। यह सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्री होता था। अलाउद्दीन के समय में वज़ीर का महत्त्वपूर्ण विभाग होता था। वित्त के अतिरिक्त उसे सैनिक अभियान के समय शाही सेनाओं का नेतृत्व भी करना पड़ता था। अलाउद्दीन ने वज़ीर पद अपने सैनिक अधिकारियों को सौंपा। अलाउद्दीन के शासन काल में ख्वाजा ख़ातिर, ताजुद्दीन काफ़ूर, नुसरत ख़ाँ आदि वज़ीर के पद पर कार्य कर चुके थे।
(2) दीवान-ए-आरिज या अर्ज - 'आरिज-ए-मुमलिक'
युद्धमंत्री व सैन्य मंत्री होता था। यह वज़ीर के बाद दूसरा
महत्त्वपूर्ण मंत्री होता था। इसके मुख्य कार्य सैनिकों की भर्ती करना, उन्हें वेतन बाँटना, सेना की दक्षता एवं साज-सज्जा
की देखभाल करना, युद्ध के समय सेनापति के साथ युद्ध क्षेत्र
में जाना आदि था। अलाउद्दीन के शासन में मलिक नासिरुद्दीन मुल्क सिराजुद्दीन आरिज-ए-मुमलिक
के पद पर था। उसका उपाधिकारी ख्वाजा हाजी नायब आरिज था। अलाउद्दीन अपने सैनिकों के
साथ सहृदयता की नीति अपनाता था।
(3) दीवान-ए-इंशा - यह राज्य का तीसरा
महत्त्वपूर्ण मंत्रालय होता था, जिसका प्रधान 'दबीर-ए-ख़ास' था। उसका महत्त्वपूर्ण कार्य शाही उदघोंषणाओं
एवं पत्रों का प्रारूप तैयार करना तथा प्रांतपतियों एवं स्थानीय अधिकारियों से
पत्र व्यवहार करना होता था। इसके सहायक सचिव को ‘दबीर’
कहा जाता था। दबीर के प्रमुख को ‘दबीर-ए-मुमलिकात’
या दबीर-ए-ख़ास कहा जाता था।
(4) दीवान-ए-रसालत- यह राज्य का चौथा मंत्री होता
था। इसका सम्बन्ध मुख्यतः विदेश विभाग एवं कूटनीति पत्र व्यवहार से होता था। यह
पड़ोसी राज्यों को भेजे जाने वाले पत्रों का प्रारूप तैयार करता था और साथ ही
विदेशों से आये राजदूतों से नज़दीक का सम्पर्क बनाये रखता था। कुछ इतिहासकारों के
अनुसार यह धर्म से सम्बन्धित
विभाग था।
(5) दीवान-ए-रिसायत - आर्थिक मामलों से
सम्बन्धित इस नये विभाग की स्थापना अलाउद्दीन ख़िलजी ने की थी। दीवान-ए
रियासत
व्यापारी वर्ग पर नियंत्रण रखता था।
अलाउद्दीन
द्वारा स्थापित दो नये विभाग-
दीवान-ए-मुस्तखराज
दीवान-रिसायत
अलाउद्दीन
ने बाज़ार व्यवस्था के कुशल संचालन
हेतु कुछ नये पदों को भी सृजित किया-
शहन-ए-मंडी - यह बाज़ार का दरोगा होता था।
मुहतसिब - जनसाधारण के आचरण का रक्षक एवं माप-तौल का निरीक्षण करता था।
इसके
अतिरिक्त कुछ अन्य अधिकारी सचिव होते थे। राज महल के कार्यों की देख-रेख करने वाला
मुख्य अधिकारी 'वकील-ए-दर' होता था। सुल्तान के अंगरक्षकों के
मुखिया को 'सरजानदार' कहा जाता था।
इनके अतिरिक्त राजमहल के कुछ अन्य अधिकारी ‘अमीर-ए-आखूर’,
‘शहना-ए-पील, ‘अमीर-ए-शिकार’, ‘शराबदार’, मुहरदार’ आदि होते
थे।
न्याय
प्रशासन
न्याय का
उच्च स्रोत एवं उच्चतम अदालत सुल्तान स्वयं होता था।
सुल्तान के बाद ‘सद्र-ए-जहाँ’ या ‘क़ाज़ी-उल-कुजात’ होता था, जिसके
नीचे ‘नायब क़ाज़ी’ या ‘अदल’ कार्य करता था, जिनकी
सहायता ‘मुफ़्ती’ करते थे। ‘अमीर-ए-दाद’ नाम का अधिकारी दरबार में ऐसे
प्रभावशाली व्यक्तित्व को प्रस्तुत करता था, जिस पर
क़ाज़ियों का नियंत्रण नहीं होता था।
पुलिस
एवं गुप्तचर
अलाउद्दीन
ने अपने शासन काल में पुलिस एवं गुप्तचर विभाग को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। कोतवाल
पुलिस विभाग का प्रमुख अधिकारी होता था। पुलिस विभाग को और अधिक सुधारने के लिए
अलाउद्दीन ने एक नये पद ‘दीवान-ए-रिसायत’ का गठन किया, जो व्यापारी वर्ग पर नियंत्रण स्थापित
करता था। ‘शहना’ व ‘दंडाधिकारी’ भी पुलिस विभाग से सम्बन्धित अधिकारी
थे। ‘मुहतसिब’ सेंसर अधिकारी होता था,
जो जन सामान्य के आचार की रक्षा एवं देखभाल करता था। अलाउद्दीन
द्वारा स्थापित गुप्तचर विभाग का प्रमुख अधिकारी ‘बरीद-ए-मुमलिक’
होता था। उसके नियंत्रण में उनके बरीद (संदेह वाहक) कार्य करते थे।
बरीद के अतिरिक्त अन्य सूचनादाता को ‘मुन्ही’ कहा जाता था। मुन्ही लोगों के घरों में प्रवेश करके गौंण अपराधों को रोकते
थे। मुख्यतः इन्हीं अधिकारियों को अलाउद्दीन के बाज़ार नियंत्रण की सफलता का श्रेय
जाता है।
डाक
पद्धति
अलाउद्दीन
द्वारा स्थापित डाक चैकियों पर कुशल
घुड़सवारों एवं लिपिकों को नियुक्त किया जाता था, जो राज्य
भर में समाचार पहुँचाते थे। विद्रोहों एवं युद्ध अभियानों के बारे में सूचना
शीघ्रता से मिल जाती थी।
सैनिक
प्रबन्ध
अलाउद्दीन
खिलजी ने आन्तरिक विद्रोहों को दबाने, बाहरी आक्रमणों का
सफलतापूर्वक सामना करने एवं साम्राज्य विस्तार हेतु एक विशाल सुदृढ़ एवं स्थायी
सेना का गठन किया। उसने घोड़ों को दाग़ने एवं सैनिकों के हुलिया लिखे जाने के विषय
में नवीनतम नियम बनाये। स्थायी सेना को गठित करने वाला अलाउद्दीन पहला सुल्तान था।
उसने सेना का केन्द्रीकरण किया और साथ ही सैनिकों की सीधी भर्ती एवं नकद वेतन देने
की प्रथा को प्रारम्भ किया। अमीर खुसरों के वर्णन के आधार पर ‘तुमन’ दस हज़ार सैनिकों की टुकड़ी को कहा जाता था।
अलाउद्दीन की सेना में घुड़सवार, पैदल सैनिक एवं हाथी सैनिक थे। इनमें घुड़सवार सैनिक सबसे अधिक
महत्त्वपूर्ण थे। 'दीवान-ए-आरिज' प्रत्येक
सैनिक की नामावली एवं हुलिया रखता था। फ़रिश्ता के अनुसार अलाउद्दीन के पास लगभग 4
लाख 75 हज़ार सुसज्जित एवं वर्दीधारी सैनिक
थे। भलीभाँति जाँच-परख कर भर्ती किये जाने वाले सैनिक को ‘मुर्रत्तव’
कहा जाता था। ‘एक अस्पा’ (एक घोड़े वाले सैनिक) सैनिक को प्रति वर्ष 234 टका
वेतन मिलता था तथा ‘दो अस्पा’ को
प्रतिवर्ष 378 टका वेतन के रूप मिलता था।
हाजी मौला दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन
ख़िलज़ी (1296-1316 ई.) का असंतुष्ट राज्याधिकारी था।
कोतवाल के चुनाव में अपनी उपेक्षा किये जाने से वह आक्रोश से भर गया था। जिस समय
अलाउद्दीन रणथम्भौर की लड़ाई
में लगा हुआ था, हाजी मौला ने बगावत कर दी। सुल्तान के
दिल्ली से बाहर होने का लाभ उठाकर हाजी मौला ने विद्रोह कर दिया, और नये कोतवाल का मार डाला। लाल महल पर भी हाजी मौला द्वारा क़ब्ज़ा कर
लिया गया। अलाउद्दीन ख़िलज़ी के सरकारी ख़ज़ाने में भी हाजी मौला घुस गया और वहाँ
की दौलत लूट कर अपने समर्थकों में बाँट दी। हाजी मौला ने सुल्तान इल्तुतमिश के एक वंशज को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया। परंतु बगावत
का यह झंडा केवल चार दिन तक ही बुलन्द रह सका। सुल्तान अलाउद्दीन
ख़िलज़ी के समर्थकों ने लाल महल पर फिर से अधिकार कर
लिया और हाजी मौला तथा उसके द्वारा बैठाये गए शहज़ादे को मार डाला। इस बगावत के
फलस्वरूप अलाउद्दीन ख़िलज़ी का ध्यान अपने प्रशासन की त्रुटियों की ओर गया और उसने
ऐसी व्यवस्था कर दी कि भविष्य में इस प्रकार की बगावत फिर न होने पाये।
आर्थिक
सुधार
अलाउद्दीन को आर्थिक सुधारों की
आवश्यता इसलिए महसूस हुई, क्योंकि उसे अपने साम्राज्य
विस्तार की महात्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए एवं निरन्तर हो रहे मंगोल आक्रमणों के कारण एक विशाल सेना की
आवश्यकता थी। फ़रिश्ता के अनुसार सुल्तान के पास लगभग 50,000 दास थे, जिन पर अत्यधिक ख़र्च होता था। इन तमाम
ख़र्चों को दृष्टि में रखते हुए अलाउद्दीन ने एक नई आर्थिक नीति का निर्माण किया।
अलाउद्दीन के आर्थिक सुधारों में सेना की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। अलाउद्दीन
ख़िलजी की आर्थिक नीति के विषय में हमें व्यापक जानकारी जियाउद्दीन बरनी की कृति 'तारीख़े-फ़िरोजशाही' से मिलती है। अलाउद्दीन ख़िलजी
के आर्थिक सुधारों के अंतर्गत मूल्य नियंत्रण के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी अमीर
खुसरों की पुस्तक ‘खजाइनुल-फुतूह’, इब्न बतूता की पुस्तक ‘रेहला’
एवं इसामी की पुस्तक ‘फुतूह-उस-सलातीन’
से भी मिलती है। अलाउद्दीन का मूल्य नियंत्रण केवल दिल्ली भू-भाग में लागू था या फिर पूरी सल्तनत
में, यह प्रश्न काफ़ी विवादास्पद है। मोरलैण्ड एवं के.एस.
लाल ने मूल्य नियंत्रण केवल दिल्ली में लागू होने की बात कही है, परन्तु प्रो. बनारसी प्रसाद सक्सेना ने इस मत का खण्डन किया है। अलाउद्दीन
के बाज़ार व्यवस्था के पीछे कारणों को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। अलाउद्दीन
के समकालीन इतिहासकारों ने उसकी इस व्यवस्था के बारे में जो उल्लेख किया, उनमें कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं।
(1) जियाउद्दीन बरनी - “इन सुधारों के
क्रियान्वयन के पीछे मूलभूत उद्देश्य मंगोल लोगों के भीषण आक्रमण का मुक़ाबला करने के लिए एक विशाल एवं शक्तिशाली
सेना तैयार करना था।”
(2) अमीर खुसरो - “सुल्तान ने इन सुधारों को
जनकल्याण की भावना से लागू किया।” अलाउद्दीन ने एक अधिनियम
द्वारा दैनिक उपयोग की वस्तुओं का मूल्य निश्चित कर दिया था। कुछ महत्त्वपूर्ण
अनाजों का मूल्य इस प्रकार था - गेहूँ 7.5 जीतल प्रति मन, चावल 5 जीतल प्रति मन, जौ
4 जीतन प्रति मन, उड़द 5 जीतल प्रति मन, मक्खन या घी 1 जीतल
प्रति 5/2 किलो। मूल्यों की स्थिरता अलाउद्दीन की
महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। उसने खाद्यान्नों की बिक्री हेतु ‘शहना-ए-मंडी’
नामक बाज़ार की स्थापना की थी। प्राकृतिक विपदा से बचने के लिए
अलाउद्दीन ने ‘शासकीय अन्न भण्डारों’ की
व्यवस्था की थी। अपनी ‘राशन व्यवस्था’ के
अन्तर्गत अनाज को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराने के लिए सुल्तान ने दोआब
क्षेत्र से लगान अनाज के रूप में वसूल किया पर पूर्वी राजस्थान के झाइनक्षेत्र से आधी मालगुज़ारी अनाज में और आधी नकद रूप में वसूल की जाती थी। अकाल या बाढ़ के समय अलाउद्दीन
प्रत्येक घर को प्रति आधा मन अनाज देता था। राशनिंग व्यवस्था अलाउद्दीन की नवीन
सोच थी। मलिक-कबूल को अलाउद्दीन ने खाद्यान्न या अन्न बाज़ार का ‘शहना-ए-मंडी’ नियुक्त किया था।
सराय-ए-अदल ऐसा बाज़ार होता था, जहाँ पर वस्त्र, शक्कर, जड़ी-बूटी, मेवा,
दीपक जलाने का तेल एवं अन्य निर्मित वस्तुएँ बिकने के लिए आती थी। 'सराय-ए-अदल' विशेष रूप से सरकारी धन से सहायता
प्राप्त बाज़ार था। 'सराय-ए-अदल' का
निर्माण बदायूँ के समीप एक
बड़े मैदान में किया गया था। इस बाज़ार में एक टके से लेकर 10,000 टके मूल्य की वस्तुएँ बिकने के लिए आती थीं। अलाउद्दीन ने कपड़े का
व्यापार करने वाले व्यापारियों को खाद्यान्न व्यापारियों की तुलना में अधिक से
अधिक प्रोत्साहन दिया।
दीवान-ए-रियासत
दिल्ली में आकर
व्यापार करने वाले प्रत्येक व्यापारी को 'दीवान-ए-रियासत'
में अपना नाम लिखवाना पड़ता था। अलाउद्दीन के बाज़ार नियन्त्रण की
पूरी व्यवस्था का संचालन ‘दीवान-ए-रियासत’ नाम का अधिकारी करता था। उसके नीचे काम करने वाले कर्मचारी वस्तुओं के
क्रय-विक्रय एवं व्यवस्था का निरीक्षण करते थे। प्रत्येक बाज़ार का अधीक्षक जिसे ‘शहना-ए-मंडी’ कहा जाता था, बाज़ार
का उच्च अधिकारी होता था। उसके अधीन ‘बरीद’ होते थे, जो बाज़ार के अन्दर घूम कर बाज़ार का
निरीक्षण करते थे। बरीद के नीचे ‘मुनहियान’ या गुप्तचर कार्य करते थे। अधिकारियों का क्रम इस प्रकार था -
दीवान-ए-रिसायत, शहना-ए-मंडी, बरीद और
मुनहियान। अलाउद्दीन ने मलिक याकूब को ‘दीवान-ए-रियासत’
नियुक्त किया था।
घोड़ो, दासों एवं मवेशियों के बाज़ार में मुख्यतः चार नियम लागू थे-
(1)
किस्म के अनुसार मूल्य का निर्धारण
(2)
व्यापारियों एवं पूंजीपतियों का बहिष्कार
(3)
दलाली करने वाले लोगों पर कठोर अंकुश और
(4)
सुल्तान द्वारा बार-बार जांच पड़ताल
मूल्य
नियंत्रण को सफल बनाने में ‘मुहतसिब’ (सेंसर)
एवं ‘नाजिर’ (नाप-तौल अधिकारी) की भी
महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
राजस्व
एवं कर व्यवस्था
राजस्व सुधारों के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने सर्वप्रथम मिल्क, इनाम एवं वक्फ के अन्तर्गत दी गई
भूमि को वापस लेकर उसे खालसा भूमि में बदल दिया, साथ ही उसने
मुकद्दमों, खूतों एवं बलाहारों के विशेष अधिकारों को वापस ले
लिया था। कर व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए ‘दीवाने
मुस्तखराज’ विभाग की स्थापना की थी। अलाउद्दीन की राजस्व
नीति की सफलता, कर
निर्धारण और कर वसूली का श्रेय उसके नायब वज़ीर शर्फ़ कायिनी को है। अलाउद्दीन ने
पैदावार का 50 प्रतिशत भूमिकर (खराज) के रूप में लेना
निश्चित किया था। अलाउद्दीन प्रथम सुल्तान था, जिसने भूमि की
पैमाइश कराकर (मसाहत) उसकी वास्तविक आय पर लगान लेना निश्चित किया था। अलाउद्दीन
ने भूमि के एक ‘विस्वा’ को एक ईकाई
माना। भूमि मापन की एक एकीकृत पद्धति अपनायी गयी थी तथा सबसे समान रूप से कर लिया
जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे ज़मींदार कृषकों की स्थिति में आ गये।
सुल्तान लगान को अन्न में वसूलने को महत्त्व देता था।
अलाउद्दीन द्वारा लगाये गये दो नवीन
कर थे-
(1) चराई कर जो दुधारू पशुओं पर लगाया जाता था
और
(2) चरी कर जो घरों एवं झोपड़ी पर लगाया जाता
था
'करही' नाम के कर का भी उल्लेख मिलता
है।
‘जज़िया’ कर ग़ैर मुस्लिमों से लिया जाता था।
‘खुम्स’ कर 4/5 भाग राज्य के
हिस्सें में तथा 1/5 भाग सैनिकों को मिलता था।
‘जकात’ केवल मुसलमानों से लिया जाने वाला एक धार्मिक
कर था, जो सम्पति का 40वाँ हिस्सा होता
था।
'दीवान-ए-मुस्तखराज'
को राजस्व एकत्रित करने वाले अधिकारियों के बकाया राशि की जाँच करने
और वसूलने का कार्य सौंपा गया।
अलाउद्दीन की मृत्यु
जलोदर
रोग से ग्रसित अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपना अन्तिम समय अत्यन्त कठिनाईयों में
व्यतीत किया और 5 जनवरी, 1316 ई. को वह
मृत्यु को प्राप्त हो गया। अलाउद्दीन ख़िलजी की मृत्यु के बाद मलिक काफ़ूर द्वारा सत्ता पर
क़ाबिज़ होने की कोशिश गई जो उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गई।
शिहाबुद्दीन
उमर ख़िलजी - (1316) शिहाबुद्दीन उमर ख़िलजी अलाउद्दीन
ख़िलजी का पुत्र था।
मलिक
काफ़ूर के कहने पर अलाउद्दीन ने अपने पुत्र 'ख़िज़्र ख़ाँ'
को उत्तराधिकारी न बना कर अपने 5-6 वर्षीय
पुत्र शिहाबुद्दीन उमर को उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। अलाउद्दीन की मृत्यु के
बाद मलिक काफ़ूर ने शिहाबद्दीन को सुल्तान बना कर सारा अधिकार अपने हाथों में
सुरक्षित कर लिया। लगभग 35 दिन के सत्ता उपभोग के बाद मलिक काफ़ूर
की हत्या अलाउद्दीन के तीसरे पुत्र मुबारक ख़िलजी ने करवा दी। मलिक काफ़ूर की
हत्या के बाद वह स्वयं सुल्तान का संरक्षक बन गया और कालान्तर में उसने शिहाबुद्दीन
को अंधा करवा कर क़ैद कर लिया।
क़ुतुबुद्दीन
मुबारक ख़िलजी - (1316-1320 ई.)
यह अलाउद्दीन
ख़िलजी का तृतीय पुत्र था। अलाउद्दीन की मृत्यु के कुछ समय बाद मलिक काफ़ूर स्वयं
सुल्तान बनने का सपना देखने लगा और उसने षड़यंत्र रचकर मुबारक ख़िलजी की हत्या
करने की योजना बनाई। किंतु मलिक काफ़ूर के षड़यंत्रों से बच निकलने के बाद मुबारक
ख़िलजी ने चार वर्ष तक सफलतापूर्वक राज्य किया। इसके शासनकाल में राज्य में प्राय:
शांति व्याप्त रही। यह भोग-विलास में लिप्त रहता था। यह
नग्न स्त्री-पुरुषों की संगत को पसन्द करता था। उसके प्रधानमंत्री ख़ुसरों ख़ाँ ने
1320 ई. में उसकी हत्या करवा दी।
नासिरुद्दीन खुसरवशाह (हिन्दू से मुसलमान बना) (15
अप्रैल से 27 अप्रैल, 1320 ई.)
इसने मुबारक खिलजी का वध कर गद्दी हासिल की।
इसने पैगंबर का सेनापति की उपाधि धरण की। यह दिल्ली सल्तनत काल मे सुल्तान बनने
वाला एकमात्र भारतीय मुसलमान था।
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