ग़ुलाम
वंश
स्थापना
ग़ुलाम
वंश दिल्ली में कुतुबद्दीन
ऐबक द्वारा 1206 ई. में स्थापित
किया गया था। यह वंश 1290 ई. तक शासन करता रहा। इसका नाम
ग़ुलाम वंश इस कारण पड़ा कि इसका संस्थापक और उसके इल्तुतमिश और बलबन जैसे महान्
उत्तराधिकारी प्रारम्भ में ग़ुलाम अथवा दास थे और बाद में वे दिल्ली का सिंहासन
प्राप्त करने में समर्थ हुए। कुतुबद्दीन (1206-10 ई.) मूलत:
शहाबुद्दीन मोहम्मद ग़ोरी का
तुर्क दास था और 1192 ई. के 'तराइन के
युद्ध' में विजय प्राप्त करने में उसने अपने स्वामी की विशेष
सहायता की। उसने अपने स्वामी की ओर से दिल्ली पर अधिकार कर लिया और मुसलमानों की
सल्तनत पश्चिम में गुजरात तथा
पूर्व में बिहार और बंगाल तक, 1206 ई. में
ग़ोरी की मृत्यु के पूर्व में ही, विस्तृत कर दी।
दिल्ली के सिंहासन पर यह वंश
1206
ई. से 1290 ई. तक आरूढ़ रहा। इसका संस्थापक
कुतुबुद्दीन ऐबक मुहम्मद गोरी का तुर्क दास था। पर उसकी योग्यता देखकर गोरी ने उसे
दासता से मुक्त कर दिया। कुतुबुद्दीन मूलत: ग़ुलाम था। इसलिए यह राजवंश ग़ुलाम वंश
कहलाता है। वह 1210 ई. तक गद्दी पर रहा। कहते हैं, दिल्ली की क़ुतुबमीनार का निर्माण-कार्य उसने ही आरंभ कराया था। वह योग्य
शासक माना जाता है।
इस वंश का दूसरा प्रसिद्ध
शासक इल्तुतमिश था जिसने 1211
ई. से 1236 ई. तक शासन किया। उसके समय में
साम्राज्य का बहुत विस्तार हुआ और कश्मीर से नर्मदा तक तथा बंगाल से सिंधु तक का
भू-भाग ग़ुलाम वंश के अधीन आ गया। इल्तुतमिश के बेटे बड़े विलासी थे। अत: कुछ समय
बाद (1236 ई. में) उसकी पुत्री रजिया बेगम गद्दी पर बैठी।
रजिया बड़ी बुद्धिमान महिला थी। वह मर्दाने वस्त्र पहनकर दरबार में बैठती थी। पर
षड्यंत्रों से अपने को नहीं बचा सकी और 1240 ई. में उसकी
हत्या कर दी गई।
इसी वंश में एक और प्रमुख
शासक हुआ- सुलतान ग़यासुद्दीन बलबन। बलबन भी मूलत: इल्तुतमिश का ग़ुलाम था इसने 1266 से 1287 ई. तक शासन किया। इसके समय में राज्य में
शांति व्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी हो गई थी। अमीर खुसरों ग़ुलाम शासकों के ही
संरक्षित विद्वान् थे।
ग़ुलाम
वंश के शासक
1206 से 1290 ई. के मध्य 'दिल्ली
सल्तनत' पर जिन तुर्क शासकों द्वारा शासन किया गया उन्हें 'ग़ुलाम वंश' का शासक माना जाता है। इस काल के दौरान दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाले राजवंश थे-
कुतुबुद्दीन ऐबक का 'कुत्बी'
इल्तुतमिश (अल्तमश) का 'शम्सी'
बलबन का 'बलवनी'
इन शासकों को 'ग़ुलाम वंश' का शासक कहना इसलिए उचित नहीं है,
क्योंकि इन तीनों तुर्क शासकों का जन्म स्वतंत्र माता पिता से हुआ
था। इसलिए इन्हें 'प्रारम्भिक तुर्क' शासक
व 'मामलूक' शासक कहना अधिक उपयुक्त
होगा।
इतिहासकार अजीज अहमद ने इन
शासकों को दिल्ली के 'आरम्भिक तुर्क शासकों' का नाम दिया है।
'मामलूक' शब्द का अर्थ होता है- स्वतंत्र माता पिता से उत्पन्न दास।
'मामलूक' नाम इतिहासकार हबीबुल्लाह ने दिया है। ऐबक, इल्तुतमिश,
एवं बलवन 'इल्बारी तुर्क' थे।
ग़ुलाम राजवंश ने लगभग 84 वर्षों तक इस उप महाद्वीप पर शासन किया। यह प्रथम 'मुस्लिम
राजवंश' था जिसने भारत पर शासन किया।
कुतुबुद्दीन ऐबक (1206
- 1210) इस वंश का प्रथम शासक था ।
आरामशाह (1210
- 1211)
इल्तुतमिश (1211
- 1236),
रुकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह (1236)
रज़िया सुल्तान (1236
- 1240)
मुइज़ुद्दीन बहरामशाह (1240
- 1242 )
अलाउद्दीन मसूद (1242
- 46 ई.)
नसीरूद्दीन महमूद (1245
- 1265)
अन्य कई शासकों के बाद
उल्लेखनीय रूप से ग़यासुद्दीन बलबन (1250 - 1290) सुल्तान बने ।
शासकों
द्वारा शासन
कुतुबुद्दीन ऐबक का पुत्र और
उत्तराधिकारी आरामशाह था,
जिसने केवल एक वर्ष राज्य किया और बाद में 1211 ई. में उसके बहनोई इल्तुतमिश ने उसे सिंहासन से हटा दिया।
इल्तुतमिश भी कुशल प्रशासक
था और उसने 1236
ई. में अपनी मृत्यु तक राज्य किया।
उसका उत्तराधिकारी, उसका पुत्र रुक्नुद्दीन था, जो घोर निकम्मा तथा
दुराचारी था और उसे केवल कुछ महीनों के शासन के उपरान्त गद्दी से उतारकर उसकी बहिन
रजिय्यतउद्दीन, उपनाम रज़िया
सुल्तान को 1237 ई. में
सिंहासनासीन किया गया।
रज़िया कुशल शासक सिद्ध हुई, किन्तु स्त्री होना ही उसके विरोध का कारण हुआ और 3 वर्षों
के शासन के उपरांत 1240 ई. में उसे गद्दी से उतार दिया गया।
उसका भाई बहराम उसका
उत्तराधिकारी हुआ और उसने 1242
ई. तक राज्य किया, जब उसकी हत्या कर दी गई।
उसके उपरांत इल्तुतमिश का
पौत्र मसूद शाह उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु वह इतना विलासप्रिय और
अत्याचारी शासक सिद्ध हुआ कि 1246 ई. में उसे गद्दी से
उतारकर इल्तुतमुश के अन्य पुत्र नासिरुद्दीन को शासक बनाया गया।
सुल्तान नासिरुद्दीन में
विलासप्रियता आदि दुर्गुण न थे। वह शांत स्वभाव का और विद्याप्रेमी व्यक्ति था।
साथ ही उसे बलबन सरीखे कर्त्तव्यनिष्ठ एक ऐसे व्यक्ति का सहयोग प्राप्त था, जो इल्तुतमिश के प्रथम चालीस ग़ुलामों में से एक और सुल्तान का श्वसुर भी
था। उसने 20 वर्षों तक (1246-1266 ई.)
शासन किया।
उसके उपरांत उसका श्वसुर
बलबन सिंहासनासीन हुआ,
जो बड़ा ही कठोर शासक था। उसने इल्तुतमिश के काल से होने वाले मंगोल आक्रमणों से देश को मुक्त किया, सभी हिन्दू और मुस्लिम विद्रोहों का दमन किया और दरबार तथा समस्त राज्य
में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की। उसने बंगाल के तुगरिल
ख़ाँ के विद्रोह का दमन करके 1286 ई. अथवा अपनी मृत्युपर्यंत राज्य किया। इसके एक वर्ष पूर्व ही उसके प्रिय
पुत्र शाहजादा मुहम्मद की
मृत्यु पंजाब में मंगोल
आक्रमकों के युद्ध के बीच हो चुकी थी। उसके द्वितीय पुत्र बुगरा ख़ाँ ने , जिसे
उसने बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था, दिल्ली आकर अपने
पिता के शासन भार को सँभालना अस्वीकार कर दिया। ऐसी परिस्थिति में बुगरा ख़ाँ के
पुत्र कैकोबाद को 1286
ई. में सुल्तान घोषित किया गया, किन्तु वह
इतना शराबी निकला कि दरबार के अमीरों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और 1290
ई. में उसका वध कर डाला। इस प्रकार ग़ुलाम वंश का दु:खमय अंत हुआ।
ग़ुलाम
वंश की उपलब्धियाँ
ग़ुलाम
वंश के शासकों ने प्रजा के हितों पर अधिक ध्यान न दिया और प्रशासन की अपेक्षा भोग-विलासों
में ही उनका अधिक झुकाव रहा। फिर भी वास्तुकला के क्षेत्र में उनकी कुछ उल्लेखनीय
कृतियाँ शेष है,
जिनमें क़ुतुबमीनार अपनी भव्यता के कारण दर्शनीय है। इस वंश के शासकों ने मिनहाजुद्दीन सिराज और अमीर ख़ुसरो जैसे विद्वानों को संरक्षण प्रदान
किया। मिनहाजुद्दीन सिराज ने 'तबकाते-नासिरी' नामक ग्रन्थ की रचना की है।
कुतुबी राजवंश
कुतुबुद्दीन ऐबक (संस्थापक 1206 से 1210 ई.)
कुतुबुद्दीन
ऐबक (1206-1210
ई.) एक तुर्क जनजाति का व्यक्ति था। ऐबक एक तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ होता है- “चन्द्रमा का देवता”। कुतुबुद्दीन का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था। बचपन में ही वह अपने
परिवार से बिछुड़ गया और उसे एक व्यापारी द्वारा निशापुर के बाज़ार में ले जाया
गया, जहाँ 'क़ाज़ी फ़खरुद्दीन अजीज़
कूफ़ी' (जो इमाम अबू हनीफ़ के वंशज थे) ने उसे ख़रीद लिया।
क़ाज़ी ने अपने पुत्र की भाँति ऐबक की परवरिश की तथा उसके लिए धनुर्विद्या और
घुड़सवारी की सुविधाएँ उपलब्ध कराईं। कुतुबुद्दीन ऐबक बाल्याकाल से ही प्रतिभा का
धनी था। उसने शीघ्र ही सभी कलाओं में कुशलता प्राप्त कर ली। उसने अत्यन्त सुरीले
स्वर में क़ुरान पढ़ना सीख लिया, इसलिए वह 'क़ुरान ख़ाँ' (क़ुरान का पाठ करने वाला) के नाम से
प्रसिद्ध हो गया। कुछ समय बाद क़ाज़ी की भी मृत्यु हो गयी। उसके पुत्रों ने उसे एक
व्यापारी के हाथों बेच दिया, जो उसे ग़ज़नी ले गया, जहाँ उसे मुहम्मद ग़ोरी ने ख़रीद लिया और यहीं से उसकी जीवनचर्चा का एक नया अध्याय आरम्भ हुआ,
जिसने अन्त में उसे दिल्ली के सिंहासन पर बैठाया।
बुद्धिमान
और स्वामीभक्त
अपनी
ईमानदारी,
बुद्धिमानी और स्वामीभक्ति के बल पर कुतुबुद्दीन ने मुहम्मद ग़ोरी का विश्वास प्राप्त कर लिया। ग़ोरी
ने उसके समस्त प्रशंसनीय गुणों से प्रभावित होकर उसे 'अमीर-ए-आखूर'
(अस्तबलों का प्रधान) नियुक्त किया, जो उस समय
एक महत्त्वपूर्ण पद था। इस पद पर रहते हुए ऐबक ने गोर,
बामियान और ग़ज़नी के युद्धों में सुल्तान की सेवा की। 1192 ई. में ऐबक ने तराइन के युद्ध में कुशलतापूर्वक भाग लिया। तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद मुहम्मद ग़ोरी
ने ऐबक को भारत के प्रदेशों
का सूबेदार नियुक्त कर दिया। ग़ोरी के वापस जाने के बाद ऐबक ने अजमेर, मेरठ आदि
स्थानों के विद्रोहों को दबाया। 1194 में मुहम्मद ग़ोरी और कन्नौज के शासक जयचन्द्र के बीच हुए युद्ध में ऐबक ने अपने स्वामी की ओर से महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभाई। 1197 ई. में ऐबक ने गुजरात की राजधानी अन्हिलवाड़ को लूटा तथा वहाँ के शासक भीमदेव को दण्डित किया। 1202 ई. में उसने बुन्देलखण्ड के राजा परमार्दिदेव को परास्त किया तथा कालिंजर, महोबा और खजुराहो पर अधिकार कर लिया। 1205 ई. उसने खोक्खर के विरुद्ध
मुहम्मद ग़ोरी का हाथ बँटाया। इस प्रकार ऐबक ने मुहम्मद ग़ोरी की सैनिक योजनाओं को
एक मूर्तरूप दिया। इसलिए भारतीय तुर्क अधिकारियों ने उसे अपना प्रधान स्वीकार
किया।
दास
जीवन से मुक्ति
मुहम्मद
ग़ोरी की मुत्यु के बाद चूंकि उसका कोई पुत्र नहीं
था, इसलिए लाहौर की जनता ने मुहम्मद ग़ोरी के प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक को लाहौर पर शासन करने का निमंत्रण दिया।
ऐबक ने लाहौर पहुँच कर जून, 1206 ई में अपना राज्याभिषेक
करवाया। सिहांसनारूढ़ होने के समय ऐबक ने अपने को ‘मलिक एवं
सिपहसालार’ की पदवी से संतुष्ठ रखा। उसने अपने नाम से न तो
कोई सिक्का जारी करवाया और न कभी 'खुतबा' (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाया। कुछ समय बाद मुहम्मद ग़ोरी के
उत्तराधिकारी ग़यासुद्दीन बलबन ने ऐबक को सुल्तान स्वीकार कर लिया। ऐबक को 1208 ई.
में दासता से मुक्ति मिल गई।
शासक
का पद
सिंहासन
पर बैठने के समय ऐबक को मुहम्मद ग़ोरी के अन्य
उत्तराधिकारी 'ग़यासुद्दीन मुहम्मद', 'ताजुद्दीन
एल्दौज' एवं 'नासिरुद्दीन क़बाचा'
के विद्रोह का सामना करना पड़ा। इन विद्रोहियों को शांत करने के लिए
ऐबक ने वैवाहिक सम्बन्धों को आधार बनाया। उसने ताजुद्दीन एल्दौज (ग़ज़नी का शासक)
की पुत्री से अपना विवाह, नासिरुद्दीन कुबाचा (मुल्तान एवं सिंध का शासक ) से अपनी बहन का विवाह तथा इल्तुतमिश से अपनी पुत्री का विवाह किया। इन
वैवाहिक सम्बन्धों के कारण एल्दौज तथा कुबाचा की ओर से विद्रोह का ख़तरा कम हो
गया। कालान्तर में ग़ोरी के उत्तराधिकारी ग़यासुद्दीन ने ऐबक को सुल्तान के रूप
में स्वीकार करते हुए 1208 ई. में सिंहासन, छत्र, राजकीय पताका एवं नक्कारा भेंट किया। इस तरह
ऐबक एक स्वतन्त्र शासक के रूप में तुर्की राज्य का संस्थापक बना।
शासन
काल विभाजन
कुतुबुद्दीन
ऐबक के शासन काल को तीन भागों में बांटा जा सकता है-
1191 से 1206 ई. की अवधि को सैनिक गतिधियों की अवधि कहा जा सकता है। इस समय ऐबक ने
उत्तरी भारत में ग़ोरी
द्वारा विजित प्रदेशों पर शासन किया।
1206 से 1208 ई. तक की अवधि, जिसे उसके राजनीतिक कार्यों की अवधि
माना जा सकता है, में ऐबक ने ग़ोरी के भारतीय सल्तनत में
मलिक एवं सिपाहसलार, की हैसियत से कार्य किया।
1208 से 1210 ई. की अवधि में उसका अधिकांश समय ‘दिल्ली सल्तनत’ की रूपरेखा बनाने में बीता।
ऐबक
ने ग़ोरी की मुत्यु के बाद स्वतंत्र हुए बदायूँ को पुनः जीता और इल्तुतमिश को वहाँ का प्रशासक नियुक्त किया। ऐबक अपनी असामयिक मृत्यु के कारण कालिंजर और ग्वालियर को पुनः अपने अधिकार में नहीं ला सका। इस समय उसने स्वतन्त्र भारतीय
प्रदेश पर स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन किया।
शासन
क्षेत्र
तराइन
के युद्ध के बाद मुइज्जुद्दीन ग़ज़नी लौट गया और भारत के विजित क्षेत्रों का शासन अपने विश्वनीय ग़ुलाम
क़ुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों में छोड़ दिया। पृथ्वीराज के पुत्र को रणथम्भौर सौंप दिया गया जो तेरहवीं शताब्दी में
शक्तिशाली चौहानों की राजधानी बना। अगले दो वर्षों में ऐबक ने, ऊपरी दोआब में मेरठ, बरन
तथा कोइल (आधुनिक अलीगढ़) पर
क़ब्ज़ा किया। इस क्षेत्र के शक्तिशाली डोर-राजपूतों ने ऐबक का मुक़ाबला किया,
लेकिन आश्चर्य की बात है कि गहद वालों को तुर्की आक्रमण से सबसे
अधिक नुक़सान का ख़तरा था और उन्होंने न तो डोर-राजपूतों की कोई सहायता की और न ही
तुर्कों को इस क्षेत्र से बाहर निकालने का कोई प्रयास ही किया। मुइज्जुद्दीन 1194
ई. में भारत वापस आया। वह पचास हज़ार घुड़सवारों के साथ यमुना को पार कर कन्नौज की ओर बढ़ा। इटावा ज़िले में कन्नौज के निकट छंदवाड़ में
मुइज्जुद्दीन और जयचन्द्र के बीच भीषण लड़ाई हुई। बताया जाता है कि जयचन्द्र जीत
ही गया था जब उसे एक तीर लगा और उसकी मृत्यु हो गई। उसके मरने के साथ ही सेना के
भी पाँव उखड़ गए। अब मुइज्जुद्दीन बनारस की ओर बढ़ा और उस शहर को तहस-नहस कर दिया। उसने वहाँ के मन्दिरों को भी
नहीं छोड़ा। यद्यपि इस क्षेत्र के एक भाग पर तब भी गहदवालों का शासन रहा और कन्नौज
जैसे कई गढ़, तुर्कों का विरोध करते रहे तथापि बंगाल की सीमा
तक एक बड़ा भूभाग उनके क़ब्ज़े में आ गया। तराइन और छंदवाड़ के युद्धों के
परिणामस्वरूप उत्तर भारत में तुर्की साम्राज्य की नींव पड़ी। इस शासन की जड़ें
मज़बूत करना कठिन काम था और लगभग 50 वर्षों तक तुर्क इसका
प्रयास करते रहे। मुइज्जुद्दीन 1206 ई. तक जीवित रहा। इस
अवधि में उसने दिल्ली की दक्षिण सीमा की सुरक्षा के लिए बयाना तथा ग्वालियर के
क़िलों पर क़ब्ज़ा किया। उसके बाद ऐबक ने चंदेल शासकों से कालिंजर, महोबा तथा खजुराहो को छीन लिया।
दोआब
को अपना आधार बनाकर तुर्कों ने आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमण आरम्भ कर दिया। ऐबक
ने गुजरात तथा अन्हिलवाड़ के शासक भीम द्वितीय को पराजित किया और कई नगरों में लूटपाट मचाई। यहाँ
यद्यपि एक मुसलमान शासक को नियुक्त किया गया था पर उसे शीघ्र ही गद्दी से उतार
दिया गया। इससे पता चलता है कि तुर्क इतने दूर दराज़ क्षेत्रों में शासन करने के
लायक़ शक्ति नहीं बने थे।
दानशील
व्यक्ति
ऐबक
को अपनी उदारता एवं दानी प्रवृति के कारण ‘लाखबख़्श’ ('लाखों का दानी' अर्थात्
'लाखों का दान करने वाला') कहा गया है।
इतिहासकार 'मिनहाज' ने उसकी दानशीलता
के कारण ही उसे 'हातिम द्वितीय' की
संज्ञा दी हैं। फ़रिश्ता (यात्री) के अनुसार उस समय केवल किसी दानशील व्यक्ति को ही ऐबक की उपाधि दी जाती
थी। बचपन में ही ऐबक ने क़ुरान के अध्यायों को कंठस्थ कर लिया था और अत्यन्त
सुरीले स्वर में इसका उच्चारण करता था इस कारण ऐबक को 'क़ुरान
ख़ाँ' कहा जाता था। साहित्य एवं स्थापत्य कला में भी ऐबक की दिलचस्पी थी। उसके दरबार में विद्वान् हसन
निज़ामी एवं फ़ख्र-ए-मुदब्बिर को संरक्षण प्राप्त था। हसन निज़ामी ने 'ताज-उल-मासिर' की रचना की थी।
निर्माण
कार्य
फ़ख्र-ए-ऐबक
ने दिल्ली में 'कुव्वत-उल-इस्लाम'
(विष्णु मन्दिर के स्थान पर) तथा अजमेर में 'ढाई दिन का
झोपड़ा' (संस्कृत विद्यालय के
स्थान पर) नाम मस्जिदों का निर्माण करवाया। कुतुबमीनार,
जिसे ‘शेख ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी’
की स्मृति में बनाया गया है, के निर्माण कार्य
को प्रारम्भ करवाने का श्रेय कुतुबुद्दीन ऐबक को जाता है। एक मान्यता के अनुसार
कहा जाता है कि, ऐबक के शासकाल में बकरी और शेर एक ही घाट पर
पानी पीते थे।
मृत्यु
अपने
शासन के 4
वर्ष बाद 1210 ई. में लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से
गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई। कुतुबुद्दीन ऐबक का मक़बरा लाहौर में है।
2. आरामशाह (1210
से 1211 ई.)
कुतुबुद्दीन ऐबक के मरने के बाद लाहौर के तुर्क सरदारों ने आरामशाह को 1210 में सुल्तान घोषित कर दिया और आरामशाह ने 'मुज़फ़्फ़्रर
सुल्तान महमूद शाह' की उपाधि ली और अपने नाम की मुद्राएँ
चलायीं। आरामशाह में सुल्तान बनने के गुण नहीं थे। सल्तनत की स्थिति भी संकटग्रस्त
थी और आरामशाह के लिए स्थिति को सम्भालना दुष्कर काम था। इस बात पर भी सन्देह किया
जाता है कि वह ऐबक का पुत्र था। विद्वानों की धारणा है कि वह ऐबक का पुत्र नहीं था
वरन् उसका प्रिय व्यक्ति था।
इस बात का समर्थन इतिहासकार
मिनहाज-उस-सिराज ने लिखा है कि -'लाहौर के अमीरों ने शांति और
सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए आरामशाह को सिंहासन पर बैठा दिया।
अब्दुल्ला वस्साफ ने लिखा है
कि कुतुबुद्दीन का कोई पुत्र न था।
अबुल फजल के मतानुसार
आरामशाह कुतुबुद्दीन ऐबक का भाई था।
दिल्ली
के अमीरों ने इल्तुतमिश को , जो ऐबक का
दामाद और एक योग्य एवम प्रतिभाशाली ग़ुलाम था, दिल्ली के
सिंहासन पर बैठने के लिए आमंत्रित किया। इल्तुतमिश ने अपनी सेना के साथ बदायूँ से
दिल्ली की ओर कूच कर दिया। नगर के बाहर इल्तुतमिश की आरामशाह के साथ मुठभेड़ हुई।
आरामशाह हार गया और क़ैद कर लिया गया। अमीरों ने इल्तुतमिश का स्वागत किया और 1210
में इल्तुतमिश दिल्ली का सुल्तान बन गया। आरामशाह की या तो हत्या कर दी गयी या वह कारागार में
मारा गया।
शम्सी राजवंश;
इल्तुतमिश (1211
से 1236 ई.)
इल्तुतमिश एक इल्बारी तुर्क था। खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य कुशलता से
प्रभावित होकर मुहम्मद ग़ोरी ने उसे “अमीरूल उमरा” नामक
महत्त्वपूर्ण पद दिया था। अकस्मात् मुत्यु के कारण कुतुबद्दीन
ऐबक अपने किसी उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं कर सका था।
अतः लाहौर के तुर्क
अधिकारियों ने कुतुबद्दीन ऐबक के विवादित पुत्र आरामशाह (जिसे इतिहासकार नहीं मानते) को लाहौर की गद्दी पर बैठाया, परन्तु दिल्ली के
तुर्को सरदारों एवं नागरिकों के विरोध के फलस्वरूप कुतुबद्दीन ऐबक के दामाद
इल्तुतमिश, जो उस समय बदायूँ का सूबेदार था, को दिल्ली आमंत्रित कर राज्यसिंहासन
पर बैठाया गया। आरामशाह एवं इल्तुतमिश के बीच दिल्ली के निकट जड़ नामक स्थान पर
संघर्ष हुआ, जिसमें आरामशाह को बन्दी बनाकर बाद में उसकी
हत्या कर दी गयी और इस तरह ऐबक वंश के बाद इल्बारी वंश का शासन प्रारम्भ हुआ।कठिनाइयों से सामना
सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश
ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात्
कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही
सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक
गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’
का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। इल्तुतिमिश के समय में ही अवध में पिर्थू विद्रोह हुआ।
1215 से 1217 ई. के बीच इल्तुतिमिश को अपने दो
प्रबल प्रतिद्वन्द्धी 'एल्दौज' और 'नासिरुद्दीन क़बाचा' से संघर्ष करना पड़ा। 1215
ई. में इल्तुतिमिश ने एल्दौज को तराइन के मैदान में पराजित किया। 1217 ई. में इल्तुतिमिश
ने कुबाचा से लाहौर छीन लिया
तथा 1228 में उच्छ पर अधिकार कर कुबाचा से बिना शर्त
आत्मसमर्पण के लिए कहा। अन्त में कुबाचा ने सिन्धु नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस तरह इन दोनों प्रबल विरोधियों का अन्त हुआ।
मंगोलों
से बचाव
मंगोल आक्रमणकारी चंगेज़ ख़ाँ के भय से भयभीत होकर ख्वारिज्म शाह का पुत्र 'जलालुद्दीन
मुगबर्नी' वहां से भाग कर पंजाब की ओर आ गया। चंगेज़ ख़ाँ उसका पीछा करता हुए लगभग 1220-21 ई. में सिंध तक आ
गया। उसने इल्तुतमिश को संदेश दिया कि वह मंगबर्नी की मदद न करें। यह संदेश लेकर
चंगेज़ ख़ाँ का दूत इल्तुतमिश के दरबार में आया। इल्तुतमिश ने मंगोल जैसे शक्तिशाली
आक्रमणकारी से बचने के लिए मंगबर्नी की कोई सहायता नहीं की। मंगोल आक्रमण का भय 1228
ई. में मंगबर्नी के भारत से वापस जाने पर टल गया। कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद अली मर्दान ने बंगाल में अपने को स्वतन्त्र घोषित कर लिया तथा 'अलाउद्दीन'
की उपाधि ग्रहण की। दो वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका
पुत्र 'हिसामुद्दीन इवाज' उत्तराधिकारी
बना। उसने 'ग़यासुद्दीन आजिम' की उपाधि
ग्रहण की तथा अपने नाम के सिक्के चलाए और खुतबा (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाया।
विजय
अभियान
1225 में इल्तुतमिश
ने बंगाल में स्वतन्त्र शासक 'हिसामुद्दीन
इवाज' के विरुद्ध अभियान छेड़ा। इवाज ने बिना युद्ध के ही
उसकी अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया, पर इल्तुतमिश के
पुनः दिल्ली लौटते ही उसने
फिर से विद्रोह कर दिया। इस बार इल्तुतमिश के पुत्र नसीरूद्दीन
महमूद ने 1226 ई. में लगभग उसे
पराजित कर लखनौती पर अधिकार कर लिया। दो वर्ष के उपरान्त नासिरुद्दीन महमूद की
मृत्यु के बाद मलिक इख्तियारुद्दीन बल्का ख़लजी ने बंगाल की गद्दी पर अधिकार कर
लिया। 1230 ई. में इल्तुतमिश ने इस विद्रोह को दबाया। संघर्ष
में बल्का ख़लजी मारा गया और इस बार एक बार फिर बंगाल दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया। 1226 ई. में
इल्तुतमिश ने रणथंभौर पर तथा
1227 ई. में परमरों की राजधानी मन्दौर पर अधिकार कर लिया। 1231 ई. में
इल्तुतमिश ने ग्वालियर के
क़िले पर घेरा डालकर वहाँ के शासक मंगलदेव को पराजित किया। 1233 ई. में चंदेलों के
विरुद्ध एवं 1234-35 ई. में उज्जैन एवं भिलसा के
विरुद्ध उसका अभियान सफल रहा।
वैध
सुल्तान एवं उपाधि
इल्तुतमिश के नागदा के गुहिलौतों और गुजरात चालुक्यों पर किए गए आक्रमण विफल हुए।
इल्तुतमिश का अन्तिम अभियान बामियान के विरुद्ध हुआ। फ़रवरी, 1229 में बग़दाद के ख़लीफ़ा से इल्तुतमिश को सम्मान में ‘खिलअत’
एवं प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ। ख़लीफ़ा ने इल्तुतमिश की पुष्टि उन
सारे क्षेत्रों में कर दी, जो उसने जीते थे। साथ ही ख़लीफ़ा
ने उसे 'सुल्तान-ए-आजम' (महान शासक) की
उपाधि भी प्रदान की। प्रमाण पत्र प्राप्त होने के बाद इल्तुतमिश वैध सुल्तान एवं दिल्ली सल्तनत एक वैध स्वतन्त्र राज्य बन गई।
इस स्वीकृति से इल्तुतमिश को सुल्तान के पद को वंशानुगत बनाने और दिल्ली के
सिंहासन पर अपनी सन्तानों के अधिकार को सुरक्षित करने में सहायता मिली। खिलअत
मिलने के बाद इल्तुतमिश ने ‘नासिर अमीर उल मोमिनीन’ की उपाधि ग्रहण की।
सिक्कों
का प्रयोग
इल्तुतमिश
पहला तुर्क सुल्तान था,
जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलवाये। उसने सल्तनत कालीन दो महत्त्वपूर्ण सिक्के 'चाँदी का टका' (लगभग 175
ग्रेन) तथा 'तांबे' का ‘जीतल’ चलवाया। इल्तुतमिश ने सिक्कों पर टकसाल के नाम अंकित करवाने की परम्परा को आरम्भ
किया। सिक्कों पर इल्तुतमिश ने अपना उल्लेख ख़लीफ़ा के प्रतिनिधि के रूप में किया
है। ग्वालियर विजय के बाद
इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर कुछ गौरवपूर्ण शब्दों को अंकित करवाया, जैसे “शक्तिशाली सुल्तान”, “साम्राज्य
व धर्म का सूर्य”, “धर्मनिष्ठों के नायक के सहायक”। इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानान्तरित
किया।
टका सल्तनत काल में प्रचलित चाँदी का मानक सिक्का था। इसका वजन 175 ग्रेन का था। यह सिक्का सुल्तान इल्तुतमिश द्वारा प्रयोग में लाया गया था और यह 48 जीतल के समतुल्य था।
अदली सल्तनत काल का चाँदी का सिक्का था, जिसका वजन 144 ग्रेन
था।
मृत्यु
बयाना पर आक्रमण करने के लिए जाते समय मार्ग में इल्तुतमिश बीमार हो गया। अन्ततः
अप्रैल 1236 में उसकी मृत्यु हो गई। इल्तुतमिश प्रथम सुल्तान
था, जिसने दोआब के आर्थिक महत्त्व को समझा था और उसमें सुधार
किया था।
रज़िया
को उत्तराधिकार
रज़िया
सुल्तान इल्तुतमिश की पुत्री तथा भारत की पहली मुस्लिम शासिका थी। अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने
उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नसीरूद्दीन महमूद की, जो
अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, 1229 ई. को अप्रैल में मृत्यु हो
गई। सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन कार्य के किसी भी प्रकार से योग्य नहीं थे।
अत: इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु शैय्या पर से अपनी पुत्री रज़िया को अपना
उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
यात्री
विवरण एवं संरक्षक
इल्तुतमिश
की न्यायप्रियता का वर्णन करते हुए इब्नबतूता लिखता है कि, सुल्तान ने अपने महल के सामने संगमरमर
की दो शेरों की मूर्तियाँ स्थापित कराई थीं, जिनके गलें में
घण्टियां लगी थीं, जिसको कोई भी व्यक्ति बजाकर न्याय की माँग
कर सकता था। 'मुहम्मद जुनैदी' और
फ़खरुल इसामी' की मदद से इल्तुतमिश के दरबार में 'मिन्हाज-उल-सिराज', 'मलिक ताजुद्दीन' को संरक्षण मिला था। मिन्हाज-उल-सिराज ने इल्तुतमिश को महान् दयालु,
सहानुभूति रखने वाला, विद्धानों एवं वृद्धों
के प्रति श्रद्धा रखने वाला सुल्तान बताया है। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार भारत में मुस्लिम सम्प्रभुता का इतिहास
इल्तुतमिश से आरम्भ होता है। अवफी ने इल्तुतमिश के ही शासन काल में ‘जिवामी-उल-हिकायत’ की रचना की। निज़ामुल्मुल्क
मुहम्मद जुनैदी, मलिक कुतुबुद्दीन हसन ग़ोरी और फ़खरुल मुल्क
इसामी जैसे योग्य व्यक्तियों को उसका संरक्षण प्राप्त था। वह शेख कुतुबुद्दीन
तबरीजी, शेख बहाउद्दीन जकारिया, शेख
नजीबुद्दीन नख्शबी आदि सूफ़ी संतों का बहुत सम्मान करता था।
डॉ.
ईश्वरी प्रसाद के अनुसार “इल्तुतमिश निस्सन्देह ग़ुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक था।”
निर्माण
कार्य
स्थापत्य
कला के अन्तर्गत इल्तुतमिश ने कुतुबुद्दीन
ऐबक के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने
का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया। ‘अजमेर की मस्जिद’ का
निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था। उसने दिल्ली में एक विद्यालय की स्थापना की। इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है,
जो एक कक्षीय मक़बरा है।
रुक्नुद्दीन फ़िरोज (1236
ई.)
इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रज़िया सुल्तान को अपना उत्तराधिकारी बनाया था।
लेकिन इल्तुतमिश की मृत्यु
के बाद,
इल्तुतमिश के बड़े पुत्र रुकुनुद्दीन
फ़ीरोज़शाह (1236 ई.) को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया।
सुल्तान बनने से पहले वह बदायूँ और लाहौर की सरकार का प्रबन्ध संभाल चुका था।
वह विलासी प्रवृत्ति का होने
के कारण शासन के कार्यो में रुचि नहीं लेता था। इसलिए उसे विलास-प्रेमी जीव कहा
गया है।
रूकनुद्दीन में सुल्तान बनने
के गुणों का सर्वथा अभाव था।
यद्यपी रुकुनुद्दीन
फ़ीरोज़शाह शासक था,
फिर भी शासन की बागडोर उसकी माँ शाहतुर्कान के हाथों में थी,
जो मूलतः एक तुर्की दासी थी।
रूकनुद्दीन एवं उसकी माँ
शाहतुर्कान के अत्याचारों से चारों ओर विद्रोह फूट पड़ा।
इस विद्रोह को दबाने के लिए
जैसे ही रूकनुद्दीन राजधानी से बाहर गया, रज़िया
सुल्तान ने लाल वस्त्र धारण कर (लाल वस्त्र पहन कर ही
न्याय की माँग की जाती थी) जनता के सामने उपस्थित होकर शाहतुर्कान के विरुद्ध
सहायता मांगी।
जनता ने उत्साह के साथ
रज़िया सुल्तान को रुकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह के दिल्ली में घुसने के पूर्व ही दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया।
बाद में रुकुनुद्दीन
फ़ीरोज़शाह को क़ैद कर लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई।
रज़िया
सुल्तान (1236
से 1240 ई.) रज़िया को उत्तराधिकार
अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। इल्तुतमिश के
सबसे बड़े पुत्र नसीरूद्दीन महमूद की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, 1229 ई. को अप्रैल में मृत्यु हो गई। सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन कार्य के
किसी भी प्रकार से योग्य नहीं थे। अत: इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु शैय्या पर से अपनी
पुत्री रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उसने अपने सरदारों और उल्माओं
को इस बात के लिए राज़ी किया। यद्यपि स्त्रियों ने प्राचीन मिस्र और ईरान में रानियों के रूप में शासन किया था और इसके अलावा शासक राजकुमारों के
छोटे होने के कारण राज्य का कारोबार सम्भाला था, तथापि इस
प्रकार पुत्रों के होते हुए सिंहासन के लिए स्त्री को चुनना एक नया क़दम था।
सरदारों
की मनमानी
इल्तुतमिश के इस फ़ैसले से उसके दरबार के सरदार अप्रसन्न थे। वे एक स्त्री के समक्ष नतमस्तक होना
अपने अंहकार के विरुद्ध समझते थे। उन लोगों ने मृतक सुल्तान की इच्छाओं का उल्लघंन
करके उसके सबसे बड़े पुत्र रुकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह को, जो अपने पिता के जीवन काल में बदायूँ तथा कुछ वर्ष बाद लाहौर का शासक रह चुका था, सिंहासन पर बैठा दिया। यह चुनाव दुर्भाग्यपूर्ण था। रुकुनुद्दीन शासन के
बिल्कुल अयोग्य था। वह नीच रुचि का था। वह राजकार्य की उपेक्षा करता था तथा राज्य
के धन का अपव्यय करता था। उसकी माँ शाह तुर्ख़ान के, जो एक
निम्न उदभव की महत्त्वाकांक्षापूर्ण महिला थी, कार्यों से बातें बिगड़ती ही जा रही थीं। उसने सारी शक्ति को अपने अधिकार
में कर लिया, जबकि उसका पुत्र रुकनुद्दीन भोग-विलास में ही
डूबा रहता था। सारे राज्य में गड़बड़ी फैल गई। बदायूँ, मुल्तान,
हाँसी, लाहौर, अवध एवं बंगाल में केन्द्रीय सरकार के अधिकार का तिरस्कार होने लगा। दिल्ली के सरदारों ने, जो
राजमाता के अनावश्यक प्रभाव के कारण असन्तोष से उबल रहे थे, उसे
बन्दी बना लिया तथा रज़िया को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया। रुकनुद्दीन फ़िरोज़
को, जिसने लोखरी में शरण ली थी, क़ारावास
में डाल दिया गया। जहाँ 1266 ई. में 9 नवम्बर
को उसके जीवन का अन्त हो गया।
अमीरों
से संघर्ष
अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए
रज़िया को न केवल अपने सगे भाइयों, बल्कि शक्तिशाली तुर्की
सरदारों का भी मुक़ाबला करना पड़ा और वह केवल तीन वर्षों तक ही शासन कर सकी।
यद्यपि उसके शासन की अवधि बहुत कम थी, तथापि उसके कई
महत्त्वपूर्ण पहलू थे। रज़िया के शासन के साथ ही सम्राट और तुर्की सरदारों,
जिन्हें चहलग़ानी (चालीस) कहा जाता है, के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया।
रज़िया
की चतुराई व कूटनीति
युवती बेगम के समक्ष कोई कार्य सुगम
नहीं था।
राज्य के वज़ीर मुहम्मद जुनैदी तथा कुछ अन्य सरदार एक स्त्री के शासन को सह न सके
और उन्होंने उसके विरुद्ध विरोधियों को जमा किया। परन्तु रज़िया में शासन के लिए
महत्त्वपूर्ण सभी गुणों का अभाव नहीं था। उसने चतुराई एवं उच्चतर कूटनीति से शीघ्र
ही अपने शत्रुओं को परास्त कर दिया। हिन्दुस्तान (उत्तरी भारत) एवं पंजाब पर उसका अधिकार स्थापित हो गया तथा बंगाल एवं सिन्ध के
सुदूरवर्ती प्रान्तों के शासकों ने भी उसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया। इस प्रकार
जैसा कि मिनहाजस्सिराज ने लिखा है, लखनौती से लेकर देवल तथा
दमरीला तक सभी मलिकों एवं अमीरों ने उसकी आज्ञाकारिता को स्वीकार किया। रज़िया के
राज्यकाल के आरम्भ में नरुद्दीन नामक एक तुर्क के नेतृत्व में किरामित और अहमदिया
नामक सम्प्रदायों के कतिपय पाखण्डियों द्वारा उपद्रव कराने का संगठित प्रयास किया
गया। उनके एक हज़ार व्यक्ति तलवारों और ढालों के साथ पहुँचे और बड़ी मस्जिद में एक
निश्चित दिन को प्रवेश किया; परन्तु वे राजकीय सेना द्वारा
तितर-बितर कर दिये गये तथा विद्रोह एक भद्दी असफलता बनकर रह गया।
तुर्कों
का संगठन
फिर भी बेगम के भाग्य में
शान्तिपूर्ण शासन नहीं था। वह अबीसीनिया के एक दास
जलालुद्दीन याक़ूत के प्रति अनुचित कृपा दिखलाने लगी तथा उसने उसे अश्वशालाध्यक्ष
का ऊँचा पद दे दिया। इससे क्रुद्ध होकर तुर्की सरदार एक छोटे संघ में संघठित हुए।
दार्शनिकों
के विचार
इब्न बतूता का यह कहना ग़लत है कि अबीसीनियन के प्रति उसका चाव (लगाव) अपराधात्मक था।
समकालीन मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज़ ने इस तरह का कोई आरोप नहीं लगाया है। वह केवल
इतना ही लिखता है कि अबीसीनियन ने सुल्ताना की सेवा कर (उसकी) कृपा प्राप्त कर ली।
फ़रिश्ता का उसके ख़िलाफ़ एकमात्र
आरोप यह है कि,
अबीसीनियन और बेगम के बीच अत्यधिक परिचय देखा गया, यहाँ तक की जब वह घोड़े पर सवार रहती थी, तब वह
बाहों से उसे (रानी को) उठाकर बराबर घोड़े पर बिठा लेता था।
जैसा की मेजर रैवर्टी ने बतलाया है, टॉमस ने उचित कारण न रहने पर भी इस बेगम के चरित्र पर इन शब्दों में
आक्षेप किया है, यह बात नहीं थी कि एक अविवाहिता बेगम को
प्यार करने की मनाही थी-वह किसी भी जी-हुज़ूर वाले शाहज़ादे से शादी कर उसके साथ
प्रेम के ग़ोते लगा सकती थी, अथवा राजमहल के हरम
(ज़नानख़ाने) के अन्धेरे कोने में क़रीब-क़रीब बिना रोकथाम के आमोद-प्रमोद कर सकती
थी; लेकिन राह चलते प्रेम दिखलाना एक ग़लत दिशा की ओर संकेत
कर रहा था और इस कारण उसने (बेगम ने) एक ऐसे आदमी को पसन्द किया, जो कि उसके दरबार में नौकरी कर रहा था तथा वह एक अबीसीनियन भी था। जिसके
प्रति दिखलाई गई कृपाओं का तुर्की सरदारों ने एक स्वर से विरोध किया।
अल्तूनिया
से विवाह
सबसे पहले सरहिन्द के शासक इख़्तियारुद्दीन अल्तूनिया ने खुले तौर पर
विद्रोह किया, जिसे दरबार के कुछ सरदार गुप्त रूप से उभाड़
रहे थे। बेगम एक बड़ी सेना लेकर विद्रोह का दमन करने के लिए चली। किन्तु इस युद्ध
में विद्रोही सरदारों ने याक़ूत को मार डाला तथा बेगम को क़ैद कर लिया। वह
इख़्तियारुद्दीन अल्तूनिया के संरक्षण में रख दी गई। रज़िया ने अल्तूनिया से विवाह
करके इस परिस्थिति से छुटकारा पाने का प्रयत्न किया, परन्तु
यह व्यर्थ ही सिद्ध हुआ। वह अपने पति के साथ दिल्ली की ओर बढ़ी। लेकिन कैथल के निकट पहुँचकर अल्तूनिया के समर्थकों ने उसका
साथ छोड़ दिया तथा 13 अक्टूबर, 1240 ई.
को मुइज़ुद्दीन बहराम ने उसे पराजित कर दिया। दूसरे दिन रज़िया की उसके पति के साथ
हत्या कर दी गई। इस तरह तीन वर्ष तथा कुछ महीनों के राज्यकाल के बाद कष्टपूर्वक
रज़िया बेगम के जीवन का अन्त हो गया।
रज़िया
के गुण
रज़िया में अदभुत गुण थे।
फ़रिश्ता लिखता है कि,
"वह शुद्ध उच्चारण करके क़ुरान का पाठ करती थी तथा अपने पिता
के जीवन काल में शासन कार्य किया करती थी।" बेगम की हैसियत से उसने अपने गुणों
को अत्यधिक विशिष्टता से प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया। समकालीन मुस्लिम
इतिहासकार मिनहाजुस्सिराज ने लिखा है कि, "वह महती
सम्राज्ञी चतुर, न्यायी, दानशील,
विद्वानों की आश्रयदायी, न्याय वितरण करने
वाली, अपनी प्रजा से स्नेह रखनेवाली, युद्ध
कला में प्रवीण तथा राजाओं के सभी आवश्यक प्रशंसनीय विशेषणों एवं गुणों से सम्पन्न
थी।" वह स्वयं सेना लेकर शत्रुओं के सम्मुख जाती थी। स्त्रियों के वस्त्र को
छोड़ तथा बुर्के का परित्याग कर वह झिल्ली पहनती थी तथा पुरुष का शिरोवस्त्र धारण
करती थी। वह खुले दरबार में अत्यन्त योग्यता के साथ शासन-कार्य का सम्पादन करती
थी। इस प्रकार हर सम्भव तरीक़े से वह राजा का अभिनय करने का प्रयत्न करती थी।
किन्तु अहंकारी तुर्की सरदार एक महिला के शासन को नहीं सह सके। उन्होंने घृणित
रीति से उसका अन्त कर दिया। रज़िया के दु:खद अन्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि
अंधविश्वासों पर विजय प्राप्त करना सदैव ज़्यादा आसान नहीं होता।
रज़िया
के पश्चात
रज़िया की मृत्यु के पश्चात् कुछ
काल तक अव्यवस्था एवं गड़बड़ी फैली रही। दिल्ली की गद्दी पर उसके उत्तराधिकारी मुइज़ुद्दीन बहराम तथा अलाउद्दीन मसूद गुणहीन एवं अयोग्य थे तथा उनके
छ: वर्षों के शासनकाल में देश में शान्ति एवं स्थिरता का नाम भी न रहा। बाहरी
आक्रमणों से हिन्दुस्तान (उत्तरी भारत) का दु:ख और भी बढ़ गया। 1241 ई. में मंगोल पंजाब के मध्य
में पहुँच गए तथा लाहौर का
सुन्दर नगर उनके निर्मम पंजे में पड़ गया। 1245 ई. में वे
उच्च तक बढ़ आये। लेकिन उनकी बड़ी क्षति हुई और उन्हें पीछे हटना पड़ा। मसूद शाह
के शासनकाल के अन्तिम वर्षों में असन्तोष अधिक प्रचण्ड एवं विस्तृत हो गया। अमीरों
तथा मलिकों ने 10 जून, 1246 ई. को इल्तुतमिश के एक कनिष्ठ पुत्र नसीरूद्दीन महमूद को सिंहासन पर बैठा दिया।
मुईजुद्दीन बहरामशाह (1240
से 1242 ई.)
·
रज़िया सुल्तान को अपदस्थ करके तुर्की सरदारों ने मुइज़ुद्दीन
बहरामशाह (1240-1242 ई.) को दिल्ली के तख्त पर बैठाया।
·
सुल्तान के अधिकार को कम करने के
लिए तुर्क सरदारों ने एक नये पद ‘नाइब’ अर्थात
'नाइब-ए-मुमलिकात' का सृजन किया।
·
इस पद पर नियुक्त व्यक्ति संपूर्ण
अधिकारों का स्वामी होता था।
·
मुइज़ुद्दीन बहरामशाह के समय में इस
पद पर सर्वप्रथम मलिक इख्तियारुद्दीन एतगीन को नियुक्त किया गया।
·
अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए
एतगीन ने बहरामशाह की तलाक़शुदा बहन से विवाह कर लिया।
·
कालान्तर में इख्तियारुद्दीन एतगीन की शक्ति इतनी बढ़ गई कि, उसने
अपने महल के सामने सुल्तान की तरह नौबत एवं हाथी रखना आरम्भ कर दिया था।
·
सुल्तान ने इसे अपने अधिकारों में
हस्तक्षेप समझ कर उसकी हत्या करवा दी।
·
एतगीन की मृत्यु के बाद नाइब के
सारे अधिकार ‘अमीर-ए-हाजिब’ बदरुद्दीन संकर रूमी ख़ाँ के हाथों
में आ गए।
·
रूमी ख़ाँ द्वारा सुल्तान की हत्या
हेतु षडयंत्र रचने के कारण उसकी एवं सरदार सैयद ताजुद्दीन की हत्या कर दी गई।
·
इन हत्याओं के कारण सुल्तान के
विरुद्ध अमीरों और तुर्की सरदारों में भयानक असन्तोष व्याप्त हो गया।
·
1241
ई. में मंगोल आक्रमणकारियों
द्वारा पंजाब पर आक्रमण के
समय रक्षा के लिए भेजी गयी सेना को बहरामशाह के विरुद्ध भड़का दिया गया।
·
सेना वापस दिल्ली की ओर मुड़ गई और मई, 1241 ई. में तुर्क सरदारों ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर बहरामशाह का वध कर दिया।
·
तुर्क सरदारों ने बहरामशाह के पौत्र अलाउद्दीन मसूद को अगला सुल्तान बनाया।
अलाउद्दीन मसूदशाह (1242
से 1246 ई.)
·
अलाउद्दीन मसूद (1242
- 1246 ई.), रुकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह का पौत्र तथा मुइज़ुद्दीन बहरामशाह का पुत्र था।
·
उसके समय में नाइब का पद ग़ैर
तुर्की सरदारों के दल के नेता मलिक कुतुबुद्दीन हसन को मिला।
·
क्योंकि अन्य पदों पर तुर्की
सरदारों के गुट के लोगों का प्रभुत्व था, इसलिए नाइब के पद
का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह गया था।
·
शासन का वास्तविक अधिकार वज़ीर
मुहाजबुद्दीन के पास था,
जो जाति से ताजिक (ग़ैर तुर्क) था।
·
तुर्की सरदारों के विरोध के
परिणामस्वरूप यह पद नजुमुद्दीन अबू बक्र को प्राप्त हुआ।
·
इसी के समय में बलबन को हाँसी का
अक्ता प्राप्त हुआ।
·
‘अमीरे हाजिब’ का पद इल्तुतमिश के ‘चालीस तुर्कों के दल’ के
सदस्य ग़यासुद्दीन बलबन को
प्राप्त हुआ।
·
1245
में मंगोलों ने
उच्छ पर अधिकार कर लिया, परन्तु बलबन ने मंगोलों को उच्छ से
खदेड़ दिया, इससे बलबन की प्रतिष्ठा बढ़ गयी।
·
अमीरे हाजिब के पद पर बने रह कर
बलबन ने शासन का वास्तविक अधिकार अपने हाथ में ले लिया।
·
अन्ततः बलबन ने नसीरूद्दीन महमूद एवं उसकी माँ से मिलकर
अलाउद्दीन मसूद को सिंहासन से हटाने का षडयंत्र रचा।
·
जून, 1246 में
उसे इसमें सफलता मिली। बलबन ने अलाउद्दीन मसूद के स्थान पर इल्तुतमिश के प्रपौत्र नसीरूद्दीन महमूद को
सुल्तान बनाया।
·
मसूद का शासन तुलनात्मक दृष्टि से
शांतिपूर्ण रहा। इस समय सुल्तान तथा सरदारों के मध्य संघर्ष नहीं हुए।
·
वास्तव में यह काल बलबन की 'शांति निर्माण' का काल था।
नासिरुद्दीन महमूद (1246
से 1266 ई.)
नसिरुद्दीन महमूद (1246-1266
ई.) इल्तुतमिश का कनिष्ठ पुत्र तथा ग़ुलाम वंश सुल्तान था। यह 10 जून 1246 ई. को सिंहासन पर बैठा। उसके सिंहासन पर बैठने के बाद अमीर सरदारों एवं
सुल्तान के बीच शक्ति के लिए चल रहा संघर्ष पूर्णत: समाप्त हो गया। नसिरुद्दीन
विद्या प्रेमी और बहुत ही शांत स्वभाव का व्यक्ति था। शासन का सम्पूर्ण भार 'उलूग ख़ाँ' अथवा ग़यासुद्दीन
बलबन पर छोड़कर वह सादा जीवन व्यतीत करता था। बलबन की
पुत्री का विवाह नसिरुद्दीन
के साथ हुआ था।
धर्मपरायण
व्यक्ति
नसिरुद्दीन महमूद की स्थिति का
वर्णन करते हुए इतिहासकार इसामी लिखते हैं कि "वह तुर्की अधिकारियों की पूर्व
आज्ञा के बिना अपनी कोई भी राय व्यक्त नहीं कर सकता था। वह बिना तुर्की अधिकारियों
की आज्ञा के हाथ पैर तक नहीं हिलाता था। कहा गया है कि सुल्तान नसिरुद्दीन महमूद
महात्वाकांक्षाओं से रहित एक धर्मपरायण व्यक्ति था। वह क़ुरान की नकल करता था तथा
उसको बेचकर जीविका चलाता था।
तुर्क
सरदारों की साजिश
नसिरुद्दीन महमूद ने 7 अक्टूबर, 1246 ई. में बलबन को 'उलूग ख़ाँ' की उपाधि प्रदान की और इसके तदुपरान्त
उसे 'अमीर-हाजिब' बनाया गया। अगस्त, 1249 ई. में नसिरुद्दीन महमूद के साथ बलबन ने
अपनी लड़की का विवाह कर दिया। बलबन की सुल्तान से निकटता एवं उसके बढ़ते हुए प्रभाव से अन्य तुर्की सरदारों
ने नसिरुद्दीन महमूद की माँ एवं कुछ भारतीय मुसलमानों के साथ एक दल बनाया, जिसका नेता रायहान को बनाया गया
था। उसे 'वकीलदर' के पद पर नियुक्त
किया गया, परन्तु यह परिवर्तन बहुत दिन तक नहीं चल सका।
भारतीय मुसलमान रायहान को अधिक दिन तक तुर्क सरदार नहीं सह सके। वे पुनः बलबन से
जा मिले। इस तरह दोनों विरोधी सेनाओं के बीच आमना-सामना हुआ, परन्तु अन्ततः एक समझौते के तहत नसिरुद्दीन महमूद ने रायहान को 'नाइब' के पद से मुक्त कर पुनः बलबन को यह पद दे
दिया। रायहान को एक धर्मच्युत शक्ति का अपहरणकर्ता,
षड़यंत्रकारी आदि कहा गया है। कुछ समय पश्चात् रायहान की हत्या कर
दी गयी।
बलबन
द्वारा शांति स्थापना
नसिरुद्दीन महमूद के राज्य काल में
बलबन ने शासन प्रबन्ध में विशेष क्षमता दिखाई। बलबन ने पंजाब तथा दोआब के हिन्दुओं के
विद्रोह का दृढ़ता से दमन किया। साथ ही उसने मुग़लों (मंगोलों) के आक्रमणों को भी रोका। सम्भवतः इसी समय
बलबन ने सुल्तान नसिरुद्दीन महमूद से 'छत्र' प्रयोग करने की अनुमति माँगी। सुल्तान ने अपना छत्र प्रयोग करने के लिए
आज्ञा दे दी। 1245 ई. से सुल्तान बनने तक बलबन का अधिकांश
समय विद्रोहों को दबानें में बीता। उसने 1259 ई. में मंगोल नेता हलाकू के साथ समझौता कर पंजाब में शांति स्थापित की।
मृत्यु
मिनहाजुद्दीन सिराज ने, जो सुल्तान नसिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में
मुख्य क़ाज़ी के पद पर था, अपना ग्रन्थ 'ताबकात-ए-नासिरी' उसे समर्पित किया। 1266 ई. में नसिरुद्दीन महमूद की अकस्मात् मृत्यु के बाद बलबनउसका उत्तराधिकारी बना, क्योंकि महमूद के कोई भी
पुत्र नहीं था।
बलबनी
राजवंश
ग़यासुद्दीन बलबन (संस्थापक 1266 से 1286 ई.)
ग़यासुद्दीन बलबन (1266-1286
ई.) इल्बारि जाति का व्यक्ति था, जिसने एक नये
राजवंश ‘बलबनी वंश’ की स्थापना की थी। ग़यासुद्दीन
बलबन ग़ुलाम वंशका नवाँ सुल्तान था। बलबन मूलतः सुल्तान इल्तुतमिश का तुर्की ग़ुलाम था। बलबन को
ख़्वाजा 'जमालुद्दीन बसरी' नाम का एक
व्यक्ति ख़रीद कर 1232-33 ई. में दिल्ली लाया था। इल्तुतमिश ने ग्वालियर को जीतने के उपरान्त बलबन को ख़रीद
लिया। अपनी योग्यता के कारण ही बलबन इल्तुतमिश के समय में, विशेषकर रज़िया सुल्तान के समय में 'अमीर-ए-शिकार', मुइज़ुद्दीन बहरामशाह के समय में 'अमीर-ए-आखूर', अलाउद्दीन मसूद के समय में 'अमीर-ए-हाजिब' एवं सुल्तान नसीरूद्दीन महमूद के समय में 'अमीर-ए-हाजिब' व नाइन के रूप में राज्य की सम्पूर्ण
शक्ति का केन्द्र बन गया। बलबन की पुत्री सुल्तान मुईजुद्दीन बहरामशाह (1246-66
ई.) को ब्याही थी। जिसने उसे अपना मंत्री तथा सहायक नियुक्त किया
था। नसिरुद्दीन की मृत्यु के उपरान्त 1266 ई. में अमीर
सरदारों के सहयोग से वह 'ग़यासुद्दीन बलबन' के नाम से दिल्ली के राजसिंहासन पर बैठा। इस प्रकार वह इल्बारि जाति का
द्वितीय शासक बना। बलबन जातीय श्रेष्ठता में विश्वास रखता था। इसीलिए उसने अपना
संबंध फ़िरदौसी के 'शाहनामा' में उल्लिखित तुरानी शासक के वंश 'अफ़रासियाब' से जोड़ा। अपने पौत्रों का नामकरण मध्य एशिया के ख्याति प्राप्त शासक 'कैखुसरो', कैकुबाद इत्यादि
के नाम पर किया। उसने प्रशासन में सिर्फ़ कुलीन व्यक्तियों को नियुक्त किया। उसका कहना था कि “जब मै
किसी तुच्छ परिवार के व्यक्ति को देखता हूँ तो, मेरे शरीर की
प्रत्येक नाड़ी उत्तेजित हो जाती है।”
विद्रोह
का दमन
बलबन ने इल्तुतमिश द्वारा स्थापित 40 तुर्की सरदारों के दल को समाप्त कर दिया, तुर्क
अमीरों को शक्तिशाली होने से रोका, अपने शासन काल में हुए एक
मात्र बंगाल का तुर्क
विद्रोह, जहाँ के शासक तुगरिल
ख़ाँ वेग ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था,
की सूचना पाकर बलबन ने अवध के सूबेदार अमीन ख़ाँ को भेजा, परन्तु वह असफल होकर
लौटा। अतः क्रोधित होकर बलबन ने उसकी हत्या करवा दी और उसका सिर अयोध्या के फाटक पर लटका दिया और स्वंय इस
विद्रोह का वखूबी दमन किया। बंगाल की तत्कालीन राजधनी लखनौती को उस समय ‘विद्रोह का नगर’ कहा जाता था। तुगरिल वेग को पकड़ने
एवं उसकी हत्या करने का श्रेय मलिक मुकद्दीर को मिला, चूंकि
इसके पहले तुगरिल को पकड़ने में काफ़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा था, इसलिए मुकद्दीर की सफलता से प्रसन्न होकर बलबन ने उसे ‘तुगरिलकुश’ (तुगरिल की हत्या करने वाला) की उपाधि
प्रदान की। अपने पुत्र बुखरा ख़ाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। इसके
अतिरिक्त बलबन ने मेवातियों एवं कटेहर में हुए विद्रोह का भी दमन किया तथा दोआब एवं पंजाब क्षेत्र
में शान्ति स्थापित की। इस प्रकार अपनी शक्ति को समेकित करने के बाद बलबन ने भव्य
उपाधि 'जिल्ले-इलाही' धारण को किया।
तुगरिल ख़ाँ एक
तुर्की अमीर था, जिसे सुल्तान ग़यासुद्दीन
बलबन नें बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था। लेकिन तुगरिल ख़ाँ ने कुछ समय बाद ही 1278
ई. में सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और स्वतंत्र हो गया।
·
बलबन ने इल्तुतमिश द्वारा राज्य में स्थापित 40 तुर्की सरदारों के दल को समाप्त कर दिया और तुर्क अमीरों को शक्तिशाली
होने से रोका।
·
इसी समय तुगरिल ख़ाँ ने अपने को
बलबन के नियंत्रण से स्वतन्त्र घोषित कर दिया।
·
इसकी सूचना पाकर ग़यासुद्दीन बलबन
ने अवध के सूबेदार अमीन ख़ाँ को विद्रोह को दबाने
के लिए भेजा, परन्तु वह असफल होकर लौटा।
·
क्रोधित होकर बलबन ने अमीन ख़ाँ की
हत्या करवा दी और उसका सिर अयोध्या के फाटक पर लटका दिया और स्वंय इस
विद्रोह का वखूबी दमन किया।
·
तुगरिल ख़ाँ को पकड़ने एवं उसकी
हत्या करने का श्रेय सरदार मलिक मुकद्दीर को मिला। चूंकि इसके पहले तुगरिल ख़ाँ को
पकड़ने में काफ़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा था, इसलिए मलिक
मुकद्दीर की सफलता से प्रसन्न होकर ग़यासुद्दीन बलबन ने उसे "तुगरिलकुश" (तुगरिल की हत्या करने वाला) की उपाधि
प्रदान की थी।
बलबन
की नीति व सिद्धांत
पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त पर मंगोल आक्रमण के भय को समाप्त करने के लिए बलबन
ने एक सुनिश्चत योजना का क्रियान्वयन किया। उसने सीमा पर कीलों की एकतार बनवायी और
प्रत्येक क़िले में एक बड़ी संख्या में सेना रखी। कुछ वर्षो के पश्चात्
उत्तर-पश्चिमी सीमा को दो भागों में बांट दिया गया। लाहौर,
मुल्तान और दिपालपुर का क्षेत्र शाहज़ादा मुहम्मद को और सुमन,
समाना तथा कच्छ का क्षेत्र बुगरा ख़ाँ को दिया गया। प्रत्येक शाहज़ादे के लिए प्रायः 18 हज़ार
घुड़सवारों की एक शक्तिशाली सेना रखी गयी। उसने सैन्य विभाग ‘दीवान-ए-अर्ज’ को पुनर्गठित करवाया, इमादुलमुल्क को दीवान-ए-अर्ज के पद पर प्रतिष्ठित किया तथा सीमान्त
क्षेत्र में स्थित क़िलों का पुननिर्माण करवाया। बलबन के सिद्धांत व उसकी नीति सल्तनतकालीन राजत्व सिद्धांत का प्रमुख बिन्दू
है। उसने दीवान-ए-अर्ज को वज़ीर के नियंत्रण से मुक्त कर दिया, जिससे उसे धन की कमी न हो। बलबन की अच्छी सेना व्यवस्था का श्रेय
इमादुलमुल्क को ही था। साथ ही उसने अयोग्य एवं वृद्ध सैनिकों को वेतन का भुगतान
नकद वेतन में किया। उसने तुर्क प्रभाव को कम करने के लिए फ़ारसी परम्परा पर आधारित ‘सिजदा’ (घुटने पर बैठकर सम्राट के सामने सिर झुकाना)
एवं ‘पाबोस’ (पांव को चूमना) के प्रचलन
को अनिवार्य कर दिया। बलबन ने गुप्तचर विभाग की स्थापना राज्य के अन्तर्गत होने
वाले षड़यन्त्रों एवं विद्रोह के विषय में पूर्व जानकारी के लिए किया। गुप्तचरों
की नियुक्त बलबन स्वयं करता था और उन्हें पर्याप्त धन उपलब्ध कराता था। कोई भी
गुप्तचर खुले दरबार में उससे नहीं मिलता था। यदि कोई गुप्तचर अपने कर्तव्य की
पूर्ति नहीं करता था, तो उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। उसने
फ़ारसी रीति-रिवाज पर आधारित नवरोज उत्सव को प्रारम्भ करवाया। अपने विरोधियों के
प्रति बलबन ने कठोर ‘लौह एवं रक्त’ नीति
का पालन किया। इस नीति के अन्तर्गत विद्रोही व्यक्ति की हत्या कर उसकी स्त्री एवं
बच्चों को दास बना लिया जाता था।
बलबन
के विरुद्ध षड़यंत्र
बलबन को प्राप्त होने वाली सफलताओं
से तुर्क सरदारों का एक बड़ा दल उससे ईर्ष्या करने लगा था तथा वे उसे पद से हटाने
का उपाय सोचने लगे। उन्होंने मिल कर 1250 ई. में बलबन के
विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा और बलबन को पदच्युत करवा दिया। बलबन के स्थान पर एक
भारतीय मुसलमान 'इमादुद्दीन रिहान' की
नियुक्ति हुई। यद्यपि तुर्क सरदार सारे अधिकारों और सारी शक्ति को अपने ही हाथों
में रखना चाहते थे तथापि वे रिहान की नियुक्ति के लिए इसलिए राज़ी हो गए क्योंकि
वे इस बात पर एकमत नहीं हो सके कि उनमें से बलबन के स्थान पर किसकी नियुक्ति हो।
बलबन ने अपना पद छोड़ना स्वीकार तो कर लिया, पर वह
चुपके-चुपके अपने समर्थकों को इकट्ठा भी करता रहा।
शक्ति
परीक्षा
पदच्युत होने के दो वर्षों के अन्दर
ही बलबन अपने कुछ विरोधियों को जीतने में सफल हो गया। अब वह शक्ति परीक्षा के
लिए तैयार था। ऐसा लगता है कि बलबन ने पंजाब के एक बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने वाले मंगोललोगों
से भी सम्पर्क स्थापित किया। सुल्तान महमूद को बलबन की शक्ति के आगे घुटने टेकने
पड़े और उसने रिहान को बर्ख़ास्त कर दिया। कुछ समय बाद रिहान पराजित हुआ और उसे
मार दिया गया। बलबन ने उचित-अनुचित तरीक़ों से अपने अन्य विरोधियों को भी समाप्त
कर दिया। अब उसने राजसी प्रतीक 'छत्र' को
भी ग्रहण कर लिया, पर इतना होने पर भी सम्भवतः तुर्क सरदारों
की भावनाओं को ध्यान में रख वह सिंहासन पर नहीं बैठा। सुल्तान महमूद की 1265
ई. में मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि बलबन ने सुल्तान
को ज़हर देकर मार दिया और सिंहासन के अपने रास्ते को साफ़ करने के लिए उसके
पुत्रों की भी हत्या कर दी। बलबन द्वारा अपनाए गए उपाय बहुत बार अनुचित और
अवांछनीय होते थे, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके सिंहासन
पर बैठने के साथ ही एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के युग का आरम्भ हुआ।
अफ़रासियान
का वंशज
बलबन का विश्वास था कि आंतरिक और बाहरी ख़तरों का सामना करने का एकमात्र उपाय सम्राट के सम्मान
और उसकी शक्ति को बढ़ाना है और इस कारण वह बराबर इस बात का प्रयत्न करता रहा। उस
काल में मान्यता थी कि, अधिकार और शक्ति केवल राजसी और
प्राचीन वंशों का विशेषाधिकार है। उसी के अनुरूप बलबन ने भी सिंहासन के अपने दावे
को मज़बूत करने के लिए घोषणा की, कि वह कहानियों में
प्रसिद्ध तुर्क योद्धा 'अफ़रासियान' का
वंशज है। राजसी वंशज से अपने सम्बन्धों के दावों को मज़बूत करने के लिए बलबन ने
स्वयं को तुर्क सरदारों के अग्रणी के रूप में प्रदर्शित किया। उसने शासन के उच्च
पदों के लिए केवल उच्च वंश के सदस्यों को स्वीकार करना आरम्भ किया। इसका अर्थ यह
था कि, भारतीय मुसलमान इन पदों से वंचित रह जाते थे। बलबन कभी-कभी तो इस बात की हद कर देता था।
उदाहरणार्थ उसने एक ऐसे बड़े व्यापारी से मिलना अस्वीकार कर दिया, जो ऊँचे ख़ानदान का नहीं था। इतिहासकार 'ईरानी'
ने, जो स्वयं ख़ानदानी तुर्कों का समर्थक था,
अपनी रचना में बलबन से यह कहलवाया है-"'जब
भी मैं किसी नीच वंश के आदमी को देखता हूँ, तो क्रोध से मेरी
आँखें जलने लगती हैं और मेरे हाथ मेरी तलवार तक (उसे मारने के लिए) पहुँच जाते
हैं।" बलबन ने वास्तव में ऐसे शब्द कहे थे या नहीं, लेकिन
इनसे सम्भवतः ग़ैर-तुर्कों के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में पता चलता है।
शक्तिशाली
केन्द्रीय सेना का संगठन
ख़ानदानी तुर्क सरदारों का स्वयं को अग्रणी
बताते हुए भी बलबन अपनी शक्ति में किसी को, यहाँ तक की अपने
परिवार के सदस्यों को भी, हिस्सेदार बनाने के लिए तैयार नहीं
था। उसकी तानाशाही इस हद तक थी कि और तो और वह अपने किसी समर्थ की भी आलोचना सहन
नहीं कर सकता था। उसका एक प्रधान कार्य 'चहलगानी' की शक्ति को समाप्त कर सम्राट की शक्ति को मज़बूत करना था। इस लक्ष्य को
प्राप्त करने के लिए वह अपने सम्बन्धी 'शेर ख़ाँ' को ज़हर देकर मारने में भी नहीं हिचका। लेकिन साथ-साथ जनता के समर्थन और
विश्वास को प्राप्त करने के लिए वह न्याय के मामले में थोड़ा भी पक्षपात नहीं करता
था। अपने अधिकार की अवहेलना करने पर वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी नहीं छोड़ता था।
इस प्रकार ग़ुलामों के प्रति दुर्व्यवहार करने पर बदायूँ तथा अवध के शासकों
के पिताओं को कड़ी सज़ा दी गई। राज्य की सभी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए
बलबन ने हर विभाग में अपने जासूस तैनात कर दिए। आंतरिक विद्रोहों तथा पंजाब में जमे हुए मंगोलों से मुक़ाबला करने के
लिए एक शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन किया। इन मंगोलों से दिल्ली सल्तनत को गम्भीर ख़तरा बना हुआ था।
इसके लिए उसने सैनिक विभाग 'दीवान-ई-अर्ज़' को पुनर्गठित किया और ऐसे सैनिकों को पेंशन देकर सेवा मुक्त किया, जो अब सेवा के लायक़ नहीं रह गए थे, क्योंकि इनमें
से अधिकतर सैनिक तुर्क थे और इल्तुतमिश के हिन्दुस्तान आए थे। उन्होंने बलबन के इस क़दम के विरोध में अपनी आवाज़
उठाई, पर बलबन ने उनकी एक न सुनी।
राजपूतों
की स्वतंत्रता
दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों तथा दोआब में अल्तमश की मृत्यु के बाद क़ानून और व्यवस्था की हालत बिगड़ गयी थी। गंगा-यमुना दोआब तथा अवध में सड़कों की स्थिति ख़राब थी और चारों ओर
डाकुओं के भय के कारण वे इतनी असुरक्षित थीं कि, पूर्वी
क्षेत्रों से सम्पर्क रखना कठिन हो गया। कुछ राजपूत ज़मीदारों ने इस क्षेत्र में क़िले बना लिए थे और अपनी स्वतंत्रता घोषित
कर दी थी। मेवातियों में दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने का साहस आ गया था। बलबन ने इन
तत्वों का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया। डाकुओं का पीछा कर उन्हें बर्बरता से मौत
के घाट उतार दिया गया। बदायूँ के आसपास के क्षेत्रों में राजपूतों के क़िलों को तोड़ दिया गया तथा जंगलों को साफ़ कर वहाँ अफ़ग़ान सैनिकों की बस्तियाँ बना दी गईं,
ताकि वे सड़कों की सुरक्षा कर सकें और राजपूत ज़मीदारों के शासन के
विरुद्ध विद्रोहों को तुरन्त कुचल सकें।
इस्लाम
के नेता का रूप
इन कठोर तरीक़ों से बलबन ने स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। लोगों को अपनी शक्ति से प्रभावित करने के लिए
उसने अपने दरबार की शान-शौक़त को बढ़ाया। वह जब भी बाहर निकलता था, उसके चारों तरफ़ अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए चलते थे। उसने दरबार में
हँसी-मज़ाक समाप्त कर दिया और यह सिद्ध करने के लिए कि उसके सरदार उसकी बराबरी
नहीं कर सकते, उनके साथ शराब पीना बंद कर दिया। उसने 'सिज्दा' और 'पैबोस' (सम्राट के सामने झुक कर उसके पैरों को चूमना) के रिवाजों को आवश्यक बना
दिया। ये और उसके द्वारा अपनाए गए कई अन्य रिवाज मूलतः ईरानी थे और उन्हें
ग़ैर-इस्लामी समझा जाता था। लेकिन इसके बावजूद उनका विरोध करने की किसी में भी
हिम्मत नहीं थी। क्योंकि ऐसे समय में जब मध्य और पश्चिम एशिया में मंगोलों के आक्रमण से अधिकतर इस्लामी साम्राज्य ख़त्म हो चुके थे, बलबन और दिल्ली सल्तनत को ही इस्लाम के नेता के रूप में देखा जाने लगा था।
मृत्यु
1286
ई. में बलबन का बड़ा पुत्र मुहम्मद अचानक एक बड़ी मंगोल सेना से घिर जाने के कारण युद्ध करते हुए मारा गया।
विख्यात कवि अमीर खुसरा, जिसका नाम तूतिए-हिन्द (भारत का तोता) था तथा अमीर हसन देहलवी ने अपना साहित्यिक जीवन शाहजादा मुहम्मद
के समय में शुरू किया था। अपने प्रिय पुत्र मुहम्मद की मृत्यु के सदमे को न
बर्दाश्त कर पाने के कारण 80 वर्ष की अवस्था में 1286
ई. में बलबन की मृत्यु हो गई। मुत्यु पूर्व बलबन ने अपने दूसरे
पुत्र बुगरा ख़ाँ को अपना
उत्तराधिकारी नियुक्त करने के आशय से बंगाल से वापस बुलाया, किन्तु विलासी बुगरा ख़ाँ ने बंगाल
के आराम-पसन्द एवं स्वतन्त्र जीवन को अधिक पसन्द किया और चुपके से बंगाल वापस चला
गाय। तदुपरान्त बलबन ने अपने पौत्र (मुहम्मद के पुत्र) कैखुसरो को अपना
उत्तराधिकारी चुना।
बलबन
के कथन
1. “राजा का हृदय ईश्वर की कृपा का विशेष कोष है और समस्त मनुष्य जाति में
उसके समान कोई नहीं है।”
2. “एक अनुग्रही राजा सदा ईश्वर के संरक्षण के छत्र से रहित रहता है।”
3. “राजा को इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए कि, मुसलमान उसके प्रत्येक कार्य शब्द या क्रियाकलाप को मान्यता दे और प्रशंसा करे।”
4. “जब मै किसी तुच्छ परिवार के व्यक्ति को देखता हूँ तो, मेरे शरीर की प्रत्येक नाड़ी उत्तेजित हो जाती है।”
कैकुबाद
कैकुबाद अथवा 'कैकोबाद' (1287-1290 ई.) को 17-18 वर्ष की अवस्था में दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया था। वह सुल्तान बलबन का पोता और उसके सबसे पुत्र बुगरा ख़ाँ का लड़का था। कैकूबाद के पूर्व बलबन ने अपनी मृत्यु के पूर्व कैख़ुसरो को अपना
उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। लेकिन दिल्ली के कोतवाल फ़ख़रुद्दीन मुहम्मद ने बलबन की मृत्यु के बाद कूटनीति के
द्वारा कैख़ुसरो को मुल्तान की
सूबेदारी देकर कैकुबाद को दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा दिया।
·
फ़ख़रुद्दीन के दामाद निज़ामुद्दीन
ने अपने कुचक्र के द्वारा सुल्तान को भोग विलास में लिप्त कर स्वयं सुल्तान के
सम्पूर्ण अधिकारों को ‘नाइब’ बन कर प्राप्त कर लिया।
·
निज़ामुद्दीन के प्रभाव से मुक्त
होने के बाद कैकुबाद ने उसे ज़हर देकर मरवा दिया।
·
कैकुबाद ने ग़ैर तुर्क सरदार जलालुद्दीन ख़िलजी को अपना सेनापति बनाया,
जिसका तुर्क सरदारों पर बुरा प्रभाव पड़ा।
·
मंगोलों ने तामर ख़ाँ के नेतृत्व में समाना पर आक्रमण किया, हालाँकि
कैकुबाद की सेना द्वारा उन्हें वापस खदेड़ दिया गया।
·
अफ़्रीकी यात्री इब्नबतूता ने
कैकुबाद के समय में यात्रा की थी, उसने सुल्तान के शासन काल
को 'एक बड़ा समारोह' की संज्ञा दी।
·
तुर्क सरदार बदला लेने की बात को
सोच ही रहे थे कि,
कैकुबाद को लकवा मार गया।
·
लकवे का रोगी बन जाने के कारण
कैकुबाद प्रशासन के कार्यों में अक्षम हो गया।
शमसुद्दीन क्यूमर्स (1287
से 1290 ई.)
·
कैकुबाद को लकवा मार जाने के कारण वह प्रशासन के कार्यों में पूरी तरह से अक्षम हो
चुका था।
·
प्रशासन के कार्यों में उसे अक्षम
देखकर तुर्क सरदारों ने उसके तीन वर्षीय पुत्र शम्सुद्दीन
क्यूमर्स को सुल्तान घोषित कर दिया।
·
कालान्तर में जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने उचित अवसर देखकर
शम्सुद्दीन का वध कर दिया।
·
शम्सुद्दीन की हत्या के बाद
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने दिल्ली के तख्त पर स्वंय अधिकार कर लिया।
·
इस प्रकार से बाद में दिल्ली की
राजगद्दी पर ख़िलजी वंश की स्थापना हुई।
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