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शुक्रवार, 9 मार्च 2018

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मौर्य राजवंश (322-185 ईसा पूर्व)
326 ईसा पूर्व में सिकन्दर की सेनाएँ पंजाब के विभिन्न राज्यों में विध्वंसक युद्धों में व्यस्त थीं। मध्य प्रदेश और बिहार में नंद वंश का राजा धननंद शासन कर रहा था। सिकन्दर के आक्रमण से देश के लिए संकट पैदा हो गया था। धननंद का सौभाग्य था कि वह इस आक्रमण से बच गया। मगध के शासक के पास विशाल सेना अवश्य थी, किन्तु जनता का सहयोग उसे प्राप्त नहीं था। प्रजा उसके अत्याचारों से पीड़ित थी। असह्य कर-भार के कारण राज्य के लोग उससे असंतुष्ट थे। देश को इस समय एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो मगध साम्राज्य की रक्षा तथा वृद्धि कर सके। विदेशी आक्रमण से उत्पन्न संकट को दूर करे और देश के विभिन्न भागों को एक शासन-सूत्र में बाँधकर चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को चरितार्थ करे। शीघ्र ही राजनीतिक मंच पर एक ऐसा व्यक्ति प्रकट भी हुआ। इस व्यक्ति का नाम था- 'चंद्रगुप्त'। यूनानी विद्वानों ने इसे 'सेन्ड्रोकोट्टस' कहा है। विलियम जॉन्स पहले विद्वान् थे, जिन्होंने सेन्ड्रोकोट्टस' की पहचान भारतीय ग्रंथों के 'चंद्रगुप्त' से की है।


चंद्रगुप्त मौर्य (322-298  ईसा पूर्व)-
 परिचय-  इसके जन्म एवं जाति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। ब्राह्मण साहित्यमुद्राराक्षसविष्णुपुराण की मध्यकालीन टीका तथा 10वीं शताब्दी की धुण्डिराज द्वारा रचित 'मुद्राराक्षस' की टीका के आधार पर चंद्रगुप्त मौर्य को शूद्र जाति से उत्पन्न मानते हैं।  तथा उसके लिए वृषल शब्द का प्रयोग करते हैं।  जिसका शाब्दिक अर्थ है निम्न वर्ण से उत्पन्न।  जबकि जैन एवं बौद्ध साहित्य इसे क्षत्रिय वंश से उत्पन्न मानते हैं। इन के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म मोरा मयूरा नाम की स्त्री  से हुआ है। इसीलिए इसका वंश मौर्य वंश कहलाया है।

 चंद्रगुप्त मौर्य का राजकीय चिन्ह मोर था

 यूनानी लेखको ने चंद्रगुप्त मौर्य के लिए सैंड्रोकोट्स व अंड्रोकोट्स नामक शब्दों का प्रयोग किया।  जिसकी सर्वप्रथम पहचान विलियम जोंस ने चंद्रगुप्त से की।  रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख में  चंद्रगुप्त मौर्य का नाम चंद्रगुप्त मौर्य मिलता है।
 चंद्रगुप्त मौर्य का प्रिय खेल राजकिलम था।




सैनिक उपलब्धियां-

1-  उत्तर पश्चिम की विजय-  महाबोधि वंश परिशिष्ट पर्वम  के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने सर्वप्रथम उत्तर पश्चिम क्षेत्र की विजय की।  इस समय वहां का शासक फिलिप द्वितीय था। जिसको हराकर चंद्रगुप्त मौर्य ने पंजाब व सिंध को यूनानी शासन से मुक्त कराया।

2-  मगध की विजय-  चंद्रगुप्त मौर्य ने कोटिल्य की सहायता से मगध पर आक्रमण कर के नंद वंश के शासक धनानंद को हराकर के मगध में मौर्य वंश की स्थापना की। 
विशाखदत्त मुद्राराक्षस में यह घटना मिलती है यह गुप्त कालीन नाटक है।

3-  सेल्यूकस निकेटर से युद्ध- 305-04  ईसा पूर्व-  सीरिया के शासक ने भारत के उत्तरी भाग पर आक्रमण किया। इस समय भारत का शासक  चंद्रगुप्त मौर्य था।  दोनों के मध्य युद्ध हुआ। जिसमें सेल्यूकस की पराजय हुई एवं उसने चंद्रगुप्त से संधि कर ली जिसकी निम्न शर्ते थी-
A.  सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलना का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य के साथ किया।
B.  सेल्यूकस ने अपने साम्राज्य के चार प्रांत काबुल, कंधार हेरात,  मकरात  चंद्रगुप्त मौर्य को दहेज में दिया।
C.  सेल्यूकस ने अपने राजदूत मेगस्थनीज को चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा।
D.  चंद्रगुप्त मौर्य ने 500  हाथी सेल्यूकस को उपहार में दिए।
4- संपूर्ण भारत की विजय

 नोट- फ़ाहयन ने अशोक के महलों को देख कर कहा यह सब देवताओं द्वारा बनाए गए होंगे।
 अन्य उपलब्धियां-
         
चंद्रगुप्त मौर्य धार्मिक रूप से सहिष्णु था।  किंतु व्यक्तिगत रूप से बाद जैन धर्म का अनुयाई था।  एवं भद्रबाहु उनके आचार्य/ गुरु थे जो दिगंबर जैन धर्म से संबंधित है।
         
 अपने जीवन के उत्तरार्ध में मगध में अकाल पड़ा जिस से बचने के लिए चंद्रगुप्त मौर्य भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भाग चले गए और वहां श्रवणबेलगोला में सल्लेखना/ संथारा प्रथा से अपने जीवन का परित्याग कर दिया।
           
चंद्रगुप्त मौर्य के समय सौराष्ट्र प्रांत का राज्यपाल पुष्यगुप्त वेश्य था। जिसने सौराष्ट्र में प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। जिसकी जानकारी हमको रुद्रदामन जूनागढ़ के अभिलेख से मिलती है।
         
 चंद्रगुप्त मौर्य के समय राज्य द्वारा   अकाल के समय सहायता की जानकारी मिलती है। और इस जानकारी का मुख्य स्रोत महास्थान,  बंगाल व  सहोगरा, बांग्लादेश  अभिलेख है।

रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिले जिसमें 4 शासकों के नाम का उल्लेख है जो सुदर्शन झील के निर्माण/ पुनर्निर्माण से संबंधित है

शासक
राज्यपाल
सुदर्शन झील
चंद्रगुप्त मौर्य
पुष्यगुप्त
सुदर्शन झील का निर्माण करवाया
अशोक मौर्य
तुषास्य
सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण
रुद्रदामन
सुविशाख
सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण
स्कंद गुप्त
पर्ण दत्त
इसके प्रशासक चक्रपानी ने इसका निर्माण करवाया


2.  बिंदुसार (298-273  ईसा पूर्व)-
                    चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र बिंदुसार, मौर्य वंश का शासक बना। जिसको यूनानी लेखक अमित्रघात (शत्रु विनाशक) कहते हैं। एवं उसका नाम सिंहसेन भी मिलता है।

 किसके काल में दो महत्वपूर्ण घटना हुई
1.  तक्षशिला में विद्रोह हुआ जिसे दबाने के लिए अपने पुत्र अशोक को भेजा।
2.  दो विदेशी  राजदूतो का आगमन
A.  मिस्र के शासक  टोलमी  द्वितीय ( फिलाडेल्फ़्स)  ने डायनोसियस नामक राजदूत को  बिंदुसार के दरबार में भेजा।
B.   सीरिया/ यूनान के साथ  शासक एंटिओक्स  प्रथम ने डाईमैक्स नामक राजदूत भेजा।

 स्पेशल नोट-  विलियम जोंस- 1784   मे वारेन हेस्टिंग्स और विलियम जोंस द्वारा बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य भारतीय इतिहास को पुनर्जीवित करना था विलियम जोंस प्राचीन भारतीय इतिहास के पथ प्रदर्शक थे। उन्होंने सर्वप्रथम ऋग्वेद व अभिज्ञान शाकुंतलम् का अंग्रेजी में अनुवाद किया। इन्होंने ही सर्वप्रथम1793 मे  सैंड्रोकोट्स का चंद्रगुप्त पोलिब्रोथा का पाटलिपुत्र नामकरण किया।
 विलियम जोंस ने सर्वप्रथम भारतीय इतिहास को तिथि क्रम में लिखा।


3.  अशोक मौर्य (273-232 ईसा पूर्व232)-

प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश का राजा था। अशोक का 'देवनाम प्रिय' एवं 'प्रियदर्शी' आदि नामों से भी उल्लेख किया जाता है। अशोक के समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूरकर्नाटक तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँच गया था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है। जीवन के उत्तरार्ध में अशोक गौतम बुद्ध के भक्त हो गया और उन्हीं महात्मा बुद्ध की स्मृति में उन्होंने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल-लुम्बिनी में मायादेवी मन्दिर के पास अशोक स्‍तम्‍भ के रूप में देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशियामिस्र तथा यूनान में भी करवाया। अशोक के अभिलेखों में प्रजा के प्रति कल्याणकारी दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति की गई है|
           अशोक के बारे में जानकारी केवल उसके अभिलेखों से मिलती है। अभिलेखों में अशोक का  अधिकांश नाम देवानांप्रिय मिलता है।
 मास्की अभिलेख में अशोक को  बुद्ध शाक्य कहा गया है।
 अशोक का अशोक नाम उसके चार अभिलेखों में मिलता है-  मास्की,  गुर्जरा,  नेत्तूर  और उड़ेगालम।
 रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में भी अशोक नाम मिलता है।
 पुराणों में अशोक वर्धन नाम मिलता है।
 प्रयाग लेख में अशोक के एकमात्र पुत्र तीवर एवं एकमात्र रानी कारुवाकी का उल्लेख मिलता है।
 बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या करके राजगद्दी प्राप्त की। किंतु दूसरी और उसके 5वे शिलालेख में उसके जीवित भाइयों का उल्लेख  मिलता है।
 अशोक ने अपने बड़े भाई सुमन/  सुशीम की हत्या करके 273  ईसा पूर्व में राजगद्दी प्राप्त की,  किंतु अशोक का  राज्याभिषेक 269  ईसा पूर्व में हुआ।

 अशोक  की कलिंग विजय  261 ईसा पूर्व-

           कलिंग विजय का उल्लेख अशोक के 13 वे शिलालेख में मिलता है।  कलिंग के आर्थिक एवं सैनिक महत्व के कारण अशोक ने इसकी विजय की थी। अशोक ने अपने राज्य अभिषेक के 8 वे वर्ष के पश्चात व 9 वे वर्ष मे कलिंग विजय की थी। कलिंग युद्ध के पश्चात अशोक ने युद्ध विजय की नीति का परित्याग कर उसके स्थान पर धम्म विजय की नीति अपनाई। फिल्म की राजधानी तौशाली थी।
           कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार अशोक ने कश्मीर की विजय की। और वहा श्रीनगर नामक नगर का निर्माण करवाया। जबकि नेपाल विजय के दौरान अशोक ने देव पतन नामक नगर बसाया।
हृदय परिवर्तन
कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा। युद्ध की भीषणता का अशोक पर गहरा प्रभाव पड़ा। अशोक ने युद्ध की नीति को सदा के लिए त्याग दिया और 'दिग्विजय' के स्थान पर 'धम्म विजय' की नीति को अपनाया। डा. हेमचंद्र रायचौधरी के अनुसार मगध का सम्राट बनने के बाद यह अशोक का प्रथम तथा अन्तिम युद्ध था।


 अशोक की धार्मिक नीति-

 अपने आरंभिक जीवन में अशोक ब्राह्मण धर्म के शैव मत का अनुयाई था, किंतु  बौद्ध भिक्षु निग्रोथ  मोगली पुत्र तिस्स और उपगुप्त के प्रभाव में आकर अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।
 भाब्रू अभिलेख में पहली बार बौद्ध धर्म के त्रिरत्न बुद्ध, धम्म  और संघ का उल्लेख हुआ है, जो अशोक के बौद्ध धर्म में आस्था का प्रमाण है।
 रुम्मिनदेई अभिलेख के अनुसार अशोक ने लुंबिनी की यात्रा की और लुंबिनी ग्राम को कर मुक्त किया।

अशोक का धम्म-

1.  परिचय व उद्देश्य-   अशोक ने अपने साम्राज्य में राजनीतिक एकता व शांति एवं व्यवस्था स्थापित करने हेतु धम्म का प्रतिपादन किया। धम्म वस्तुतः आचार विचार एवं नैतिक नियमों की एक संहिता थी, जो प्रजा के कल्याण के लिए लाई गई थी।

धम्म  के स्रोत- अशोक ने धम्म  की परिभाषा एवं लक्षण बौद्ध धर्म के दिग्निकाय के सिंहलोवादसुत्त से ली।

 धम्म  के प्रचार-प्रसार हेतु प्रयास-

1.  साम्राज्य में होने वाली पशु एवं जीव हत्या पर प्रतिबंध लगाया।
2.  बिहार यात्राओं के स्थान पर धम्म यात्रा की शुरुआत की।
3. धम्म के पालन हेतु धम्म महामात्र नामक अधिकारी की नियुक्ति की।
4. धम्म की देख-रेख हेतु युक्त, रज्जुक एवं प्रादेशिक अधिकारियों की नियुक्ति की।
5.  साम्राज्य के विभिन्न भागों में धम्म की घोषणाओं को स्तनों पर खुदवाया।
6. धम्म के प्रचार-प्रसार हेतु धर्मप्रचारकों की नियुक्ति की।  अपने पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा  तथा सोन वह उत्तरा को बर्मा भेजा।

 अशोक के पश्चात मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया जिसके निम्नलिखित कारण है-

1.  अशोक की अत्यधिक अहिंसावादी नीति।
2.  अशोक की ब्राह्मण विरोधी नीति।
3.  योग्य उत्तराधिकारियों का अभाव।
4.  अत्यधिक केंद्रीय कर शासन।
5.  साम्राज्य में होने वाले सामंती विद्रोह /सामंतों की महत्वकांक्षा।

           अशोक के पश्चात मौर्य वंश में कुणाल,  संपत्ति,  दशरथ एवं बृहद्रथ  ने शासन किया।  अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ  था।  जिसकी हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने की और मगध मे मौर्य वंश के स्थान पर शुंग वंश की स्थापना की गई।

मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था-
1. प्रशासन का स्वरुप/ राज्य का स्वरूप-  
प्रजातंत्त्मत्राक
केंद्रीय कृत
निरंकुश शासन
कल्याणकारी

2.  मौर्यकालीन केंद्रीय प्रशासन

 इस काल में केंद्रीय प्रशासन का सर्वोच्च वर्ग राजा/ सम्राट होता था राजा को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी जिसकी नियुक्ति  स्वयं राजा उपधा परीक्षण द्वारा करता था। इसके सदस्यों को 12000 वार्षिक पण वेतन मिलता था।



 मंत्रीण/ अमात्य-

 यह विशिष्ट एवं योग्य अधिकारियों का एक समूह था जहां से उच्च पदों पर नियुक्ति की जाती थी।इसके सदस्यों को 48000 वार्षिक पण वेतन मिलता था।

 केंद्रीय अधिकारी-

  मौर्य काल में केंद्रीय अधिकारियों को तीर्थ कहा जाता था जिसकी संख्या 18 थी एवं इनको 10000 वार्षिक पण वेतन मिलता था। जो निम्न है
 पुरोहित मंत्री-  प्रधानमंत्री था
 समाहर्ता-   राजस्व वसूल कर्ता
 सन्निधाता-  कोषाध्यक्ष
  प्रशास्ता-  राजकीय आदर्श व योग कागजों को सुरक्षित रखने वाला अधिकारी
 
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साम्राज्य की सीमा
अशोक के शिलालेखों तथा स्तंभलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा की ठीक जानकारी प्राप्त होती है। शिला तथा स्तंभलेखों के विवरण से ही नहीं, वरन् जहाँ से अभिलेख पाए गए हैं, उन स्थानों की स्थिति से भी सीमा निर्धारण करने में सहायता मिलती है। इन अभिलेखों में जनता के लिए राजा की घोषणाएँ थीं। अतः वे अशोक के विभिन्न प्रान्तों में आबादी के मुख्य केन्द्रों में उत्कीर्ण कराए गए। कुछ अभिलेख सीमांत स्थानों पर पाए जाते हैं। उत्तर-पश्चिम में शहबाज़गढ़ी और मानसेहरा में अशोक के शिलालेख पाए गए। इसके अतिरिक्त तक्षशिला में और क़ाबुल प्रदेश में लमगान में अशोक के लेख अरामाइक लिपि में मिलते हैं। एक शिलालेख में एण्टियोकस द्वितीय थियोस को पड़ोसी राजा कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि उत्तर-पश्चिम में अशोक के साम्राज्य की सीमा हिन्दुकुश तक थी।

शिलालेख और स्तूप
पूर्व में बंगाल तक मौर्य साम्राज्य के विस्तृत होने की पुष्टि महास्थान शिलालेख से होती है। यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि में है और मौर्य काल का माना जाता है। 'महावंश' के अनुसार अशोक अपने पुत्र को विदा करने के लिए ताम्रलिप्ति तक आया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग को भी ताम्रलिप्तिकर्णसुवर्णसमतटपूर्वी बंगाल तथा पुण्ड्रवर्धन में अशोक के स्तूप देखने को मिले थे। 'दिव्यावदान' में कहा गया है कि अशोक के समय तक बंगाल मगध साम्राज्य का ही एक अंग था। आसाम कदाचित् मौर्य साम्राज्य से बाहर था। वहाँ पर अशोक के कोई स्मारक चीनी यात्री को देखने को नहीं मिले।

धर्म परिवर्तन
अपने पूर्वजों की तरह अशोक भी ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। 'महावंश' के अनुसार वह प्रतिदिन 60,000 ब्राह्मणों को भोजन दिया करता था और अनेक देवी-देवताओं की पूजा किया करता था। कल्हण की 'राजतरंगिणी' के अनुसार अशोक के इष्ट देव भगवान शिव थे। पशुबलि में उसे कोई हिचक नहीं थी। मौर्य राज्य सभा में सभी धर्मों के विद्वान् भाग लेते थे, जैसे- ब्राह्मण, दार्शनिक, निग्रंथआजीवकबौद्ध तथा यूनानी दार्शनिक। संसार के इतिहास में अशोक इसलिए विख्यात है कि उसने निरन्तर मानव की नैतिक उन्नति के लिए प्रयास किया। जिन सिद्धांतों के पालन से यह नैतिक उत्थान सम्भव था, अशोक के लेखों में उन्हें 'धम्म' कहा गया है। दूसरे तथा सातवें स्तंभ-लेखों में अशोक ने धम्म की व्याख्या इस प्रकार की है- "धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता।" आगे कहा गया है कि- "प्राणियों का वध न करना, जीवहिंसा न करनामाता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियोंब्राह्मण तथा श्रवणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार।"

बौद्ध धर्म
सभी बौद्ध ग्रंथ अशोक को बौद्ध धर्म का अनुयायी बताते हैं। अशोक के बौद्ध होने के सबल प्रमाण उसके अभिलेख हैं। राज्याभिषक से सम्बद्ध लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को 'बुद्धशाक्य' कहा है। साथ ही यह भी कहा है कि वह ढाई वर्ष तक एक साधारण उपासक रहा। भाब्रु लघु शिलालेख में अशोक त्रिरत्न- बुद्ध, धम्म और संघ में विश्वास करने के लिए कहता है और भिक्षु तथा भिक्षुणियों से कुछ बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन तथा श्रवण करने के लिए कहता है।

अशोक के शिलालेख
शिलाओं तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों के अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि 'अशोक का धम्म' व्यावहारिक फलमूलक अर्थात फल को दृष्टि में रखने वाला और अत्यधिक मानवीय था। इस धर्म के प्रचार से अशोक अपने साम्राज्य के लोगों में तथा बाहर अच्छे जीवन के आदर्श को चरितार्थ करना चाहता था। इसके लिए उसने जहाँ कुछ बातें लाकर बौद्ध धर्म में सुधार किया, वहीं लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए विवश नहीं किया।
सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म का प्रचार करने की प्रेरणा धर्माचार्य उपगुप्त ने ही दी। उपगुप्त अत्यंत रूपवान और प्रतिभाशाली था। उपगुप्त किशोरावस्था में ही विरक्त होकर बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया था।

अशोक शासक के रूप में
शासक संगठन का प्रारूप लगभग वही था, जो चंद्रगुप्त मौर्य के समय में था। अशोक के अभिलेखों में कई अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। जैसे राजुकु, प्रादेशिक, युक्तक आदि। इनमें अधिकांश राज्याधिकारी चंद्रगुप्त के समय से चले आ रहे थे। अशोक ने धार्मिक नीति तथा प्रजा के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर उनके कर्तव्यों में विस्तार किया। केवल धम्म महामात्रों की नियुक्ति एक नवीन प्रकार की नियुक्ति थी। बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात् अशोक ने धम्म प्रचार के लिए बड़ी लगन और उत्साह से काम किया। परन्तु शासन के प्रति वह क़तई उदासीन नहीं हुआ। 40 वर्ष तक राज्य करने के बाद लगभग ई. पू. 232 में अशोक की मृत्यु हुई। उसके बाद लगभग 50 वर्ष तक अशोक के अनेक उत्तराधिकारियों ने शासन किया। किन्तु इन मौर्य शासकों के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान अपर्याप्त तथा अनिश्चित है। पुराणबौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में इन उत्तराधिकारियों के नामों की जो सूचियाँ दी गई हैं, वे एक-दूसरे से मेल नहीं खाती हैं।

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