कुषाण वंश
मौर्योत्तर काल में भारत आने
वाले अंतिम विदेशी आक्रमणकारी कुषाण थे।
कुषाण चीन की यू ची जाति/ कबीले से
संबंधित थे।
कुषाणों
के निम्न शासक थे।
कुजुल कदफिसिस- 100- 90 ईसा पूर्व
कुजुल कदफिसिस (Kujula
Kadphises) कुषाण वंश का पहला शासक
था जिसने प्रथम शताब्दी में यूची प्रदेश वासियों को एकीक्रत किया और साम्राज्य को
बढ़ाया। यह भारत में कुषाण वंश का संस्थापक था। जिसने तांबे के सिक्के चलाए। मथुरा
में इस शासक के तांबे के कुछ सिक्के प्राप्त हुए है । कुजुल कदफिसिस के बाद
इसका पुत्र विम तक्षम, विम
तक्षम के बाद उसका पुत्र विम कदफिसिस, विम कदफिसिस के बाद उसका पुत्र कनिष्क गद्दी पर बैठे।
विम तक्षम
विम
बड़ा शक्तिशाली शासक था। अपने पिता कुजुल के द्वारा विजित राज्य के अतिरिक्त विम
ने पूर्वी उत्तर प्रदेश तक अपने राज्य की सीमा स्थापित कर
ली। विम ने राज्य की पूर्वी सीमा बनारस तक बढा ली। इस विस्तृत राज्य का प्रमुख केन्द्र मथुरा नगर बना। विम के
बनाये सिक्के बनारस से लेकर पंजाब तक बहुत बड़ी मात्रा में मिले है।
विम तक्षम कुषाण साम्राज्य का शक्तिशाली शासक था। विम तक्षम द्वारा जारी सिक्कों पर एक ओर राजा की
तथा दूसरी ओर भगवान शिव की
मूर्ति अंकित है, जिससे यह ज्ञात होता है कि वह शिव का भक्त था। उसके सिक्के बनारस से लेकर पंजाब तक प्राप्त हुए हैं
विम कदफिसिस - 95 ई. से 127 ई
यह भारत में कुषाण वंश का वास्तविक संस्थापक था जिसने पहली
बार षाही माहाषाही नू षाही की उपाधि धारण
की। तथा भारत में कुषाण की तरफ से सोने और
तांबे के सिक्के चलाए। जिन पर एक ओर यूनानी एवं खरोष्ठी लिपि में राजा का चित्र, तथा दूसरी ओर भारतीय देवी
देवताओं शिव, नंदी, त्रिशूल इत्यादि के
चित्र मिलते हैं। यह कुषाण का वास्तविक संस्थापक था।
कनिष्क - 78 ई. से 105 ई. तक
कुषाण
वंश का प्रमुख सम्राट कनिष्क भारतीय इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने
के नाते विशेष स्थान रखता है। यूची क़बीले से निकली
यूची जाति ने भारत में कुषाण वंश की स्थापना की और भारत को कनिष्क
जैसा महान् शासक दिया। भारतविजय के पश्चात् मध्य एशिया में खोतान जीता और वहीं पर राज्य
करने लगा। इसके लेख पेशावर, माणिक्याल (रावलपिंडी), सुयीविहार (बहावलपुर), जेदा (रावलपिंडी), मथुरा, कौशांबी तथा सारनाथ में मिले हैं, और
इसके सिक्के सिंध से लेकर बंगाल तक पाए गए हैं। कल्हण ने भी अपनी 'राजतरंगिणी' में कनिष्क द्वारा कश्मीर पर राज्य तथा वहाँ अपने नाम पर नगर
बसाने का उल्लेख किया है। इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट कनिष्क का
राज्य कश्मीर से उत्तरी सिंध तथा पेशावर से सारनाथ के आगे तक फैला था।
कनिष्क
कुषाण वंश का महान शासक था। जिसकी उपलब्धियां निम्न थी-
1.
कनिष्क ने 78 इसमें शक संवत का प्रचलन किया78। क्योंकि यह उसके राज्यारोहण की तिथि थी। शक संवत 22 मार्च को
प्रारंभ होता है।
2. कनिष्क के शासनकाल में भारत में पहली बार एक
अंतरराष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना हुई।
जिसने चीन के क्षेत्रों को मिलाया गया।
3. कनिष्क के काल में कश्मीर के कुंडल वन में
चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ, जिसका अध्यक्ष
वसुमित्र तथा उपाध्यक्ष अश्वघोष को बनाया गया।
4. कनिष्क के द्वारा पहली बार चीन से रोम जाने
वाले सिल्क रेशम मार्ग पर अधिकार कर लिया गया।
5. कनिष्क ने अपने विद्वानों को आश्रय दिया। उसके
दरबार में पार्श्व,
वसुमित्र, अश्वघोष , नागार्जुन
वह प्रसिद्ध चिकित्सक चरक निवास करते थे।
पार्श्व- कनिष्का
राजगुरु/ राजकवि।
अश्वघोष- इसने बुद्ध चरित्र एवं सौंदरानंद ग्रंथों की
रचना की।
नागार्जुन- तर्कशास्त्र का विद्वान, प्रज्ञापरमित्रासूत्र की रचना।
शून्यवाद का प्रवर्तक।
चरक- कनिष्का राजवैद्य।
कनिष्क की दो
राजधानियां थी। प्रथम राजधानी पुरुषपुर ( पेशावर) तथा दूसरी राजधानी
मथुरा थी।
कनिष्क के काल में मूर्ति कला के क्षेत्र में दो
नवीन शैलियों का विकास हुआ 1. गांधार
शैली 2. मथुरा शैली
A. गांधार शैली-
1.
इसका मुख्य केंद्र गांधार था और इस पर भारतीय एवं यूनानी शैली का प्रभाव था जिसके
विषय तो भारतीय थे लेकिन निर्माण का ढंग यूनानी था। इसे इंडो ग्रीक शैली भी कहा
जाता है।
2. इसमें मूर्ति का निर्माण काले सलेटी पत्थरों से किया गया।
3. इस शैली में भौतिकवादिता पर अधिक बल दिया गया।
तथा महात्मा बुद्ध की मूर्ति यूनानी देवता अपोलो की अनुकृति बनाई गई।
4. इसमें महात्मा बुद्ध की सर्वाधिक मूर्तियों का
निर्माण किया गया।
B. मथुरा शैली-
1. यह विशुद्ध भारतीय शैली थी। जिसमें विषय ओर
अलंकरण दोनों ही भारतीय थे।
2. इसमें मूर्तियों का निर्माण लाल बलुआ पत्थरों
से किया गया।
3. महात्मा बुद्ध की सरल और सादा मूर्तियों का
निर्माण किया गया।
4. इस शैली में हिंदू बौद्ध जैन धर्म की मूर्तियों
का निर्माण किया गया। मथुरा शैली में बनाई गई।
नोट-
चरक-
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पितामह। इन्हें काय चिकित्सा का प्रणेता माना जाता है।
आयुर्वेद
का प्राचीनतम ग्रंथ चरक संहिता है।
कुषाणों ने प्रांतों में द्वैध शासन
प्रारंभ किया।
इतिहास
कनिष्क
के बहुत से सिक्के उपलब्ध हैं, और ऐसे अनेक उत्कीर्ण लेख भी
मिले हैं, जिनका कनिष्क के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। इसके
अतिरिक्त बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। बौद्ध धर्म में उसका स्थान अशोक से कुछ ही कम है। जिस प्रकार अशोक के
संरक्षण में बौद्ध धर्म की बहुत उन्नति हुई, वैसे ही कनिष्क
के समय में भी हुई।
राज्यारोहण
राबाटक शिलालेख के अनुसार यह कुषाण वंश का चौथा शासक था।
कनिष्क कुषाण वंश का महानतम शासक था। उसके ही कारण कुषाण वंश का भारत के सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण
स्थान है। इसने शक संवत, जो 78 ई. में
आरम्भ हुआ माना जाता है, प्रारम्भ किया जो कनिष्क के
राज्यारोहण की तिथि है। कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण
साम्राज्य में अफ़ग़ानिस्तान, सिंध का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के प्रदेश सम्मिलित थे। कनिष्क ने भारत में अपना राज्य मगध तक विस्तृत कर दिया। कश्मीर को अपने राज्य में मिलाकर उसने वहाँ एक नगर बसाया जिसे
'कनिष्कपुर' कहते हैं। कनिष्क का सबसे प्रसिद्ध युद्ध चीन के शासक के साथ हुआ था, जहाँ एक
बार पराजित होकर वह दुबारा विजयी हुआ। कनिष्क ने मध्य
एशिया में काशगर, यारकंद,
ख़ोतान, आदि प्रदेशों पर भी अपना आधिपत्य
स्थापित किया। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य के पश्चात् पहली बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना
हुई, जिसमें गंगा, सिंधु और आक्सस की घाटियाँ सम्मिलित थीं।
राज्य
विस्तार
कनिष्क ने कुषाण वंश की शक्ति का पुनरुद्धार किया। सातवाहन राजा कुन्तल
सातकर्णि के प्रयत्न से कुषाणों की शक्ति क्षीण हो गई
थी। अब कनिष्क के नेतृत्व में कुषाण राज्य का पुनः उत्कर्ष हुआ। उसने
उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम चारों दिशाओं में अपने राज्य का विस्तार किया।
सातवाहनों को परास्त करके उसने न केवल पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित किया, अपितु भारत के मध्यदेश को जीतकर मगध से भी सातवाहन
वंश के शासन का अन्त किया। कुमारलात नामक एक बौद्ध
पंडित ने कल्पना मंडीतिका नाम की एक पुस्तक लिखी थी, जिसका चीनी अनुवाद इस समय
भी उपलब्ध है। इस पुस्तक में कनिष्क के द्वारा की गई पूर्वी भारत की विजय का
उल्लेख है। श्रीधर्मपिटक निदान सूत्र नामक एक अन्य बौद्ध ग्रंथ में लिखा है, कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र को जीतकर उसे अपने अधीन किया और वहाँ से प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् अश्वघोष और भगवान बुद्ध के कमण्डलु को प्राप्त किया। तिब्बत की बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क के साकेत (अयोध्या) विजय का उल्लेख है। इस प्रकार साहित्यिक
आधार पर यह बात ज्ञात होती है कि कनिष्क एक महान् विजेता था, और उसने उत्तरी भारत के बड़े भाग को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। सातवाहन वंश का शासन जो पाटलिपुत्र से उठ गया,
वह कनिष्क की विजयों का ही परिणाम था।
बौद्ध अनुश्रुति की यह बात कनिष्क
के सिक्कों और उत्कीर्ण लेखों द्वारा भी पुष्ट होती है। कनिष्क के सिक्के उत्तरी
भारत में दूर-दूर तक उपलब्ध हुए हैं। पूर्व में रांची तक से उसके सिक्के मिले हैं। इसी प्रकार उसके लेख पश्चिम में पेशावर से लेकर पूर्व में मथुरा और सारनाथ तक प्राप्त हुए हैं। उसके राज्य के विस्तार के विषय में ये पुष्ट प्रमाण
हैं। सारनाथ में कनिष्क का जो शिलालेख मिला है, उसमें महाक्षत्रप ख़रपल्लान और क्षत्रप विनस्पर के नाम आए हैं। पुराणों में सातवाहन या आन्ध्र वंश के बाद मगध का शासक वनस्पर को ही लिखा गया है। यह वनस्पर कनिष्क द्वारा नियुक्त मगध
का क्षत्रप था। महाक्षत्रप ख़रपल्लान की नियुक्ति मथुरा के प्रदेश पर शासन करने के लिए की गई थी।
उत्तरी भारत की यह विजय कनिष्क केवल
अपनी शक्ति द्वारा नहीं कर सका था। तिब्बति अनुश्रुति के अनुसार ख़ोतन के राजा
विजयसिंह के पुत्र विजयकीर्ति ने 'गुज़ान' राजा तथा राजा 'कनिष्क' के साथ
मिलकर भारत पर आक्रमण किया था, और सोकेत (साकेत) नगर जीत
लिया था। 'गुज़ान' का अभिप्राय कुषाण
से है, और कनिक का कनिष्क से। सातवाहन वंश की शक्ति को नष्ट
करने के लिए कनिष्क को सुदूरवर्ती ख़ोतन राज्य के राजा से भी सहायता लेनी पड़ी थी।
यह बात सातवाहन साम्राज्य की
शक्ति को सूचित करती है।
पुरुषपुर
पाटलिपुत्र को जीतकर कनिष्क ने उसे अपने अधीन कर लिया था। अपने प्राचीन गौरव के कारण
इसी नगरी को कनिष्क के साम्राज्य की राजधानी होना चाहिए था। पर कनिष्क का
साम्राज्य बहुत विस्तृत था। उसकी उत्तरी सीमा चीन के साथ छूती थी। चीन की सीमा तक विस्तृत विशाल कुषाण साम्राज्य के लिए
पाटलिपुत्र नगरी उपयुक्त राजधानी नहीं हो सकती थी। अतः कनिष्क ने एक नए कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) की स्थापना की, और उसे पुरुषपुर नाम दिया। यही आजकल का पेशावर है।
नोट- कनिष्क की दो राजधानीय थी 1
पुरुषपुर 2 मथुरा।
पुरुषपुर में कनिष्क ने बहुत सी नई
इमारतें बनवाईं। इनमें प्रमुख एक स्तूप था, जो चार सौ फीट ऊँचा था। इसमें तेरह मंज़िलें
थीं। जब प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू-एन-त्सांग महाराज हर्षवर्धन के
शासन काल (सातवीं सदी) में भारत भ्रमण करने के लिए आया था, तो
कनिष्क द्वारा निर्मित इस विशाल स्तूप को देखकर आश्चर्यचकित रह गया था। कुसुमपुर
(पाटलिपुत्र) के मुक़ाबले में कनिष्क ने पुरुषपुर को विद्या, धर्म और संस्कृति का केन्द्र बनाया। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ समय के लिए पुरुषपुर
के सम्मुख प्राचीन कुसुमपुर का वैभव मन्द पड़ गया था।
चीन
से संघर्ष
कनिष्क केवल उत्तरी भारत की विजय से
ही संतुष्ट नहीं हुआ,
उसने मध्य एशिया के क्षेत्र में भी अपनी शक्ति के विस्तार का प्रयत्न किया। मध्य एशिया के
ख़ोतन राज्य की सहायता से कनिष्क उत्तरी भारत की विजय कर सका था। इस युग में चीन
के सम्राट इस बात के लिए प्रयत्नशील थे, कि अपने साम्राज्य
का विस्तार करें। चीन के सुप्रसिद्ध सेनापति पान-चाऊ ने 73-78 ई. के लगभग साम्राज्य विस्तार के लिए दिग्विजय प्रारम्भ की, और मध्य एशिया पर अपना अधिकार कर लिया। पान-चाऊ की विजयों के कारण चीनी
साम्राज्य की पश्चिमी सीमा कैस्पियन सागर तक जा पहुँची। इस दशा में यह स्वाभाविक था कि कुषाण राज्य भी चीन के निकट
सम्पर्क में आए। पान-चाऊ की इच्छा थी, कि कुषाणों के साथ
मैत्री सम्बन्ध स्थापित करे। इसलिए उसने विविध बहुमूल्य उपहारों के साथ अपने
राजदूत कुषाण राजा के पास भेजे। कुषाण राजा ने इन दूतों का यथोचित स्वागत किया,
पर चीन के साथ अपनी मैत्री को स्थिर रखने के लिए यह इच्छा प्रगट की
कि चीनी सम्राट अपनी कन्या का विवाह उसके साथ कर दें। कुषाण राजा की इस माँग को
पान-चाऊ ने अपने सम्राट के सम्मान के विरुद्ध समझा। परिणाम यह हुआ कि दोनों पक्षों
में युद्ध प्रारम्भ हो गया और कुषाणों ने एक बड़ी सेना पान-चाऊ के विरुद्ध लड़ाई
के लिए भेजी। पर इस युद्ध में यूची (युइशि) सेना की पराजय हुई।
पर कुषाण राजा इस पराजय से निराश
नहीं हुआ। चीनी सेनापति पान-चाऊ की मृत्यु के बाद कनिष्क ने अपनी पहली पराजय का
प्रतिशोध करने के लिए एक बार फिर चीन पर आक्रमण किया। इस बार वह सफल रहा और मध्य
एशिया के अनेक प्रदेशों पर उसका आधिपत्य स्थापित हो गया। ख़ोतान और यारकन्द के
प्रदेश इसी युद्ध में विजय होने के कारण कुषाणों के साम्राज्य में सम्मिलित हुए।
क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों की नियुक्ति
इतने विस्तृत साम्राज्य के शासन के
लिए सम्राट् ने क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों की नियुक्ति की जिनका उल्लेख उसके
लेखों में है। स्थानीय शासन संबंधी 'ग्रामिक' तथा 'ग्राम कूट्टक' और 'ग्रामवृद्ध पुरुष' और 'सेना
संबंधी', 'दंडनायक' तथा 'महादंडनायक' इत्यादि अधिकारियों का भी उसके लेखों
में उल्लेख है।
कनिष्क
और बौद्ध धर्म
किंवदंतियों के अनुसार कनिष्क पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर अश्वघोष नामक कवि तथा बौद्ध दार्शनिक को अपने साथ ले गया था और उसी
के प्रभाव में आकर सम्राट की बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्ति हुई । इसके समय में
कश्मीर में कुण्डलवन विहार
अथवा जालंधर में चतुर्थ
बौद्ध संगीति प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुमित्र की अध्यक्षता में हुई । हुएनसांग के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500
बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुन- संकलन संस्करण हुआ । इसके समय से बौद्ध ग्रंथों के लिए संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ और महायान बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ ।
कुछ विद्वानों के मतानुसार गांधार कला का स्वर्णयुग भी इसी समय था, पर अन्य विद्वानों
के अनुसार इस सम्राट के समय उपर्युक्त कला उतार पर थी । स्वयं बौद्ध होते हुए भी
सम्राट के धार्मिक दृष्टिकोण में उदारता का पर्याप्त समावेश था और उसने अपनी
मुद्राओं पर यूनानी, ईरानी,
हिन्दू और बौद्ध देवी देवताओं की मूर्तियाँ अंकित करवाई, जिससे उसके धार्मिक विचारों का पता चलता है । 'एकंसद्
विप्रा बहुधा वदंति' की वैदिक भावना को उसने क्रियात्मक
स्वरूप दिया। कनिष्क के बहुत से सिक्के वर्तमान समय में उपलब्ध होते हैं। इन पर
यवन (ग्रीक), जरथुस्त्री (ईरानी) और भारतीय सभी तरह के
देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ अंकित हैं। ईरान के अग्नि (आतश), चन्द्र
(माह) और सूर्य (मिहिर), ग्रीक देवता हेलिय, प्राचीन एलम की देवी नाना, भारत के शिव, स्कन्द वायु और बुद्ध - ये सब देवता उसके सिक्कों पर नाम या
चित्र के द्वारा विद्यमान हैं। इससे यह सूचित है, कि कनिष्क
सब धर्मों का समान आदर करता था, और सबके देवी-देवताओं को
सम्मान की दृष्टि से देखता था। इसका यह कारण भी हो सकता है, कि
कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों के अनुयायी विभिन्न लोगों का निवास था,
और उसने अपनी प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सब धर्मों के देवताओं को
अपने सिक्कों पर अंकित कराया था। पर इस बात में कोई सन्देह नहीं कि कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी था, और बौद्ध इतिहास में उसका नाम अशोक के समान ही महत्त्व रखता है। आचार्य अश्वघोष ने उसे बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। इस आचार्य को वह पाटलिपुत्र से
अपने साथ लाया था, और इसी से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली
थी।
सूर्य
उपासक सम्राट 'कनिष्क'
भारत में ‘शक संवत’ (78 ई.) का प्रारम्भ करने वाले कुषाण
सम्राट कनिष्ट की गणना भारत ही नहीं एशिया के महानतम शासकों में की जाती है। इसका साम्राज्य मध्य एशिया के आधुनिक उज़्बेकिस्तान तजाकिस्तान, चीन के आधुनिक सिक्यांग एवं कांसू प्रान्त से
लेकर अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और समस्त उत्तर भारत में बिहार एवं उड़ीसा तक फैला था। कनिष्क ने देवपुत्र शाहने
शाही की उपाधि धारण की थी। भारत आने से पहले कुषाण ‘बैक्ट्रिया’ में शासन करते थे, जो कि उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान एवं
दक्षिणी उज़्बेकिस्तान एवं दक्षिणी तजाकिस्तान में स्थित था और यूनानी एवं ईरानी
संस्कृति का एक केन्द्र था। कुषाण हिन्द-ईरानी समूह की भाषा बोलते थे और वे मुख्य
रूप से मिहिर (सूर्य) के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है,
वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से
आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है।
कनिष्क के सिक्के
कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपने सिक्कों पर, यूनानी भाषा और लिपि में मीरों (मिहिर) को अंकित कराया था, जो इस बात का प्रतीक है कि ईरान का सौर सम्प्रदाय भारत में प्रवेश कर गया था। ईरान में मिथ्र या मिहिर
पूजा अत्यन्त लोकप्रिय थी। भारत में सिक्कों पर सूर्य का अंकन किसी शासक द्वारा
पहली बार हुआ था। सम्राट कनिष्क के सिक्के में सूर्यदेव बायीं और खड़े हैं। बांए हाथ में दण्ड है जो रश्ना सें बंधा है। कमर के
चारों ओर तलवार लटकी है। सूर्य ईरानी राजसी वेशभूषा में है। पेशावर के पास शाह जी की ढेरी नामक स्थान पर
कनिष्क द्वारा निमित एक बौद्ध स्तूप के अवशेषों से एक बक्सा प्राप्त हुआ जिसे ‘कनिष्कास कास्केट’
कहते हैं, इस पर सम्राट कनिष्क के साथ सूर्य
एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है। इस ‘कास्केट’ पर कनिष्क के संवत का प्रथम वर्ष अंकित है।
कनिष्क के अब तक प्राप्त सिक्के यूनानी एवं
ईरानी भाषा में मिले हैं। कनिष्क के तांबे के सिक्कों पर उसे 'बलिवेदी' पर
बलिदान करते हुए दर्शाया गया है। कनिष्क के सोने के सिक्के रोम के सिक्कों से काफ़ी कुछ मिलते थे।
मथुरा संग्रहालय
मथुरा के संग्रहालय में लाल पत्थर की अनेक सूर्य
प्रतिमांए रखी है, जो कुषाण काल (पहली से तीसरी शताब्बी ईसवीं) की है। इनमें भगवान सूर्य को चार घोड़ों के
रथ में बैठे दिखाया गया है। वे कुर्सी पर बैठने की मुद्रा में पैर लटकाये हुये है।
उनके दोनों हाथों में कमल की
एक-एक कली है और उनके दोनों कन्धों पर सूर्य-पक्षी गरुड़ जैसे दो छीटे-2 पंख लगे हुए हैं। उनका शरीर ‘औदिच्यवेश’ अर्थात् ईरानी ढंग की पगड़ी, कामदानी के चोगें (लम्बा कोट) और सलवार से ढका है और वे ऊंचे ईरानी जूते
पहने हैं। उनकी वेशभूषा बहुत कुछ, मथुरा से ही प्राप्त,
सम्राट कनिष्क की सिरविहीन प्रतिमा जैसी है। भारत में ये सूर्य की
सबसे प्राचीन मूर्तियां है। कुषाणों से पहली सूर्य की कोई प्रतिमा नहीं मिली है,
भारत में उन्होंने ही सूर्य प्रतिमा की उपासना का चलन आरम्भ किया और
उन्होंने ही सूर्य की वेशभूषा भी वैसी दी थी जैसी वो स्वयं धारण करते थे।
प्रथम सूर्य मंदिर
भारत में प्रथम सूर्य मन्दिर की स्थापना मुल्तान में हुई थी जिसे कुषाणों ने बसाया था। पुरातत्वेत्ता कनिंघम का मानना है कि मुल्तान का सबसे पहला नाम कासाप्पुर था
और उसका यह नाम कुषाणों से सम्बन्धित होने के कारण पड़ा। वह मिहिर (सूर्य) और अतर (अग्नि) के अतिरिक्त अन्य भारतीय एवं यूनानी
देवताओं का उपासक था। अपने जीवन काल के अंतिम दिनों में बौद्ध
धर्म में कथित धर्मान्तरण के बाद भी वह अपने पुराने
देवताओं का सम्मान करता रहा।
जगस्वामी मन्दिर का निर्माण
दक्षिणी राजस्थान में स्थित प्राचीन भिनमाल नगर में सूर्य
देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के सम्राट कनिष्क ने कराया था। मारवाड़ एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य
का हिस्सा रहे थे। भिनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भिनमाल से
सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है।
कहते है कि भिनमाल के वर्तमान निवासी देवड़ा/देवरा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण कनिष्क
के साथ ही काश्मीर से आए थे।
कार्तिकेय की पूजा
कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की
पूजा को आरम्भ किया
कुषाणकालीन व्यापार
प्रथम शताब्दी में भारत और रोम के बीच मधुर सम्बन्ध का उल्लेख 'पेरिप्लस ऑफ़ दी इरीथ्रियन सी' नामक पुस्तक में
मिलता है। इस पुस्तक में रोमन साम्राज्य को निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में कालीमिर्च,
अदरक, रेशम, मलमल,
सूती वस्त्र, रत्न, मोती आदि का उल्लेख मिलता है। आयात की जाने
वाली वस्तुओं में मूंगा, लोशन, कांच, चांदी, सोने का
बर्तन, रांगा, सीसा, तिप्तीया घास, गीत गाने वाले लड़के का उल्लेख मिलता
है। प्रथम शताब्दी ई. में व्यापार मुख्यतः सिन्धु नदी के मुहाने पर स्थित बन्दरगाह 'बारवैरिकम' और भड़ौच से होता
था। दक्षिण भारत में इस समय आरिकामेडु, मुजरिस, कावेरी, पत्तम जैसे प्रमुख बन्दरगाह थे। 'पेरिप्लस ऑफ़ द इसीथ्रियन सी' पुस्तक में आरिकामेडु
बन्दरगाह का उल्लेख पेडोक नाम से किया गया है। बेरीगाजा (भड़ौच) अथवा भरूकच्छ
पश्चिमी तट पर स्थित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह और प्रवेशद्वार था। रोम से
भारत आ रहे लोगों की मात्रा पर ग्रीक इतिहासकार प्लिनी ने दुःख व्यक्त किया है
बौद्धों की चौथी संगीति
कनिष्क के संरक्षण में बौद्ध धर्म
की चौथी संगीति (महासभा) उसके शासन काल में हुई। कनिष्क ने काश्मीर के कुण्डल वन
विहार में एक महासभा का आयोजन किया, जिसमें 500 प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् सम्मिलित हुए। अश्वघोष के गुरु आचार्य वसुमित्र और पार्श्व इनके प्रधान थे।
वसुमित्र को महासभा का अध्यक्ष नियत किया गया। महासभा में एकत्र विद्वानों ने
बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को स्पष्ट करने और विविध सम्प्रदायों के विरोध को दूर
करने के लिए 'महाविभाषा' नाम का एक
विशाल ग्रंथ तैयार किया। यह ग्रंथ बौद्ध त्रिपिटक के भाष्य के रूप में था। यह ग्रंथ संस्कृत भाषा में था और इसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराया गया था।
कुषाण साम्राज्य का ह्रास
कनिष्क के बाद कुषाण साम्राज्य का ह्रास प्रारम्भ हुआ। उसका
उत्तराधिकारी हुविष्क था। वह
सम्भवतः रुद्रदामा द्वारा पराजित हुआ और मालवा शकों के हाथ से चला गया। अगला शासक वसुदेव था। वह विष्णु एवं शिवका उपासक था। उसके समय में उत्तर पश्चिम
का बहुत बड़ा भाग कुषाणों के हाथ से निकल गया। उसके उत्तराधिकारी कमज़ोर थे और ईरान में सासानियत वंश के तथा पूर्व में 'नाग भारशिव वंश' के उदय
ने कुषाणों के पतन में बहुत योग दिया।
कल्हण की राजतरंगिणी के
अनुसार जुष्कपुर को कुषाण सम्राट कनिष्क के
उत्तराधिकारी 'जुष्क' या 'हुविष्क' ने बसाया था।
कुछ विद्वानों के मत में कनिष्क का
उत्तराधिकारी 'वशिष्क' था, जिसका उल्लेख 'आरा' अभिलेख में 'वाभेष्क' के रूप में हुआ है।
वासिष्क प्रथम- 140-50 ई. से 160 ई.
वासिष्क
प्रथम कुषाण वंश के महान् शासक कनिष्क के बाद विशाल कुषाण साम्राज्य का स्वामी था, जिसका शासन काल 100 ईस्वी से 108 ईस्वी के लगभग तक रहा। इस राजा का कोई भी सिक्का अब तक उपलब्ध नहीं हुआ है,
पर उसके साथ सम्बन्ध रखने वाले कतिपय उत्कीर्ण लेख प्राप्त हुए हैं,
जिससे उसके इतिहास के सम्बन्ध में अनेक महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात
होती हैं।
वासिष्क के शासन काल में कनिष्क द्वारा स्थापित 'कुषाण
साम्राज्य' अक्षुष्ण दशा में रहा और उसमें कोई क्षीणता नहीं
आई।
सम्भवतः वासिष्क ने कुषाण साम्राज्य को और भी अधिक विस्तृत किया,
क्योंकि साँची में प्राप्त एक अभिलेख से सूचित होता है कि विदिशा भी राजतिराज देवपुत्र शाहि वासष्क की अधीनता में था।
कुषाण शासक वासिष्क के समय में दो
राजशक्तियाँ प्रधान थीं। उत्तरापथ कुषाणों के अधीन था और दक्षिणापथ पर सातवाहन वंश का शासन था।
पहले विदिशा सातवाहनों के अधीन थी, पर वासिष्क के समय में उस पर भी कुषाण वंश का आधिपत्य स्थापित हो गया था।
हुविष्क-
वासुदेव प्रथम
कनिष्क द्वितीय
वशिष्क
कनिष्क तृतीय
वासुदेव द्वितीय
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