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शुक्रवार, 9 मार्च 2018

शुंग वंश पुष्यमित्र शुंग अग्निमित्र वसुज्येष्ठ वसुमित्र अन्धक पुलिन्दक घोष शुंग वज्रमित्र देवभूति विजय अभियान कण्व वंश वासुदेव


शुंग वंश
शुंग वंश की स्थापना पुष्यमित्र शुंग द्वारा की गई। जो मौर्य वंश के अंतिम शासक वृहद्रय का ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र था। जिन्होने वृहद्रय को 185 ई. पूर्व में मार दिया और इस प्रकार मौर्य वंश का अंत हो गया। यह शुंग उज्जैन प्रदेश के निवासी थे।  एवं इन्होंने उज्जैन/ विदिशा को भी अपनी राजधानी बनाई। शुंग  राजवंश,  भारतीय  राजवंश था।
पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया था। पुष्यमित्र ने सिंहासन पर बैठकर मगध पर शुंग वंश के शासन का आरम्भ किया। शुंग वंश का शासन सम्भवतः ई. पू. 185 ई. पू. से 30 ई. पू तक दृढ़ बना रहा। पुष्यमित्र इस वंश का प्रथम शासक था, उसके पश्चात् उसका पुत्र अग्निमित्र, उसका पुत्र वसुमित्र राजा बना। वसुमित्र के पश्चात् जो शुंग सम्राट् हुए, उसमें कौत्सीपुत्र भागमद्र, भद्रघोष, भागवत और देवभूति के नाम उल्लेखनीय है। शुंग वंश का अंतिम सम्राट देवहूति था, उसके साथ ही शुंग साम्राज्य समाप्त हो गया था। शुग-वंश के शासक वैदिक धर्म के मानने वाले थे। इनके समय में भागवत धर्म की विशेष उन्नति हुई।
शुंग वंश भारत का एक शासकीय वंश था जिसने मौर्य राजवंश के बाद उत्तर भारत में शासन किया। मौर्य साम्राज्य के पतन के उपरान्त इसके मध्य भाग में सत्ता शुंग वंश के हाथ में आ गई। शुंग उज्जैन प्रदेश के थे, ये मौर्यों की सेवा में थे। इस नवोदित राज्य में मध्य गंगा की घाटी एवं चम्बल नदी तक का प्रदेश सम्मिलित था। पाटलिपुत्रअयोध्याविदिशा  आदि  इसके महत्त्वपूर्ण नगर थे। दिव्यावदान एवं तारनाथ के अनुसार जलंधर और साकल नगर भी इसमें सम्मिलित थे। पुष्यमित्र शुंग को यवन आक्रमणों का भी सामना करना पड़ा।
शुंग वंश के शासकों की सूची इस प्रकार है -
पुष्यमित्र शुंग (185-149  ईसा पूर्व)
पुष्यमित्र शुंग मौर्य वंश को पराजित करने वाला तथा शुंग वंश (लगभग 185 ई. पू.) का प्रवर्तक था। वह जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय था। मौर्य वंश के अन्तिम राजा बृहद्रथ ने उसे अपना सेनापति नियुक्त कर दिया था। बृहद्रथ की हत्या करके पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लिया। पुष्यमित्र शुंग ने 36 वर्षों तक राज्य किया था। क्योंकि मौर्य वंश के अंतिम राजा निर्बल थे और कई राज्य उनकी अधीनता से मुक्त हो चुके थे, ऐसे में पुष्यमित्र शुंग ने इन राज्यों को फिर से मगध की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। उसने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की और मगध साम्राज्य का फिर से विस्तार कर दिया।
 यह शुंग वंश का संस्थापक एवं महान शासक था जिसके काल में निम्न कार्य हुए-
इसने दो अश्वमेघ यज्ञ करवाए। एवं इन यज्ञ को पतंजलि ने संपन्न  करवाया जोकि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे।
पुष्यमित्र शुंग के काल में संस्कृत भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ। इस दौरान पतंजलि ने महाभाष्य की रचना की। तथा मनुस्मृति को अंतिम रूप भी इसी काल में दिया गया। इसके काल में ब्राह्मण धर्म और वैदिक संस्कृति का विकास हुआ। इसीलिए पुष्यमित्र शुंग का काल वैदिक पुनर्जागरण का काल कहलाता है।
पुष्यमित्र शुंग ने सांची एवं भरहुत के स्तूप का पुनर्निर्माण करवाया एवं सांची के महान स्तूप की काष्ट वेदिका के स्थान पर पाषाण वेदिका  का निर्माण करवाया। जबकि बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान में पुष्यमित्र को बौद्ध धर्म का कट्टर शत्रु माना है।  उसने अशोक द्वारा निर्मणित 84 हजार स्तूपों  को नष्ट करवा दिया।
उस समय एक आक्रमण में यवनों ने चित्तौड़ के निकट माध्यमिका नगरी और अवध में घेरा डाला, किन्तु पुष्यमित्र ने उन्हें पराजित किया।
बौद्ध रचनाएँ पुष्यमित्र के प्रति उदार नहीं हैं। वे उसे बौद्ध धर्म का उत्पीड़क बताती हैं और उनमें ऐसा वर्णन है कि पुष्यमित्र ने बौद्ध विहारों का विनाश करवाया और बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करवाई। सम्भव है कुछ बौद्धों ने पुष्यमित्र का विरोध किया हो और राजनीतिक कारणों से पुष्यमित्र ने उनके साथ सख्ती का वर्णन किया हो। यद्यपि शुंगवंशीय राजा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, फिर भी उनके राज्य में भरहुत स्तूप का निर्माण और साँची स्तूप की वेदिकाएँ (रेलिंग) बनवाई गईं।
पुष्यमित्र शुंग ने लगभग 36 वर्ष तक राज्य किया। उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों ने 75 ईसा पूर्व तक राज्य किया। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि शुंगों का राज्य संकुचित होकर मगध की सीमाओं तक ही रह गया। उनके उत्तराधिकारि (काण्व) भी ब्राह्मण वंश के थे।


अग्निमित्र (149 - 141 ई.पू.)
वसुज्येष्ठ (141 - 131 ई.पू.)
वसुमित्र (131 - 124 ई.पू.)
अन्धक (124 - 122 ई.पू.)
पुलिन्दक (122 - 119 ई.पू.)
घोष शुंग
वज्रमित्र
भगभद्र
देवभूति (83 - 73 ई.पू.)


विजय अभियान
पुष्यमित्र का शासनकाल पूरी तरह से चुनौतियों से भरा हुआ था। उस समय भारत पर कई विदेशी आक्रान्ताओं ने आक्रमण किये, जिनका सामना पुष्यमित्र शुंग को करना पड़ा। पुष्यमित्र के राजा बन जाने पर मगध साम्राज्य को बहुत बल मिला था। जो राज्य मगध की अधीनता त्याग चुके थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया था। अपने विजय अभियानों से उसने मगध की सीमा का बहुत विस्तार किया।
विदर्भ की विजय
निर्बल मौर्य राजाओं के शासनकाल में जो अनेक प्रदेश साम्राज्य की अधीनता से स्वतंत्र हो गए थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया। उस समय 'विदर्भ' (बरार) का शासक यज्ञसेन था। सम्भवतः वह मौर्यों की ओर से विदर्भ के शासक-पद पर नियुक्त हुआ था, पर मगध साम्राज्य की निर्बलता से लाभ उठाकर इस समय स्वतंत्र हो गया था। पुष्यमित्र के आदेश से अग्निमित्र ने उस पर आक्रमण किया, और उसे परास्त कर विदर्भ को फिर से मगध साम्राज्य के अधीन कर लिया। कालिदास के प्रसिद्ध नाटक 'मालविकाग्निमित्र' में यज्ञसेन की चचेरी बहन मालविका और अग्निमित्र के स्नेह की कथा के साथ-साथ विदर्भ विजय का वृत्तान्त भी उल्लिखित है।
खारवेल से युद्ध
मौर्यवंश की निर्बलता से लाभ उठाकर कलिंग देश (उड़ीसा) भी स्वतंत्र हो गया था। उसका राजा खारवेल बड़ा प्रतापी और महत्वाकांक्षी था। उसने दूर-दूर तक आक्रमण कर कलिंग की शक्ति का विस्तार किया। खारवेल के हाथीगुम्फ़ा शिलालेख के द्वारा ज्ञात होता है, कि उसने मगध पर भी आक्रमण किया था। मगध के जिस राजा पर आक्रमण कर खारवेल ने उसे परास्त किया, हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में उसका जो नाम दिया गया है, अनेक विद्वानों ने उसे 'बहसतिमित्र' (बृहस्पतिमित्र) पढ़ा है। बृहस्पति और पुष्य पर्यायवाची शब्द हैं, अतः जायसवालजी ने यह परिणाम निकाला था, कि खारवेल ने मगध पर आक्रमण करके पुष्यमित्र को ही परास्त किया था। पर अनेक ऐतिहासिक जायसवालजी के इस विचार से सहमत नहीं हैं। उनका विचार है कि खारवेल ने मगध के जिस राजा पर आक्रमण किया था, वह मौर्य वंश का ही कोई राजा था। उसका नाम बहसतिमित्र था, यह भी संदिग्ध है। हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में यह अंश अस्पष्ट है, और इसे बहसतिमित्र पढ़ सकना भी निर्विवाद नहीं है। सम्भवतः खारवेल का मगध पर आक्रमण मौर्य शालिशुक या उसके किसी उत्तराधिकारी के शासनकाल में ही हुआ था।

यवन आक्रमण
मौर्य सम्राटों की निर्बलता से लाभ उठाकर यवनों ने भारत पर आक्रमण शुरू कर दिए थे। पुष्यमित्र के शासनकाल में उन्होंने फिर भारत पर आक्रमण किया। यवनों का यह आक्रमण सम्भवतः डेमेट्रियस (दिमित्र) के नेतृत्व में हुआ था। प्रसिद्ध व्याकरणविद पतञ्जलि ने, जो पुष्यमित्र के समकालीन थे, इस आक्रमण का 'अरुणत् यवनः साकेतम्, अरुणत् यवनः माध्यमिकाम्' (यवन ने साकेत पर हमला किया, यवन ने माध्यमिका पर हमला किया) लिख कर निर्देश किया है। 'अरुणत्' प्रयोग अनद्यतन भूतकाल को सूचित करता है। यह प्रयोग उस दशा में होता है, जब कि किसी ऐसी भूतकालिक घटना का कथन करना हो, जो प्रयोक्ता के अपने जीवनकाल में घटी हो। अतः यह स्पष्ट है, कि पतञ्जलि और पुष्यमित्र के समय में भी भारत पर यवनों का आक्रमण हुआ था, और इस बार यवन सेनाएँ साकेत और माध्यमिका तक चली आई थीं।

यवनों की पराजय
मालविकाग्निमित्र के अनुसार भी पुष्यमित्र के यवनों के साथ युद्ध हुए थे, और उसके पोते वसुमित्र ने सिन्धु नदी के तट पर यवनों को परास्त किया था। जिस सिन्धु नदी के तट पर शुंग सेना द्वारा यवनों की पराजय हुई थी, वह कौन-सी है, इस विषय पर भी इतिहासकारों में मतभेद है। श्री वी. ए. स्मिथ ने यह प्रतिपादन किया था, कि मालविकाग्निमित्र की सिन्धु नदी राजपूताने की सिन्ध या काली सिन्ध नदी है, और उसी के दक्षिण तट पर वसुमित्र का यवनों के साथ युद्ध हुआ था। पर अब बहुसंख्यक इतिहासकारों का यही विचार है, कि सिन्धु से पंजाब की प्रसिद्ध सिन्ध नदी का ही ग्रहण करना चाहिए। पर यह निर्विवाद है, कि यवनों को परास्त कर मगध साम्राज्य की शक्ति को क़ायम रखने में पुष्यमित्र शुंग को असाधारण सफलता मिली थी।


अश्वमेध यज्ञ
अयोध्या में पुष्यमित्र का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें उसे 'द्विरश्वमेधयाजी' कहा गया है। इससे सूचित होता है, कि पुष्यमित्र ने दो बार अश्वमेध यज्ञ किए थे। अहिंसा-प्रधान बौद्ध और जैन धर्मों के उत्कर्ष के कारण इस यज्ञ की परिपाटी भारत में विलुप्त हो गई थी। अब पुष्यमित्र ने इसे पुनरुज्जीवित किया। सम्भवतः पतञ्जलि मुनि इन यज्ञों में पुष्यमित्र के पुरोहित थे। इसलिए उन्होंने 'महाभाष्य' में लिखा है-'इह पुष्यमित्रं याजयामः' (हम यहाँ पुष्यमित्र का यज्ञ करा रहे हैं)। अश्वमेध के लिए जो घोड़ा छोड़ा गया, उसकी रक्षा का कार्य वसुमित्र के सुपुर्द किया गया था। सिन्धु नदी के तट पर यवनों ने इस घोड़े को पकड़ लिया और वसुमित्र ने उन्हें परास्त कर इसे उनसे छुड़वाया। किन विजयों के उपलक्ष्य में पुष्यमित्र ने दो बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है।
वैदिक धर्म का पुनरुत्थान
शुंग सम्राट प्राचीन वैदिक धर्म के अनुयायी थे। उनके समय में बौद्ध और जैन धर्मों का ह्रास होकर वैदिक धर्म का पुनरुत्थान प्रारम्भ हुआ। 'दिव्यावदान' के अनुसार पुष्यमित्र बौद्धों से द्वेष करता था, और उसने बहुत-से स्तूपोंका ध्वंस करवाया था, और बहुत-से बौद्ध-श्रमणों की हत्या करायी थी। दिव्यावदान में तो यहाँ तक लिखा है, कि साकल (सियालकोट) में जाकर उसने घोषणा की थी, कि कोई किसी श्रमण का सिर लाकर देगा, तो उसे मैं सौ दीनार पारितोषिक दूँगा। सम्भव है, बौद्ध ग्रंथ के इस कथन में अत्युक्ति हो, पर इसमें सन्देह नहीं कि पुष्यमित्र के समय में यज्ञप्रधान वैदिक धर्म का पुनरुत्थान शुरू हो गया था। उस द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञ ही इसके प्रमाण हैं।

अग्निमित्र (149-141 ई. पू.) शुंग वंश का दूसरा सम्राट था। वह शुंग वंश के संस्थापक पुष्यमित्र शुंग का पुत्र था। पुष्यमित्र के पश्चात् 149 ई. पू. में अग्निमित्र शुंग राजसिंहासन पर बैठा। पुष्यमित्र के राजत्वकाल में ही वह विदिशा का 'गोप्ता' बनाया गया था और वहाँ के शासन का सारा कार्य यहीं से देखता था।

ऐतिहासिक तथ्य

अग्निमित्र के विषय में जो कुछ ऐतिहासिक तथ्य सामने आये हैं, उनका आधार पुराण तथा कालीदास की सुप्रसिद्ध रचना 'मालविकाग्निमित्र' और उत्तरी पंचाल (रुहेलखंड) तथा उत्तर कौशल आदि से प्राप्त मुद्राएँ हैं। 'मालविकाग्निमित्र' से पता चलता है किविदर्भ की राजकुमारी 'मालविका' से अग्निमित्र ने विवाह किया था। यह उसकी तीसरी पत्नी थी। उसकी पहली दो पत्नियाँ 'धारिणी' और 'इरावती' थीं। इस नाटक से यवन शासकों के साथ एक युद्ध का भी पता चलता है, जिसका नायकत्व अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने किया था।

राज्यकाल

पुराणों में अग्निमित्र का राज्यकाल आठ वर्ष दिया हुआ है। यह सम्राट साहित्यप्रेमी एवं कलाविलासी था। अग्निमित्र ने विदिशा को अपनी राजधानी बनाया था। जिन मुद्राओं में अग्निमित्र का उल्लेख हुआ है, वे प्रारम्भ में केवल उत्तरी पंचाल में पाई गई थीं। जिससे रैप्सन और कनिंघम आदि विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि, वे मुद्राएँ शुंग कालीन किसी सामन्त नरेश की होंगी, परन्तु उत्तर कौशल में भी काफ़ी मात्रा में इन मुद्राओं की प्राप्ति ने यह सिद्ध कर दिया है कि, ये मुद्राएँ वस्तुत: अग्निमित्र की ही हैं।

देवभूति
मगध के शुंग वंश (लगभग 185 ई. पू से 30 ई. पू.) का अन्तिम राजा था। उसके ब्राह्मण  मंत्री वासुदेव ने लगभग 30 ई. पू. में उसे मारकर कण्व वंश का शासन स्थापित किया।

कण्व वंश-
अंतिम  शुंग शासक  देवभूति था। उसके मंत्री वासुदेव ने उसकी हत्या कर कण्व वंश की स्थापना की। कण्व वंश का अंतिम शासक सुशर्मा था।

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