सल्तनत काल में स्थापत्य कला
सल्तनत काल में भारतीय स्थापत्य कला के क्षेत्र में जिस शैली का विकास हुआ, वह भारतीय
तथा इस्लामी शैलियों का सम्मिश्रिण थी। इसलिए स्थापत्य कला की इस शैली को ‘इण्डो इस्लामिक’ शैली कहा गया। कुछ विद्वानों ने इसे
'इण्डो-सरसेनिक' शैली कहा है।
फर्ग्यूसन महोदय ने इसे पठान शैली कहा है, किन्तु यह वास्तव में भारतीय एवं
इस्लामी शैलियों का मिश्रण थी। सर जॉन मार्शल, ईश्वरी प्रसाद
जैसे इतिहासविदों ने स्थापत्य कला की इस शैली को 'इण्डों-इस्लामिक'
शैली व हिन्दू-मुस्लिम शैली कहना उचित समझा।
इण्डों-इस्लामिक स्थापत्य
कला शैली की विशेषताएँ निम्न प्रकार थीं-
सल्तनत काल
में स्थापत्य कला के अन्तर्गत हुए निर्माण कार्यों में भारतीय एवं ईरानी शैलियों के मिश्रण का संकेत मिलता है।
सल्तन काल
के निर्माण कार्य जैसे- क़िला, मक़बरा, मस्जिद,
महल एवं मीनारों में नुकीले मेहराबों-गुम्बदों तथा संकरी एवं ऊँची मीनारों का प्रयोग किया
गया है।
इस काल में
मंदिरों को तोड़कर उनके मलबे पर बनी मस्जिद में एक नये ढंग से पूजा घर का निर्माण किया गया।
सल्तनत काल
में सुल्तानों,
अमीरों एवं सूफी सन्तों के स्मरण में मक़बरों के निर्माण की परम्परा
की शुरुआत हुई।
इस काल में
ही इमारतों की मज़बूती हेतु पत्थर, कंकरीट एवं अच्छे
क़िस्म के चूने का प्रयोग किया गया।
सल्तनत काल
में इमारतों में पहली बार वैज्ञानिक ढंग से मेहराब एवं गुम्बद का प्रयोग किया गया।
यह कला भारतीयों ने अरबों से सीखी। तुर्क सुल्तानों
ने गुम्बद और मेहराब के निर्माण में शिला एवं शहतीर दोनों प्रणालियों का उपयोग
किया।
सल्तनत काल
में इमारतों की साज-सज्जा में जीवित वस्तुओं का चित्रिण निषिद्ध होने के कारण
उन्हें सजाने में अनेक प्रकार के फूल-पत्तियाँ, ज्यामितीय एवं क़ुरान की आयतें खुदवायी जाती थीं। कालान्तर में तुर्क सुल्तानों द्वारा हिन्दू
साज-सज्जा की वस्तुओं जैसे- कमलबेल के नमूने, स्वस्तिक,
घंटियों के नमूने, कलश आदि का भी प्रयोग किया
जाने लगा। अलंकरण की संयुक्त विधि को सल्तनत काल में ‘अरबस्क
विधि’ कहा गया।
काल विभाजन
सल्तनतकालीन
वास्तुकला के विकास को मुख्यतः चार भागों में बाँटा जा सकता है-
ग़ुलाम तथा ख़िलजी काल में
वास्तुकला
तुग़लक़ काल में वास्तुकला
सैय्यद कालीन वास्तुकला और
लोदी काल में वास्तुकला
ग़ुलाम तथा
ख़िलजी काल में वास्तुकला
यह काल स्थापत्य कला के विकास की प्रथम अवस्था माना जाता है। इस काल की इमारतें हिन्दू शैली के प्रत्यक्ष प्रभाव में बनी है,
जिनकी दीवारें चिकनी एवं मज़बूत हैं। इस काल में बने स्तम्भ,
मंदिरों के प्रतीक होते हैं। पहली बार हिन्दू कारीगरों द्वारा
बरामदों में मेहराबदार दरवाज़े बनाये गये। मुसलमानों द्वारा निर्मित मस्जिदों के
चारों तरफ़ मीनारें उनके उच्च विचारों का प्रतीक हैं।
ग़ुलाम
कालीन वास्तुकला
ग़ुलाम काल में बनी कुछ
प्रमुख इमारतों का वर्णन इस प्रकार है-
क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद
1192 ई. में तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज
चौहान के हारने पर उनके क़िले 'रायपिथौरा'
पर अधिकार कर वहाँ पर 'क़ुव्वत-उल-इस्लाम
मस्जिद' का निर्माण कुतुबुद्दीन
ऐबक ने करवाया। वस्तुतः कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली विजय के उपलक्ष्य में तथा इस्लाम धर्म को प्रतिष्ठित करने के उदेश्य से 1192
ई. में 'कुत्ब' अथवा 'क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद' का निर्माण कराया।
कुतुबमीनार
यह मीनार दिल्ली से 12 मील की दूरी
पर मेहरौली गाँव में स्थित है। प्रारम्भ में इस मस्जिद का प्रयोग अजान (नमाज़ के
लिए बुलाना) के लिए होता था, पर कालान्तर में इसे 'कीर्ति स्तम्भ' के रूप में माना जाने लगा। 1206
ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसका निर्माण कार्य प्रारम्भ करवाया। ऐबक
इस इमारत में चार मंज़िलों का निर्माण कराना चाहता था, परन्तु
एक मंज़िल के निर्माण के बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। बाद में इसकी शेष मंज़िलों का
निर्माण इल्तुतमिश ने 1231
ई. में करवाया। कुतुबमीनार का निर्माण 'ख्वाजा
कुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी' की स्मृति में कराया गया था।
अढ़ाई दिन
का झोपड़ा
कुतुबुद्दीन ऐबक ने अढ़ाई
दिन का झोपड़ा,
जो वास्तव में एक मस्जिद है, का निर्माण अजमेर में करवाया। इसके नाम के विषय में जॉन
मार्शल का कहना है कि, चूँकि इस मस्जिद का निमार्ण मात्र ढाई
दिन में किया गया था, इसलिए इस मस्जिद को 'अढ़ाई दिन का झोपड़ा' कहा जाता है। पर्सी ब्राउन का
कहना है कि, यहाँ एक झोपड़ी के पास अढ़ाई दिन का मेला लगता
था, इस कारण इस स्थान को अढाई दिन का झोपड़ा कहा गया है।
विग्रहराज बीसलदेव ने इस
स्थान पर एक सरस्वती मन्दिर बनवाया था। बीसलदेव द्वारा रचित 'हरिकेलि' नामक नाटक तथा सोमदेव कृत 'ललित विग्रहराज' की कुछ पंक्तियाँ आज भी इसकी
दीवारों पर मौजूद है। कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे तुड़वाकर मस्जिद बनवायी। यह मस्जिद क़ुब्बत मस्जिद की तुलना में
अधिक बड़े आकार की एवं आकर्षक है। इस मस्जिद के आकार को कालान्तर में इल्तुतमिश
द्वारा विस्तार दिया गया। इस मस्जिद में तीन स्तम्भों का प्रयोग किया गया, जिसके ऊपर 20 फुट ऊँची छत का निर्माण किया गया है।
इसमें पाँच मेहराबदार दरवाज़े भी बनाये गये हैं। मुख्य दरवाज़ा सर्वाधिक ऊँचा है।
मस्जिद के प्रत्येक कोने में चक्रकार एवं बांसुरी के आकार की मीनारें निर्मित हैं।
नासिरुद्दीन
महमूद का मक़बरा या सुल्तानगढ़ी
स्थापत्य कला के क्षेत्र में
इस मक़बरे के निर्माण को एक नवीन प्रयोग के रूप में माना जाता है। चूँकि तुर्क
सुल्तानों द्वारा भारत में निर्मित यह पहला मक़बरा था, इसलिए इल्तुतमिश को मक़बरा निर्माण शैली का जन्मदाता कहा जा सकता है।
सुल्तानगढ़ी मक़बरे का निर्माण इल्तुतमिश ने अपने ज्येष्ठ पुत्र नासिरुद्दीन महमूद
की याद में कुतुबमीनार से लगभग 3 मील की दूरी पर स्थित
मलकापुर में 1231 ई. में करवाया था। पर्सी ब्राउन के शब्दों
में सुल्तानगढ़ी का शाब्दिक अर्थ है- ‘गुफा का सुल्तान’। यह मक़बरा आकार में दुर्ग के समान ही प्रतीत होता है। मक़बरे की
चाहरदीवारी के मध्य में लगभग 66 फुट का आंगन है। आंगन के बीच
में अष्टकोणीय चबूतरा निर्मित है, जो धरातल में मक़बरे की छत
का काम करता है। आंगन में कही भूरे रंग का पत्थर तो कही संगमरमर का प्रयोग किया गया है। मस्जिद के पूर्वी छोर पर
एक खम्बा स्थित है, जिसकी ऊँचाई चहारदीवारी से अधिक है।
स्तम्भयुक्त मस्जिद के बरामदे में एक छोटी मस्जिद का निर्माण किया गया था, जिसमें राज परिवार के लोग नमाज़ पढ़ा करते थे। मस्जिद में एक तहखाना भी
बना था, जहाँ राज-परिवार के लोग एकान्तिक क्षण व्यतीत किया
करते थे। मस्जिद में निर्मित मेहराबों में मुस्लिम कला एवं पूजास्थान तथा गुम्बद के आकार की छत में हिन्दू कला शैली का प्रभाव दिखाई पड़ता है।
इल्तुतमिश
का मक़बरा
इस मक़बरे का निर्माण इल्तुतमिश द्वारा क़ुव्वत मस्जिद के समीप लगभग 1235
ई. में करवाया गया था। 42 फुट वर्गाकार इस
इमारत के तीन तरफ़ पूर्व, दक्षिण एवं उत्तर में प्रवेश द्वार
बना है। पश्चिम की ओर का प्रवेश द्वार बंद हे। 30 घन फीट का
बना आन्तरिक कक्ष अपनी सुन्दरता के कारण हिन्दू तथा जैन मन्दिरों के समकक्ष ठहरता है। मक़बरे की दीवारों पर क़ुरान की आयतें खुदी हैं। मक़बरे में बने
गुम्बदों में घुमावदार पत्थर के टुकड़ों का प्रयोग किया गया है। गुम्बद के चोकोर
कोने में गोलाई लाने के लिए जिस शैली का प्रयोग किया गया है, उसे गुम्बद निर्माण के इतिहास में ‘स्क्रीच शैली’
के नाम से जाना जाता है। यह मक़बरा एक कक्षीय है।
इल्तुतमिश के अन्य निर्माण
कार्यों में बदायूँ में निर्मित ‘हौज-ए-शम्सी’,
‘शम्सी’ ईदगाह’ एवं जामा
मस्जिद प्रमुख है। जामा मस्जिद, जिसका निर्माण 1223 ई में हुआ, यह अपने समय की सर्वाधिक बड़ी एवं मज़बूत
मस्जिद है। इसका पुन:र्निमाण मुहम्मद बिन तुग़लक़ एवं अकबर ने करवाया
था। जोधपुर राज्य के नागौर
स्थान पर इल्तुतमिश ने 1230 ई. में ‘अतारिकिन’
नामक एक विशाल दरवाज़े का निर्माण करवाया। कालान्तर में मुहम्मद बिन
तुग़लक़ ने इसका जीर्णोद्वार करवाया। मुग़ल सम्राट अकबर ने इसी दरवाज़े से प्रेरित होकर बुलन्द
दरवाज़े का निर्माण करवाया था।
सुल्तान
बलबन का मक़बरा
सुल्तान बलबन का मक़बरा वास्तुकला की दृष्टि से एक
महत्त्वपूर्ण रचना है। इस मक़बरे का कक्ष वर्गाकार है। सर्वप्रथम वास्तविक मेहराब
का रूप इसी मक़बरे में दिखाई देता है।
मुइनुद्दीन
चिश्ती की दरगाह
इस दरगाह या ख़ानक़ाह का
निर्माण इल्तुतमिश ने करवाया था। कालान्तर में अलाउद्दीन
ख़िलजी ने इसे विस्तृत करवाया। बलबन ने रायपिथौरा क़िले
के समीप स्वयं का मक़बरा एवं लाल महल नामक मकान का निर्माण करवाया। दिल्ली में बना उसका मक़बरा शुद्ध इस्लामी शैली
में निर्मित है।
ख़िलजी
कालीन वास्तुकला
इल्ततुमिश की मुत्यृ के बाद
ख़िलजी सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी ने अनेक निर्माण कार्य शुद्ध इस्लामी शैली के
अन्तर्गत करवाये। अलाउद्दीन ने सीरी नामक गाँव में एक नगर की स्थापना की। जियाउद्दीन बरनी ने इस नगर को ‘नौ’ अथवा 'नया नगर' कहा। इस नगर के बाहर अलाउद्दीन ख़िलजी ने एक तालाब एवं उसके किनारे कुछ
भवनों का निर्माण करवाया था, आज ‘हौज-ए-रानी’
के नाम से प्रसिद्ध यह स्थान काफ़ी जीर्ण-शीर्ण स्थिति में है। अमीर ख़ुसरो ने इसकी प्रशंसा में लिखा है- ‘पानी के बीच गुम्बद समुद्र की सतह पर बुलबुले के समान है।”
अलाई
दरवाज़ा
इसका निर्माण कार्य
अलाउद्दीन ख़िलजी द्वारा 1310-1311
ई. में आरम्भ करवाया गया। इसके निर्माण का उद्देश्य क़ुव्वत मस्जिद
में चार प्रवेश द्वार बनाना था- दो पूर्व में, एक दक्षिण में
और एक उत्तर में। इसका निर्माण ऊँची कुर्सी पर किया गया है। कुर्सी पर सुन्दर
बेल-बूटे बने थे। दरवाज़े में लाल पत्थर एवं संगमरमर का सुन्दर संयोग दिखता है,
साथ ही आकर्षक ढंग से क़ुरान की आयतों को लिखा गया है। इस मस्जिद में बनी एक गुम्बद में पहली बार
विशुद्ध वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया गया है। अलाई दरवाज़ा की साज-सज्जा में बौद्ध तत्वों के मिश्रण का आभास होता है।
अलंकरण में इतनी सघनता है कि, कहीं पर इंच भर भी जगह रिक्त
नहीं है। द्वारों के अन्दर पुष्पमालानुमा झालर अत्यधिक आकर्षक है। पर्सी ब्राउन ने
अलाई दरवाज़े के विषय में कहा है कि- ‘अलाई दरवाज़ा इस्लामी
स्थापत्य कला के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।’ जॉन
मार्शल ने अलाई दरवाज़े के विषय में कहा है कि- “अलाई
दरवाज़ा इस्लामी स्थापत्य कला के ख़ज़ाने का सबसे बड़ा हीरा है।” पहली बार वास्तविक गुम्बद का स्वरूप अलाई
दरवाज़ा में ही दिखाई देता है।
जमात ख़ाँ
मस्जिद
जमात ख़ाँ मस्जिद का निर्माण
अलाउद्दीन ख़िलजी ने निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के समीप करवाया।
पूर्णतः इस्लामी शैली में निर्मित इस मस्जिद में लाल पत्थर का प्रयोग किया गया है।
इसके डाटों के कोने में कमल के पुष्प से इस मस्जिद में हिन्दू शैली के प्रभाव का आभास होता है। डाटों पर क़ुरान की आयतें भी उत्कीर्ण
हैं। इस मस्जिद में तीन कमरे बने हैं, जिनमें दो कमरे
आयताकार हैं तथा मस्जिद के मध्य भाग में निर्मित कमरा चोकोर है। पूर्णरूप से
इस्लामी परम्परा में निर्मित यह भारत की पहली मस्जिद है।
ख़िलजी काल में पूर्णत
निर्मित अन्य निर्माण कार्यों में कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी द्वारा भरतपुर में निर्मित ‘ऊखा
मस्जिद’ एवं ख़िज़्र ख़ाँ द्वारा निर्मित निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह विशेष उल्लेखनीय है।
तुग़लक़
काल में वास्तुकला
तुग़लक़ वंश के शासकों ने ख़िलजी कालीन इमारतों की भव्यता एवं सुन्दरता के स्थान पर
इमारतों की सादगी एवं विशालता पर अधिक ज़ोर दिया। अपने पूर्व शासकों के विरुद्ध ग़यासुद्दीन तुग़लक़ ने सादगी एवं मितव्ययिता
की नीति अपनाई। मुहम्मद बिन तुग़लक़ की प्रशासनिक समस्याओं एवं धनाभाव के कारण फ़िरोज़
शाह तुग़लक़ ने पुरानी विचारधारा के कारण साज-सज्जा पर
अधिक ध्यान नहीं दिया। इस काल की प्रमुख इमारतें निम्नलिखित हैं-
तुग़लक़ाबाद
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ ने दिल्ली के समीप स्थित पहाड़ियों पर तुग़लक़ाबाद
नाम का एक नया नगर स्थापित किया। रोमन शैली में निर्मित इस नगर में एक दुर्ग का
निर्माण भी हुआ है। इस दुर्ग को ‘छप्पन कोट’ के नाम से भी जाना जाता है। दुर्ग की दीवारें मिस्र के पिरामिड की तरह अन्दर की ओर झुकी हुई हैं। इसकी नींव गहरी तथा दीवारें
मोटी हैं। क़िले के अन्दर निर्मित सुल्तान के राजमहल के विषय में इब्न बतूता ने कहा कि, ‘राजमहल सूर्यके प्रकाश में इतना चमकता था कि, कोई भी
व्यक्ति उसे टकटकी बाँधकर नहीं देख पाता था।’ राजमहल में
शाही दरबार तथा जनान खाने का भी निर्माण किया गया था। तुग़लक़ाबाद नगर में प्रवेश
के लिए 52 द्वार बनाये गये थे। राजमहल के निर्माण में टाइलों
का उपयोग किया गया था। सर जॉन मार्शल ने इस निर्माण कार्य के विषय में कहा है कि,
‘इसकी सुदृढ़ता की व्यवस्था धोखा है, क्योंकि
निर्माण निम्नकोटि का है। सम्भवतः मंगोलों के आक्रमण के भय से इसका निर्माण इतनी शीघ्रता से किया गया कि, इसमें विशिष्ट शैली तथा कला का अभाव सर्वत्र दिखाई देता है।
ग़यासुद्दीन
का मक़बरा
कृत्रिम झील के अन्दर
निर्मित इस मक़बरे की दीवारें चौड़ी एवं मिस्र के पिरामिडों की तरह भीतर की ओर
झुकी हैं। यह मक़बरा चर्तुर्भुज के आकार के आधार पर स्थित है, मक़बरे की ऊँचाई लगभग 81 फीट है। मक़बरें में ऊपर
संगमरमर का सुन्दर गुम्बद बना है, गुम्बद की छत कई डाटों पर
आधारित है। मक़बरे में आमलक और कलश का प्रयोग हिन्दू मंदिरों की शैली पर किया गया है। लाल पत्थर से निर्मित इस मक़बरे के चारों
ओर मज़बूत मीनार का निर्माण
किया गया है। फर्ग्युसन के शब्दों में- ‘मक़बरे की ढालू
दीवारें एवं क़रीब-क़रीब मिस्र के ढंग की दृढ़ता, विशाल एवं
सुदृढ़ दीवारें एक योद्धा की समाधि के नमूने का निर्माण कर रही हैं। इस मक़बरे का
पंचभुजीय होना इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषता है। जॉन मार्शल के शब्दों में- 'इस मक़बरे की दृढ़ता तथा सादगी के आधार पर हम कह सकते हैं कि, उस महान् योद्धा की समाधि के लिए इससे उपयुक्त स्थान और कोई नहीं हो सकता
था।'
आदिलाबाद
का क़िला
मुहम्मद तुग़लक़ ने
तुग़लक़ाबाद के समीप ही आदिलाबाद नामक क़िले का निर्माण करवाया था।
जहाँपनाह
नगर
मुहम्मद तुग़लक़ ने इस नगर
की स्थापना रायपिथौरा एवं सीरी के मध्य करवाई थी। नगर के चारों तरफ़ 12 गज़ मोटी दीवार सुरक्षा के दृष्टिकोण से बनाई गई थी। इस नगर के अवशेषों
में 'सतपुत्र' अर्थात् 'सात मेहराबों का पुत्र' आज भी वर्तमान में है। अवशेष
के रूप में बचा ‘विजय मंडल’ सम्भवतः
महल का एक भाग था। पर्सी ब्राउन ने इस निर्माण कार्य के विषय में कहा है कि- ‘इसकी स्थापत्य शैली से स्पष्ट हो जाता है कि, इसके
कारीगर सुन्दर भवन निर्माण शैली से पूर्व परिचित थे।
सतपलाह
मुहम्मद तुग़लक़ द्वारा सात
मेहराबों वाला एक दो मंज़िला पुल की स्थापना की गयी। इसका निर्माण एक कृत्रिम झील
में पानी पहुँचाने के लिए किया गया था।
शेख़
निज़ामुद्दीन औलिया का मक़बरा
इस मक़बरें में संगमरमर का
अच्छा प्रयोग किया गया है।
बारह खम्भा
धर्मनिरपेक्ष इमारतों में तुग़लक़ कालीन सामंत निवास के लिए बनी इस इमारत
का विशिष्ट स्थान है। इस इमारत की महत्त्वपूर्ण विशेषता सुरक्षा तथा गुप्त निवास
है। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ की स्थापत्य कला में रुचि के विषय में फ़रिश्ता ने कहा है
कि- ‘सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक़ वास्तुकला का महान् प्रेमी
था। उसने 200 नगर, 20 महल, 30 पाठशालायें, 40 मस्जिदें, 100 अस्पताल,
100 स्नानगृह, 5 मक़बरे एवं 150 पुलों का निर्माण करवाया। फ़िरोज़ ने फ़िरोज़ाबाद,
फ़तेहाबाद, हिसार, जौनपुर आदि नगरों का निर्माण करवाया। यमुना नदी पर निर्मित नहर इसका
महत्त्वपूर्ण
निर्माण कार्य हैं।
कोटला
फ़िरोज़शाह
सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक़
ने पाँचवी दिल्ली बसायी, जिसमें एक
महल की स्थापना की। यह 'कोटला फ़िरोज़शाह' के नाम से विख्यात है। सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने दिल्ली में कोटला
फ़िरोज़शाह दुर्ग का निर्माण करवाया। इसका क्षेत्रफल शाहजहाँबाद से दो-गुना है।
दुर्ग के अन्दर निर्मित इमारतों में जन सामान्य के लिए आठ मस्जिदें एवं व्यक्तिगत
प्रयोग के लिए निर्मित एक मस्जिद उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त दुर्ग के अन्दर तीन
राजमहल एवं अनेक शिकार खेलने के स्थानों का निर्माण किया गया है। दुर्ग के अन्दर
निर्मित जामा मस्जिद के सामने सम्राट अशोक का टोपरा गाँव से लाया गया स्तम्भ गड़ा है। मेरठ से लाया गया अशोक का दूसरा स्तम्भ ‘कुश्क-ए-शिकार’
महल के सामने गड़ा है। इसके साथ ही दुर्ग के अन्दर एक दो मज़िली
इमारत के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिसका उपयोग विद्यालय के
रूप में किया जाता था।
फ़िरोज़शाह
का मक़बरा
यह मक़बरा एक वर्गाकार इमारत
है। इसका प्रधान दरवाज़ा दक्षिण की तरफ़ है। मक़बरे की मज़बूत दीवारों को
फूल-पत्तियों एवं बेल-बूटों से सजाया गया है। मक़बरें में संगमरमर का भी प्रयोग
किया गया है। संगमरमर तथा लाल पत्थर के संयोग से निर्मित इस मक़बरे का गुम्बद
अष्टकोणीय ड्रम पर निर्मित है।
ख़ान-ए-जहाँ तेलंगानी का
मक़बरा
ख़ानेजहाँ जूनाशाह ने इस
मक़बरे का निर्माण अपने पिता एवं फ़िरोज़ के प्रधानमंत्री ख़ान-ए-जहाँ
तेलंगानी की याद में कराया था। यह मक़बरा अष्टभुज के आकार में निर्मित है। इस
मक़बरे की तुलना जेरुसलम में
निर्मित उमर की मस्जिद से की जाती है।
खिड़की
मस्जिद
ख़ानेजहाँ जूनाशाह द्वारा
जहाँपनाह नगर में निर्मित यह मस्जिद वर्गाकार रूप में है। तहखाने के ऊपर बनी यह
मस्जिद दुर्ग के समान दिखती है। इसकी तुलना इल्तुतमिश के ‘सुल्तानगढ़ी’ से की जाती
है।
काली
मस्जिद
फ़िरोज़शाह तुग़लक़ के काल में निर्मित यह मस्जिद दो मंज़िली है। इसमें अर्धवृतीय मेहराबों का
प्रयोग हुआ है। मस्जिद का विशाल आँगन चार भागों में बँटा है। इस मस्जिद का निर्माण
ख़ानेजहाँ जूनाशाह ने करवाया था।
बेगमपुरी
मस्जिद
जहाँपनाह नगर में निर्मित यह
मस्जिद अपने गुम्बदों एवं मेहराबों के प्रयोग से काफ़ी प्रभावशाली दिखती है। इसमें
संगमरमर का प्रयोग किया गया है।
कलां
मस्जिद
‘ख़ान-ए-जौनाशाह’
द्वारा निर्मित यह मस्जिद शाहजहाँबाद में स्थित है। इसकी छत पर गुम्बद
तथा चारों कोनों में बुर्ज बने हैं। इस मस्जिद का निर्माण भी तहखाने के ऊपर हुआ
है।
कबीरुद्दीन
औलिया का मक़बरा
ग़यासुद्दीन द्वितीय के समय
में इस मक़बरे का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। नासिरुद्दीन मुहम्मद के समय में यह
कार्य पूरा हुआ। इस मस्जिद को ‘लाल गुम्बद’ भी कहा जाता है। आयताकार रूप में बनी इस मस्जिद में लालपत्थर एवं सफ़ेद संगमरमर
का प्रयोग किया गया है।
सैय्यद
कालीन वास्तुकला
इस समय तक स्थापत्य कला का पतन आरम्भ हो चुका था। सैय्यद कालीन इमारतों को ख़िलजी कालीन इमारतों की नकल भर माना जा सकता है। सैय्यदों एवं लोदियों के समय में ख़िलजी युग की प्राणवंत
शैली को पुन:जीवित करने के प्रयास किये गये। किन्तु ये सीमित अंशों में ही सफल हुए
तथा यह शैली “तुग़लक़ युग के
मृत्युकारी परिणाम को हटा नहीं सकी।” इस काल में ख़िज़्र ख़ाँ द्वारा स्थापित 'ख़िज़्राबाद' एवं मुबारक
शाह द्वारा स्थापित नगर 'मुबारकाबाद'
का निर्माण हुआ।
सुल्तान
मुबारक शाह का मक़बरा
यह मक़बरा मुबारकपुर नामक
गाँव में स्थित है। मक़बरे के चारों ओर बने बरामदों की ऊँचाई अधिक है। गुम्बद के
शिखर को डाटदार दीपक से सुसज्जित करने का प्रयास किया गया है। जॉन मार्शल के
अनुसार- "इस मस्जिद का सबसे बड़ा दोष यह है कि, निर्माणकर्ताओं
ने इसे इतना ऊँचा बना दिया है कि, दर्शक सरलता से इसे देख
नहीं सकते।” यह मक़बरा अष्टभुजीय है।
मुहम्मद
शाह का मक़बरा
इस अष्टभुजीय मक़बरे में
अत्यधिक ऊँचाई होने के दोष को दूर किया गया है। मक़बरे में कमल आदि प्रतिरूपों की
साज-सज्जा हेतु चीनी टाइलों का उपयोग किया गया है।
लोदी काल
में वास्तुकला
लोदी काल में किये गए कुछ
महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्य निम्नलिखित हैं-
बहलोल लोदी
का मक़बरा
यह मक़बरा 1418 ई. में सिकन्दर शाह लोदी द्वारा बनवाया गया था। 5 गुम्बदों वाले इस मक़बरें
के बीच में स्थित गुम्बद की ऊँअचाई सर्वाधिक है। इसके निर्माण में लाल पत्थर का प्रयोग हुआ है।
सिकन्दर
लोदी का मक़बरा
इब्राहीम लोदी द्वारा यह मक़बरा 1517 ई. में बनवाया गया। मक़बरे
में निर्मित गुम्बद के चारों तरफ़ आठ खम्भों की छतरी निर्मित है। यह मक़बरा एक ऐसी
बड़ी चहारदीवारी के प्रांगण में स्थित है, जिसके चारों
किनारे पर काफ़ी लम्बे बुर्ज है। इसकी छत पर दोहरे गुम्बद की व्यवस्था है। जॉन
मार्शल के अनुसार सम्भवतः इस शैली ने मुग़ल सम्राटों के विशाल उद्यान युक्त मक़बरे का पथ प्रदर्शन किया। मुग़ल शैली
को अपने विकास में इस मक़बरे से महत्त्वपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ।
मोठ की
मस्जिद
इस मस्जिद का निर्माण ‘सिकन्दर लोदी’ के वज़ीर मियाँ भुआ द्वारा करवाया
गया। मस्जिद की प्रशंसा में सर सैय्यद अहमद ने कहा कि, "यह लोदी स्थापत्य आकार में सुन्दर एवं एक उपहार कृति है। जॉन मार्शल के
अनुसार लोदियों की स्थापत्य कला में जो भी सबसे सुन्दर है, उसका
संक्षिप्त रूप मोठी मस्जिद में विद्यमान है।
सैय्यद एवं लोदी काल में
कुछ अन्य मक़बरों का भी निर्माण किया गया, जैसे- 'बड़ा ख़ाँ एवं छोटे ख़ाँ का मक़बरा', 'शीश गुम्बद',
'दादी का गुम्बद', 'पोली का गुम्बद' एवं 'ताज ख़ाँ का गुम्बद' आदि।
पर्सी ब्राउन ने इस युग को ‘मक़बरों के युग’ के नाम से सम्बोधित किया है। बड़े ख़ाँ और छोटे ख़ाँ के मक़बरे का निर्माण
सिकन्दर लोदी ने करवाया था।
सल्तनत काल
में चित्रकारी
मुस्लिम आक्रमण के पूर्व भारत में चित्रकारी का हिन्दू, बौद्ध एवं जैन चित्रकला के अन्तर्गत काफ़ी विकास हुआ था,
परन्तु अजन्ता चित्रकला के बाद भारतीय चित्रकला का क्रम अवरुद्ध हो गया। रूसी विद्वान
एफ. रोसेनवर्ग के अनुसार- “7वीं सदी से 16वीं सदी तक भारतीय चित्रकला का विकास अवरुद्ध था।” पर्सी
ब्राउन के अनुसार “650 ई. के बाद अकबर के शासन काल तक भारतवर्ष में चित्रकला का विकास न हो सका।” सामान्यतः सल्तनत काल को भारतीय चित्रकला के पतन का काल माना जाता है।
क़ुरान की दी गई व्यवस्था के अनुसार- 'किसी मनुष्य, पशु, पक्षी या फिर जीवधारी का चित्र बनाना पूर्णतः
प्रतिबन्धित था। सम्भवतः सल्तनत काल में चित्रकारी के विकास के अवरुद्ध होने का
यही कारण बना। फिर भी इस काल में चित्रकारी के कुछ प्रमाण मिले हैं। 19 वीं सदी के बाद के
वर्षों में सर्वप्रथम 'मुहम्मद अब्दुल्ला चग़ताई' ने यह विचार प्रस्तुत किया कि दिल्ली सल्तनत काल में चित्रकला का अस्तित्व था। 1947 ई.
में हरमन गोइट्ज ने ‘दी जनरल ऑफ़ दी इण्डियन सोसाइटी ऑफ़
ओरियण्टल आर्ट’ में अपना एक लेख छपवाकर यह विचार व्यक्त किया
कि, दिल्ली सल्तनत काल में चित्रकला का अस्तित्व था।
1353 ई. में मुहम्मद
तुग़लक़ के समय का एक ऐसा चित्र प्राप्त हुआ है, जिसमें एक संगीत गोष्ठी का चित्रण किया गया है तथा
स्त्रियाँ सुल्तान के समक्ष वीणा और सितार बजा रही हैं। उनमें से एक स्त्री शराब
का प्याला सुल्तान को पकड़ा रही है। सम्भवतः यह चित्रकार ‘शाहपुर’
द्वारा बनवाया गया था। इसके अतिरिक्त चित्रकारी के कुछ अवशेष
सल्तनतकालीन कुर्सी, मेज, अस्त्र-शस्त्र,
बर्तन, पताका, कढ़ाई के
वस्त्रों आदि पर दिखाई पड़ते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि, सल्तनतकालीन शासकों के हृदय में चित्रकला के प्रति घृणा की भावना नहीं थी।
फिर भी वे चित्रकारों को संरक्षण नहीं दे पाए।
सल्तनल काल
में संगीत
जब तुर्क भारत में आये तो वे अपने साथ ईरान एवं
मध्य एशिया के समृद्ध अरबी
संगीत परम्परा को भी लाए। उनके पास कई नये वाद्ययंत्र थे, जैसे
'रबाब', और 'सारंगी'। तुर्क अपने साथ 'सारंगी' जैसे
वाद्य को लाए, परन्तु यहाँ आकर उन्होंने 'सितार' और 'तबला' जैसे वाद्यों को भी अपनाया। दिल्ली सल्तनत के कुछ शासक, जैसे- बलबन, जलालुद्दीन ख़िलजी, अलाउद्दीन ख़िलजी एवं मुहम्मद
तुग़लक़ ने संगीत के प्रति रुचि होने के कारण राज दरबारों में संगीत सभाओं का
आयोजन करवाया। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ संगीत का विरोधी था। सिकन्दर लोदी शहनाई सुनने का शौक़ीन था। इस काल में सूफ़ी
सन्तों ने भी संगीत के विकास में योगदान किया। शेख़ मुइनुद्दीन चिश्ती के अनुसार- “संगीत आत्मा के लिए
पौष्टिक आहार है”। बलबन का पुत्र 'बुगरा
ख़ाँ' महान् संगीत प्रेमी था। बलबन का पौत्र कैकुबाद सर्वाधिक संगीत प्रेमी सुल्तान था।
बर्नी ने इसके बारे में लिखा है कि- ‘कैकूबाद ने संगीतकारों
एवं गजल गायकों को इतनी अधिक संख्या में संरक्षण प्रदान किया कि, राजधानी की गलियाँ तथा सड़कें इनसें भरी हुई थीं।
संगीत को
संरक्षण
बरनी ने इस समय के मशहूर संगीतकारों 'शाहचंगी', 'नुसरत
ख़ातून' एवं 'मेहर अफ़रोज का उल्लेख
किया है। अलाउद्दीन ख़िलजी के
दरबार में तत्कालीन महान् कवि एवं संगीतज्ञ अमीर ख़ुसरो को संरक्षण प्राप्त था। अमीर ख़ुसरो ने भारतीय एवं इस्लामी
संगीत शैली के समन्वय से अनेक यमन उसाक, मुआफिक, धनय, मुंजिर, फ़रगना जैसे राग-रागनियों
को जन्म दिया। उसने दक्षिण के महान् गायक 'गोपाल नायक'
को अपने दरबार में आमंत्रित किया था। इस काल में प्रचलित 'ख्याल गायकी' के अविष्कार का श्रेय जौनपुर के सुल्तान हुसैन शाह शर्की को दिया
जाता है। संगीत के क्षेत्र में उपलब्धि के कारण इसे ‘नायक’
की उपाधि प्राप्त हुई थी। मालवा का शासक बाज बहादुर संगीत में रुचि रखता था। कव्वाली गायन शैली का प्रचलन भी सल्तनत काल में ही प्रारम्भ हुआ। सल्तनत काल में
अनेक वाद्ययंत्र जैसे 'रबाब', 'सारंगी',
'सितार' तथा 'तबला'
का प्रचलन था।
अमीर
ख़ुसरो
अमीर ख़ुसरो को सितार और
तबले के अविष्कार का श्रेय दिया जाता था। मध्यकालीन संगीत परम्परा के आदि
संस्थापक अमीर ख़ुसरों थे। सर्वप्रथम उन्होंने भारतीय संगीत में कव्वाली गायन को
प्रचलित किया। अमीर ख़ुसरों को ‘तूतिये हिन्द’ अर्थात् 'भारत का तोता' आदि
नाम से भी जाना जाता था। इस समय दक्षिण भारत में संगीत पर आधारित कुछ महत्त्वपूर्ण
पुस्तकों की रचना हुई, जैसे-संगीत रत्नाकर, संगीत समयसार, संगीत शिरोमणि, संगीत
कौमुदी, संगीत नारायण आदि। सल्तनत काल में इल्तुतमिश व
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ द्वारा संगीत के विकास के क्षेत्र में कोई काम नहीं किया गया।
मुहम्मद बिन तुग़लक़ संगीत का बहुत बड़ा प्रेमी था। उसके बारे में कहा जाता है कि,
जब वह सिंहासन पर बैठा तो, जन-साधारण के लिए 21
दिनों तक संगीत गोष्ठी का प्रबन्ध किया जाता था।
सल्तनत
कालीन स्थापत्य कला
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इमारत
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शासक
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क़ुव्वत-उल-इस्लाम
मस्जिद
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कुतुबुद्दीन
ऐबक
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कुतुबमीनार
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कुतुबुद्दीन
ऐबक व इल्तुतमिश
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अढ़ाई
दिन का झोपड़ा
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कुतुबुद्दीन
ऐबक
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इल्तुतमिश
का मक़बरा
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इल्तुतमिश
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जामा
मस्जिद
|
इल्तुतमिश
|
अतारकिन
का दरवाज़ा
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इल्तुतमिश
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सुल्तानगढ़ी
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इल्तुतमिश
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लाल
महल
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बलबन
|
बलबन
का मक़बरा
|
बलबन
|
जमात
खाना मस्जिद
|
अलाउद्दीन
ख़िलजी
|
अलाई
दरवाज़ा
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अलाउद्दीन
ख़िलजी
|
हज़ार
सितून (स्तम्भ)
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अलाउद्दीन
ख़िलजी
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तुग़लक़ाबाद
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ग़यासुद्दीन
तुग़लक़
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ग़यासुद्दीन
तुग़लक़ का मक़बरा
|
ग़यासुद्दीन
तुग़लक़
|
आदिलाबाद
का मक़बरा
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मुहम्मद
बिन तुग़लक़
|
जहाँपनाह
नगर
|
मुहम्मद
बिन तुग़लक़
|
शेख़
निज़ामुद्दीन औलिया का मक़बरा
|
मुहम्मद
बिन तुग़लक़
|
फ़िरोज़शाह
तुग़लक़ का मक़बरा
|
मुहम्मद
बिन तुग़लक़
|
फ़िरोज़शाह
का मक़बरा
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जूनाशाह
ख़ानेजहाँ
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काली
मस्जिद
|
जूनाशाह
ख़ानेजहाँ
|
खिर्की
मस्जिद
|
जूनाशाह
ख़ानेजहाँ
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बहलोल
लोदी का मक़बरा
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लोदी
काल
|
सिकन्दर
शाह लोदी का मक़बरा
|
इब्राहीम
लोदी
|
मोठ
की मस्जिद
|
मियाँ
कुआ
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