गुप्त काल 319 - 550 ई0, चंद्रगुप्त प्रथम , समुद्रगुप्त , चंद्रगुप्त द्वितीय स्कन्दगुप्त कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य पुरूगुप्त नरसिंह गुप्त ( बालादित्य) कुमारगुप्त तृतीय ( अंतिम महान शासक) भानुगुप्त विष्णुगुप्त ( अंतिम गुप्त शासक) - Read Here and get Success Sure

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मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

गुप्त काल 319 - 550 ई0, चंद्रगुप्त प्रथम , समुद्रगुप्त , चंद्रगुप्त द्वितीय स्कन्दगुप्त कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य पुरूगुप्त नरसिंह गुप्त ( बालादित्य) कुमारगुप्त तृतीय ( अंतिम महान शासक) भानुगुप्त विष्णुगुप्त ( अंतिम गुप्त शासक)


गुप्त काल 319 - 5500

 गुप्तो  की उत्पत्ति एवं क्षेत्र को लेकर विद्वानों में मतभेद है। किंतु सर्वाधिक मान्य मत है कि गुप्त पंजाब क्षेत्र के निवासी थे। वैश्य वर्ण से संबंधित  थे। प्रारंभिक गुप्त शासक कुषाणों की सेना में सामंत थे। प्रथम गुप्त शासक श्री गुप्ता था। एवं दूसरा गुप्त शासक घटोत्कच था। इन दोनों ने ही महाराजा की उपाधि धारण की।

 नोट-  गुप्त काल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल कहा जाता है।

 गुप्त वंश का संस्थापक श्री गुप्त 240 ईसवी में शासक बना। इसकी प्रथम राजधानी अयोध्या थी।

 गुप्त लिच्छवि संबंध घटोत्कच के समय ही आरंभ हुए


नाग राजाओं के शासन के बाद गुप्त राजवंश स्थापित हुआ जिसने मगध में देश के एक शक्तिशाली साम्राज्य को स्थापित किया । इस वंश के राजाओं को गुप्त सम्राट के नाम से जाना जाता है। गुप्त राजवंश का प्रथम राजा श्री गुप्त हुआ, जिसके नाम पर गुप्त राजवंश का नामकरण हुआ। उसका लड़का घटोत्कच हुआ। घटोत्कच के उत्तराधिकारी के रूप में सिंहासनारूढ़ चन्द्रगुप्त प्रथम एक प्रतापी राजा था। उसने 'महाराजधिराज' उपाधि ग्रहण की और लिच्छिवी राज्य की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिच्छिवियों की सहायता से शक्ति बढाई। इसकी पुष्टि दो प्रमाणों से होती है।

गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी सदी के अन्त में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ। गुप्त कुषाणों के सामन्त थे। इस वंश का आरंभिक राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में था। यही से गुप्त शासक कार्य संचालन करते रहे। और अनेक दिशाओं में बढ़ते गए। गुप्त शासकों ने अपना अधिपत्य अनुगंगा (मध्य गंगा मैदान), प्रयाग (इलाहाबाद), साकेत (आधुनिक अयोध्या) और मगध पर स्थापित किया।गुप्तों की उत्पत्ति

गुप्त राजवंशों का इतिहास साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों प्रमाणों से प्राप्त है। इसके अतिरिक्त विदेशी यात्रियों के विवरण से भी गुप्त राजवंशों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
साहित्यिक साधनों में पुराण सर्वप्रथम है जिसमें मत्स्य पुराणवायु पुराण, तथा विष्णु पुराण द्वारा प्रारम्भिक शासकों के बारे में जानकारी मिलती है।
बौद्ध ग्रंथों में 'आर्य मंजूश्रीमूलकल्प' महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त 'वसुबन्धु चरित' तथा 'चन्द्रगर्भ परिपृच्छ' से गुप्त वंशीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
स्मृतियों में नारद, पराशर और बृहस्पति स्मृतियों से गुप्तकाल की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक इतिहास की जानकारी मिलती है।
अभिलेखीय साक्ष्य के अन्तर्गत समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति लेख सर्वप्रमुख है, जिसमें समुद्रगुप्त के राज्यभिषेक उसके दिग्विजय तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है। अन्य अभिलेखों में चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि से प्राप्त गुहा लेखकुमार गुप्त का विलसड़ स्तम्भ लेख स्कंद गुप्त का भीतरी स्तम्भ लेख, जूनागढ़ अभिलेख महत्पूर्ण हैं।
विदेशी यात्रियों के विवरण में फ़ाह्यान जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में भारत आया था। उसने मध्य देश के जनता का वर्णन किया है। 7वी. शताब्दी ई. में चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से भी गुप्त इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। उसने बुद्धगुप्त, कुमार गुप्त प्रथम, शकादित्य तथा बालदित्य आदि गुप्त शासकों का उल्लेख किया है। उसके विवरण से यह ज्ञात होता है कि कुमार गुप्त ने ही नालन्दा विहार की स्थापना की थी।
गुप्तों की उत्पत्ति संबंधी विचार
गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। इस संबंध में कुछ विचारक इसे शूद्र अथवा निम्नजाति से उत्पन्न मानते है जबकि कुछ का मानना है कि गुप्तों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई है। इस संबंध में विभिन्न् विचारकों के विचार निम्नलिखित हैं।
गुप्तों की उत्पत्ति
जाति
इतिहासकार
1-  क्षत्रिय
सुधारक चट्टोपाध्याय, आर.सी.मजूमदार, गौरी शंकर हीरा चन्द्र ओझा
2-  ब्राह्मण
डॉ राय चौधरी, डॉ रामगोपाल गोयल आदि
3- शूद्र तथा निम्न जाति से उत्पत्ति
काशी प्रसाद जायसवाल
4- वैश्य
एलन, एस.के. आयंगर, अनन्द सदाशिव अल्टेकररोमिला थापररामशरण शर्मा


श्रीगुप्त (240-280 ई.),
कुषाण साम्राज्य के पतन के समय उत्तरी भारत में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उससे लाभ उठाकर बहुत से प्रान्तीय सामन्त राजा स्वतंत्र हो गए थे। इसी प्रकार का एक व्यक्ति 'श्रीगुप्त' भी था। गुप्त राजवंश की स्थापना महाराजा गुप्त ने लगभग 240 ई. में की थी। उसने मगध के कुछ पूर्व में चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार नालन्दा से प्रायः चालीस योजन पूर्व की तरफ़, अपने राज्य का विस्तार किया था। अपनी शक्ति को स्थापित कर लेने के कारण उसने 'महाराज' की पदवी ग्रहण की।
चीनी बौद्ध यात्रियों के निवास के लिए उसने 'मृगशिख़ावन' के समीप एक विहार का निर्माण कराया था, और उसका ख़र्च चलाने के लिए चौबीस गाँव प्रदान किए थे।
दो मुद्राएँ ऐसी मिली हैं, जिनमें से एक पर 'गुतस्य' और दूसरी पर 'श्रीगुप्तस्य' लिखा है। सम्भवतः ये इसी महाराज श्रीगुप्त की हैं।
प्रभावती गुप्त के पूना स्थित ताम्रपत्र अभिलेख में श्री गुप्त का उल्लेख गुप्त वंश के आदिराज के रूप में किया गया है। लेखों में इसका गोत्र 'धरण' बताया गया है।
श्री गुप्त ने 'महाराज' की उपाधि धारण की। श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक था ।
इत्सिंग के अनुसार श्री गुप्त ने मगध में एक मंदिर का निर्माण करवाया तथा मंदिर के लिए 24 गांव दान में दिए थे।
इसके द्वारा धारण की गई उपाधि 'महाराज' सामंतों द्वारा धारण की जाती थी, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि श्रीगुप्त किसी शासक के अधीन शासन करता था।

घटोत्कच (280-319 ई.),
घटोत्कच (300-319 ई.) गुप्त काल में श्रीगुप्त का पुत्र और उसका उत्तराधिकारी था। लगभग 280 ई. में श्रीगुप्त ने घटोत्कच को अपना उत्तराधिकारी बनाया था। घटोत्कच तत्सामयिक शक साम्राज्य का सेनापति था। उस समय शक जाति ब्राह्मणों से बलपूर्वक क्षत्रिय बनने को आतुर थी। घटोत्कच ने 'महाराज' की उपाधि धारण की थी। उसका पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम गुप्त वंश का प्रथम महान् सम्राट हुआ था।
घटोत्कच गुप्त ने कुमारगुप्त की मृत्यु के बाद अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। कुमारगुप्त के जीवित रहते सभवत: यही घटोत्कच गुप्त मध्य प्रदेश के एरण का प्रांतीय शासक था। उसका क्षेत्र वहाँ से 50 मील उत्तर-पश्चिम में तुंबवन तक फैला हुआ था, जिसकी चर्चा एक गुप्त अभिलेख में हुई है।
मधुमतीनामक एक क्षत्रिय कन्या से घटोत्कच का विवाह हुआ था।
लिच्छिवियों ने घटोत्कच को शरण दी, साथ ही उसके पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम के साथ अपनी पुत्री कुमारदेवी का विवाह भी कर दिया।
प्रभावती गुप्त के पूना एवं रिद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोच्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है। उसका राज्य संभवतः मगध के आसपास तक ही सीमित था।
घटोत्कच गुप्त नामक एक शासक की कुछ मोहरें वैशाली से प्राप्त हुई हैं। सेंट पीटर्सवर्ग के संग्रह में एक ऐसा सिक्का मिला है, जिस पर एक ओर राजा का नाम 'घटो-गुप्त' तथा दूसरी ओर 'विक्रमादित्य' की उपाधि अंकित है। इन सिक्कों तथा कुछ अन्य आधारों पर वि.प्र. सिन्हा ने वैशाली की मोहरों तथा सिक्के वाले घटोत्कच गुप्त को कुमारगुप्त का एक पुत्र माना है।
कुछ मुद्राएँ ऐसी भी मिली हैं, जिन पर 'श्रीघटोत्कचगुप्तस्य' या केवल 'घट' लिखा है। महाराज घटोत्कच ने लगभग 319 ई. तक शासन किया।

चंद्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.)
       यह गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक था। यह प्रथम गुप्त शासक था जिसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। इससे प्रतीत होता है, कि उसके समय में गुप्त वंश की शक्ति बहुत बढ़ गई थी।चंद्रगुप्त प्रथम का राज्यारोहण 319 ईस्वी में हुआ और यही तिथि गुप्त संवत का प्रारंभ मानी जाती है। चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया। कुमार देवी के साथ विवाह कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली का राज्य प्राप्त किया। चन्द्रगुप्त कुमारदेवी प्रकार के सिक्के के पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी दुर्गा की आकृति बनी है। वह एक शक्तिशाली शासक था, चंद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त-शासन का विस्तार दक्षिण बिहार से लेकर अयोध्या तक था । 
गुप्त संवत एवं शक संवत मे 241 वर्षों का अंतर पाया जाता है। चंद्रगुप्त प्रथम ने सर्वप्रथम सोने के सिक्के चलाए। स्वर्ण सिक्के जिसमें 'चन्द्रगुप्त कुमार देवी प्रकार', 'लिच्छवि प्रकार', 'राजारानी प्रकार', 'विवाह प्रकार' आदि हैं।
        चन्द्रगुप्त प्रथम भारतीय इतिहास के सर्वाधिक प्रसिद्ध राजाओं में से एक था। यह गुप्त शासक घटोत्कच का पुत्र था। चंद्रगुप्त ने, जिसका शासन पहले मगध के कुछ भागों तक सीमित था, अपने राज्य का विस्तार इलाहाबाद तक किया। 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण करके इसने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया था।
घटोत्कच के बाद महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम हुए। गुप्त वंश के पहले दो राजा केवल महाराज कहे गए हैं। पर चंद्रगुप्त को 'महाराजाधिराज' कहा गया है। प्राचीन समय में महाराज विशेषण तो अधीनस्थ सामन्त राजाओं के लिए भी प्रयुक्त होता था। पर 'महाराजाधिराज' केवल ऐसे ही राजाओं के लिए प्रयोग किया जाता था, जो पूर्णतया स्वाधीन व शक्तिशाली हों। प्रतीत होता है, कि अपने पूर्वजों के पूर्वी भारत में स्थित छोटे से राज्य को चंद्रगुप्त ने बहुत बढ़ा लिया था, और महाराजाधिराज की पदवी ग्रहण कर ली थी। पाटलिपुत्र निश्चय ही चंद्रगुप्त के अधिकार में आ गया था, और मगधतथा उत्तर प्रदेश के बहुत से प्रदेशों को जीत लेने के कारण चंद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य बहुत विस्तृत हो गया था। इन्हीं विजयों और राज्य विस्तार की स्मृति में चंद्रगुप्त ने एक नया सम्वत चलाया था, जो गुप्त सम्वत के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है।
मगध के उत्तर में लिच्छवियों का जो शक्तिशाली साम्राज्य था, चंद्रगुप्त ने उसके साथ मैत्री और सहयोग का सम्बन्ध स्थापित किया। कुषाण काल के पश्चात् इस प्रदेश में सबसे प्रबल भारतीय शक्ति लिच्छवियों की ही थी। कुछ समय तक पाटलिपुत्र भी उनके अधिकार में रहा था। लिच्छवियों का सहयोग प्राप्त किए बिना चंद्रगुप्त के लिए अपने राज्य का विस्तार कर सकना सम्भव नहीं था। इस सहयोग और मैत्रीभाव को स्थिर करने के लिए चंद्रगुप्त ने लिच्छविकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया, और अन्य रानियों के अनेक पुत्र होते हुए भी 'लिच्छवि-दौहित्र' (कुमारदेवी के पुत्र) समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियत किया।
चंद्रगुप्त के सिक्कों पर उसका अपना और कुमारदेवी दोनों का नाम भी एक साथ दिया गया है। सिक्के के दूसरी ओर 'लिच्छवयः' शब्द भी उत्कीर्ण है। इससे यह भली-भाँति सूचित होता है कि, लिच्छवि गण और गुप्त वंश का पारस्परिक विवाह सम्बन्ध बड़े महत्त्व का था। इसके कारण इन दोनों के राज्य मिलकर एक हो गए थे, और चंद्रगुप्त तथा कुमारदेवी का सम्मिलित शासन इन प्रदेशों पर माना जाता था।
श्रीगुप्त के वंशजों ने शासन 'गंगा के साथ-साथ प्रयाग तक व मगध तथा अयोध्या में इन्होंने राज्य किया।
समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी बनाने के बाद चन्द्रगुप्त प्रथम ने सन्न्यास ग्रहण किया। 335 ई. चंद्रगुप्त प्रथम की मृत्यु हो गई।
कुमारदेवी 
कुमारदेवी सुविख्यात लिच्छवी वंश की राजकुमारी थी। वह गुप्त साम्राज्य के सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम की पत्नी और समुद्रगुप्त की माता थी। कुमारदेवी संसार की ऐसी प्रथम महारानी थी, जिसके नाम से सिक्के प्रचलित किए गए थे। सारनाथ में 'धर्मचक्रजिनविहार' का निर्माण कुमारदेवी ने करवाया था।
समुद्रगुप्त (335-375 ई.)
समुद्रगुप्त गुप्त वंश का सबसे महान शासक था। जिसने प्राक्रमांक सर्वराज्योच्छेदा की उपाधि धारण की। समुद्रगुप्त की उपलब्धियों के बारे में जानकारी का एकमात्र स्रोत उसका प्रयाग प्रशस्ति है, जिसकी रचना उस के दरबारी कवि हरिषेण के द्वारा की गई। प्रयाग प्रशस्ति को अशोक के कौशांबी स्तंभ पर  उत्कीर्ण किया गया। प्रयाग प्रशस्ति चंपू शैली (गद्य पद्य) में लिखी गई  प्रथम रचना है। जिस की भाषा संस्कृत एवं लिपि ब्राह्मी है। प्रयाग प्रशस्ति एवं सिक्को में समुद्रगुप्त को 100 युद्धों का विजेता कहा गया है। जबकि प्रसिद्ध अंग्रेजी इतिहासकार वी. ए. स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा। समुद्र गुप्त  एरण अभिलेख मध्य प्रदेश से मिला।
चंद्रगुप्त प्रथम के बाद समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा। चंद्रगुप्त के अनेक पुत्र थे। पर गुण और वीरता में समुद्रगुप्त सबसे बढ-चढ़कर था। लिच्छवी कुमारी श्रीकुमारदेवी का पुत्र होने के कारण भी उसका विशेष महत्त्व था। चंद्रगुप्त ने उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुना, और अपने इस निर्णय को राज्यसभा बुलाकर सभी सभ्यों के सम्मुख उद्घोषित किया। यह करते हुए प्रसन्नता के कारण उसके सारे शरीर में रोमांच हो आया था, और आँखों में आँसू आ गए थे। उसने सबके सामने समुद्रगुप्त को गले लगाया, और कहा - 'तुम सचमुच आर्य हो, और अब राज्य का पालन करो।' इस निर्णय से राज्यसभा में एकत्र हुए सब सभ्यों को प्रसन्नता हुई।
 नोट- पुराण गुप्त इतिहास को जानने के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक स्रोत है। पुराणों में भविष्योत्तर पुराण महत्वपूर्ण है।


समुद्रगुप्त की सैनिक  उपलब्धियां-

1. आर्यवर्त की विजय-
 समुद्रगुप्त ने आर्यवर्त की विजय की। जिसमें उसने उत्तर भारत के 12 राज्यों को पराजित किया एवं इन राज्यों के प्रति उसने प्रसभोदरण की नीति अपनाई अर्थात इन राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।
मथुरा पर विजय
उत्तरापथ के जीते गये राज्यों में मथुरा भी था, समुद्रगुप्त ने मथुरा राज्य को भी अपने साम्राज्य में शामिल किया। उस समय में पद्मावती का नाग शासक नागसेन था, जिसका नाम प्रयाग-लेख में भी आता है। इस शिलालेख में नंदी नाम के एक राजा का नाम भी है। वह भी नाग राजा था और विदिशा के नागवंश से था। समुद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। इस साम्राज्य को उसने कई राज्यों में बाँटा।


2.  दक्षिणावर्त की विजय- (धर्म विजय की नीति)
 समुद्रगुप्त ने दक्षिणावर्त की विजय की एवं दक्षिण भारत के 12 राज्यों को जीता।  तथा इनके प्रति उसने ग्रह मोक्ष अनुग्रह की नीति अपनाई। अर्थात इन राज्यों को जीतकर उनके राज्य वापस लौटा दिए।
 समुद्रगुप्त की इस नीति को इतिहासकार HC राय चौधरी ने धर्म विजय की संज्ञा दी।
दक्षिण विजय
        आर्यवर्त में अपनी शक्ति को भली-भाँति स्थापित कर समुद्रगुप्त ने दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया। इस विजय यात्रा में उसने कुल बारह राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया। जिस क्रम से इनको जीता गया था, उसी के अनुसार इनका उल्लेख भी प्रशस्ति में किया गया है। ये राजा निम्नलिखित हैं -


1 कोशल का महेन्द्र
यहाँ कोशल का अभिप्राय दक्षिण कोशल से है, जिसमें आधुनिक मध्य प्रदेश के विलासपुररायपुर और सम्बलपुर प्रदेश सम्मिलित थे। इसकी राजधानी श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर) थी। दक्षिण कोशल से उत्तर की ओर का सब प्रदेश गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत था, और अच्युत तथा नागसेन की पराजय के बाद यह पूर्णतया उसके अधीन हो गया था। आर्यावर्त में पराजित हुए नागसेन की राजधानी ग्वालियर क्षेत्र में 'पद्मावती' थी। अब दक्षिण की ओर विजय यात्रा करते हुए सबसे पहले दक्षिण कोशल का ही स्वतंत्र राज्य पड़ता था। इसके राजा महेन्द्र को जीतकर समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया।
2 महाकान्तार का व्याघ्रराज
महाकोशल के दक्षिण-पूर्व में महाकान्तार (जंगली प्रदेश) था। इसी के स्थान में आजकल गोंडवाना के सघन जंगल है।
3 राल का मंत्रराज
महाकान्तार के बाद 'कौराल' राज्य की बारी आई। यह राज्य दक्षिणी मध्य प्रदेश के सोनपुर प्रदेश के आसपास था।
4 ष्टपुर का महेंन्द्रगिरि
गोदावरी ज़िले में स्थित वर्तमान पीठापुरम ही प्राचीन समय में पिष्टपुर कहलाता था। वहाँ के राजा महेन्द्रगिरि को भी परास्त कर के समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया।
5 कोट्टर का राजा स्वामिदत्त
कोट्टर का राज्य गंजाम ज़िले में था।
6 ऐरण्डपल्ल का दमन
ऐरण्डपल्ल का राज्य कलिंग के दक्षिण में था। इसकी स्थिति 'पिष्टपुर' और 'कोट्टर' के पड़ोस में सम्भवतः विजगापट्टम ज़िले में थी।
7 कांची का विष्णुगोप
कांची का अभिप्राय दक्षिण भारत के कांजीवरम से है। आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी ज़िलों और कलिंग को जीतकर अपने अधीन किया।
8 अवमुक्त का नीलराज   यह राज्य कांची के समीप में ही था।
9 वेंगि का हस्तवर्मन
यह राज्य कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच में स्थित था। वेंगि नाम की नगरी इस प्रदेश में अब भी विद्यमान है।
10 पाल्लक का उग्रसेन
यह राज्य नेल्लोर ज़िले में था।
11 देवराष्ट्र का कुबेर
इस राजा के प्रदेश के सम्बन्ध में ऐतिहासिकों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसे सतारा ज़िले में मानते हैं, और अन्य विजगापट्टम ज़िले में। काँची, वेंगि और अवमुक्त राज्यों के शासक पल्लव वंश के थे। सम्भवतः उन सब की सम्मिलित शक्ति को समुद्रगुप्त ने एक साथ ही परास्त किया था। देवराष्ट्र का प्रदेश दक्षिण से उत्तर की ओर लौटते हुए मार्ग में आया था।
12 कौस्थलपुर का धनंजय
यह राज्य उत्तरी आर्कोट ज़िले में था। इसकी स्मृति कुट्टलूर के रूप में अब भी सुरक्षित है।

नोट- दक्षिण भारत के इन विभिन्न राज्यों को जीतकर समुद्रगुप्त वापस लौट आया। दक्षिण में वह काँची से आगे नहीं गया था। इन राजाओं को केवल परास्त ही किया गया था, उनका मूल से उच्छेद नहीं किया गया था। प्रयाग की समुद्रगुप्त प्रशस्ति के अनुसार इन राजाओं को हराकर पहले क़ैद कर लिया गया था, पर बाद में अनुग्रह करके उन्हें मुक्त कर दिया गया था।

3. आटविक राज्यों की-
 समुद्रगुप्त ने 8 आटविक राज्यों की विजय की और उनको अपना सेवक बनाया।  ये आटविक राज्य यूपी के गाजीपुर से लेकर MP के जबलपुर के मध्य निवास करती थी।
कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार
आटविक राजाओं के प्रति समुद्रगुप्त ने प्राचीन मौर्य नीति का प्रयोग किया। कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार आटविक राजाओं को अपना सहयोगी और सहायक बनाने का उद्योग करना चाहिए। आटविक सेनाएँ युद्ध के लिए बहुत उपयोगी होती थीं। समुद्रगुप्त ने इन राजाओं का अपना 'परिचारक' बना लिया था।


4.  सीमावर्ती राज्य की  विजय-
 समुद्रगुप्त ने अपने सीमावर्ती राज्यों की विजय की जिनमें निम्न राज्यों का नाम मिलता है
1. समतट पू0 बंगाल, 2. ड्वाक (ढाका), 3. कामरूप असम, 4. कृतपुर कुमायु गढ़वाल, 5. नेपाल।

 नोट-  समुद्रगुप्त को 100 युद्धों का विजय माना जाता है।

5.  विदेशी राज्य
 समुद्रगुप्त के काल में निम्न विदेशी शासक मौजूद थे-
A.  शक- यह पश्चिम भारत में निवास करते थे।  इस समय  शक शासक रुद्र सिंह तृतीय था।
B.  कुषाण-  पश्चिमोत्तर भारत में निवास करते थे। इस समय कुषाण शासक केदार था।
C.  सिंहल-  यह श्रीलंका का क्षेत्र था। इस समय वहां का शासक मेघवर्मन था, जिसने समुद्रगुप्त के समय बोधगया में एक बौद्ध विहार का निर्माण करवाया। यह बौद्ध विहार वर्तमान में महाबोधि संघाराम कहलाता है।


        इस काल में सिंहल का राजा मेघवर्ण था। उसके शासन काल में दो बौद्ध-भिक्षु बोधगया की तीर्थयात्रा के लिए आए थे। वहाँ पर उनके रहने के लिए समुचित प्रबन्ध नहीं था। जब वे अपने देश को वापिस गए, तो उन्होंने इस विषय में अपने राजा मेघवर्ण से शिकायत की। मेघवर्ण ने निश्चय किया, कि बोधगया में एक बौद्ध-विहार सिंहली यात्रियों के लिए बनवा दिया जाए। इसकी अनुमति प्राप्त करने के लिए उसने एक दूत-मण्डल समुद्रगुप्त की सेवा में भेजा। समुद्रगुप्त ने बड़ी प्रसन्नता से इस कार्य के लिए अपनी अनुमति दे दी, और राजा मेघवर्ण ने 'बौधिवृक्ष' के उत्तर में एक विशाल विहार का निर्माण करा दिया। जिस समय प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू-त्सांग बोधगया की यात्रा के लिए आया था, यहाँ एक हज़ार से ऊपर भिक्षु निवास करते थे।

भारतवर्ष पर एकाधिकार
उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्ध है; समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया। उसने वाकाटक राज्य पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें चेदिमहाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रुद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था। उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया। समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार क़ायम कर उसने `दिग्विजय` की। समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है।

समुद्र्गुप्त की दिग्विजय
इस विजय के बाद समुद्र गुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चंबल और यमुना नदियों तक हो गया था। पश्चिम-उत्तर के मालव, यौघय, भद्रगणों आदि दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में न मिला कर उन्हें अपने अधीन शासक बनाया। इसी प्रकार उसने पश्चिम और उत्तर के विदेशी शक और 'देवपुत्र शाहानुशाहीकुषाण राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे। उसके द्वारा भारत की दिग्विजय की गई, जिसका विवरण इलाहाबाद क़िले के प्रसिद्ध शिला-स्तम्भ पर विस्तारपूर्वक दिया है।

 समुद्रगुप्त की अन्य उपलब्धियां-  समुद्रगुप्त ने अभिलेखों में कविराज की उपाधि धारण की। जिसकी पुष्टि उसके वीणा वादन के प्रकार के सिक्कों से होती है। जिसमें उसको वीणा बजाते हुए दिखाया गया है।
 समुद्रगुप्त के दरबार में प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु वसुबंधु निवास करते थे।
 समुद्रगुप्त के सिक्के
समुद्रगुप्त ने सर्वाधिक सोने के सिक्के चलाएं एवं उसके सिक्के निम्न प्रकार के थे।
 अश्वमेघ प्रकार,  गुरूर  प्रकार,  धनुर्धारी प्रकार,  वीणा प्रकार  एवं परशुराम प्रकार।
पहले प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह युद्ध की पोशाक पहने हुए है। उसके बाएँ हाथ में धनुष है, और दाएँ हाथ में बाण। सिक्के के दूसरी तरफ़ लिखा है, "समरशतवितत-विजयी जितारि अपराजितों दिवं जयति" सैकड़ों युद्धों के द्वारा विजय का प्रसार कर, सब शत्रुओं को परास्त कर, अब स्वर्ग को विजय करता है।
दूसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह परशु लिए खड़ा है। इन सिक्कों पर लिखा है, "कृतान्त (यम) का परशु लिए हुए अपराजित विजयी की जय हों।
तीसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें उसके सिर पर उष्णीष है, और वह एक सिंह के साथ युद्ध कर उसे बाण से मारता हुआ दिखाया गया है। ये तीन प्रकार के सिक्के समुद्रगुप्त के वीर रूप को चित्रित करते हैं।
पर इनके अतिरिक्त उसके बहुत से सिक्के ऐसे भी हैं, जिनमें वह आसन पर आराम से बैठकर वीणा बजाता हुआ प्रदर्शित किया गया है। इन सिक्कों पर समुद्रगुप्त का केवल नाम ही है, उसके सम्बन्ध में कोई उक्ति नहीं लिखी गई है। इसमें सन्देह नहीं कि जहाँ समुद्रगुप्त वीर योद्धा था, वहाँ वह संगीत और कविता का भी प्रेमी था।
 गरुड़ एवं मीणा प्रकार के सिक्के केवल समुद्रगुप्त ने चलाएं।  शेष सिक्के अन्य शासकों ने भी चलाएं।
 नोट-  समुद्रगुप्त का राज्य चिन्ह गरुड़ था।

समुद्रगुप्त का प्रशस्ति गायन
दक्षिण और पश्चिम के अन्य बहुत से राजा भी सम्राट समुद्रगुप्त के प्रभाव में थे, और उसे आदरसूचक उपहार आदि भेजकर संतुष्ट रखते थे। इस प्रकार के तीन राजाओं का तो समुद्रगुप्त प्रशस्ति में उल्लेख भी किया गया है। ये 'देवपुत्र हिशाहानुशाहि', 'शक-मुरुण्ड' और 'शैहलक' हैं। दैवपुत्र शाहानुशाहि से कुषाण राजा का अभिप्राय है। शक-मुरुण्ड से उन शक क्षत्रपों का ग्रहण किया जाता है, जिनके अनेक छोटे-छोटे राज्य इस युग में भी उत्तर-पश्चिमी भारत में विद्यमान थे। उत्तरी भारत से भारशिव, वाकाटक और गुप्त वंशों ने शकों और कुषाणों के शासन का अन्त कर दिया था। पर उनके अनेक राज्य उत्तर-पश्चिमी भारत में अब भी विद्यमान थे। सिंहल के राजा को सैहलक कहा गया है। इन शक्तिशाली राजाओं के द्वारा समुद्रगुप्त का आदर करने का प्रकार भी प्रयाग की प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से लिखा गया है।
अश्वमेध यज्ञ
सम्पूर्ण भारत में एकछत्र अबाधित शासन स्थापित कर और दिग्विजय को पूर्ण कर समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। शिलालेखों में उसे 'चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्ता' (देर से न हुए अश्वमेध को फिर से प्रारम्भ करने वाला) और 'अनेकाश्वमेधयाजी' (अनेक अश्वमेध यज्ञ करने वाला) कहा गया है। इन अश्वमेधों में केवल एक पुरानी परिपाटी का ही अनुसरण नहीं किया गया था, अपितु इस अवसर से लाभ उठाकर कृपण, दीन, अनाथ और आतुर लोगों को भरपूर सहायता देकर उनके उद्धार का भी प्रयत्न किया गया था। प्रयाग की प्रशस्ति में इसका बहुत स्पष्ट संकेत है। समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों में यज्ञीय अश्व का भी चित्र दिया गया है। ये सिक्के अश्वमेध यज्ञ के उपलक्ष्य में ही जारी किए गए थे। इन सिक्कों में एक तरफ़ जहाँ यज्ञीय अश्व का चित्र है, वहीं दूसरी तरफ़ अश्वमेध की भावना को इन सुन्दर शब्दों में प्रकट किया गया है - 'राजाधिराजः पृथिवीमवजित्य दिवं जयति अप्रतिवार्य वीर्यः'—राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर अब स्वर्ग की जय कर रहा है, उसकी शक्ति और तेज़ अप्रतिम है।
पटरानी
सम्राट समुद्रगुप्त की अनेक रानियाँ थी, पर पटरानी का पद दत्तदेवी को प्राप्त था। इसी से चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का जन्म हुआ था। पचास वर्ष के लगभग शासन करके 378 ई. में समुद्रगुप्त स्वर्ग को सिधारे।
समुद्र गुप्त के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त मगध का सम्राट हुआ था ।

रामगुप्त 
समुद्रगुप्त के पश्चात रामगुप्त, गुप्त वंश का शासक बना। रामगुप्त की ऐतिहासिकता को साबित करने का सर्वप्रथम प्रयास 1924  में रखा अरदास बनर्जी के द्वारा किया गया।
रामगुप्त गुप्त राजवंश के ख्याति प्राप्त समुद्रगुप्त का पुत्र था। प्राचीन काव्य ग्रंथों से यह संकेत मिलता है कि समुद्रगुप्त के बड़े लड़के का नाम रामगुप्त था और पिता की मृत्यु के बाद शुरू में वही राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ था।
सर्वप्रथम विशाखदत्त कृत  देवीचंद्रगुप्तम नामक नाटक में  रामगुप्त नामक शासक का उल्लेख मिलता है एवं उसकी  ऐतिहासिकता की पुष्टि होती है।
प्राचीन समय में यह कथा इतनी लोकप्रिय थी कि प्रसिद्ध कवि विशाखदत्त ने भी इसे लेकर 'देवीचन्द्रगुप्तम्' नाम का एक नाटक लिखा। विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्तम् नामक नाटक में सर्वप्रथम रामगुप्त का अस्तित्व प्रकाश में आया। यह नाटक इस समय उपलब्ध नहीं होता, पर इसके उद्धरण अनेक ग्रंथों में दिए गए हैं, जिनसे इस कथा कि रूपरेखा का परिचय मिल जाता है। बाण के 'हर्षचरित' में भी इस कथा का निर्देश यह लिखकर किया गया है कि 'दूसरी पत्नी का कामुक शकपति कामिनी-वेशधारी चंद्रगुप्त के द्वारा मारा गया।'

रामगुप्त को प्रमाणित करने वाले ऐतिहासिक स्रोत निम्न है-
1.  बाणभट्ट का हर्ष चरित्र।
2.  राजशेखर की काव्य मीमांसा।
राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' में 'ध्रुववदेवी' के नाम का श्लोक है, जिसमें यह वर्णन मिलता है कि चन्द्रगुप्त ने रामगुप्त की हत्या कर गद्दी हथिया ली तथा ध्रुवदेवी से शादी कर ली। काव्यमीमांसा के 'शर्मगुप्त' या 'सेनगुप्त' को ही रामगुप्त माना गया है।

3.  अमोघवर्ष का सजन ताम्रपत्र।
4.  गोविंद चतुर्थ का सांगली ताम्रपत्र।
5.  विदिशा से प्राप्त रामकोट के सिक्के।

मुद्रा साक्ष्य के आधार पर देखा जाए तो रामगुप्त के कुछ तांबे के सिक्के विदिशा व उदयगिरि से प्राप्त हुए हैं जिन पर रामगुप्त, गरुण अंकित है व तिथि गुप्त कालीन है।
अब यह प्रमाणित होता है कि समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय नहीं अपित रामगुप्त था।




चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य  (375-415 ई.)
चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियों की जानकारी उसके दिल्ली स्थित महरौली लौह स्तंभ लेख से मिलती है। जिसमें उसका नाम चंद्र मिलता है। चंद्रगुप्त द्वितीय  ने विक्रमादित्य, परम भागवत व शकारि की उपाधि धारण की। समुद्रगुप्त का पुत्र 'चन्द्रगुप्त द्वितीय' समस्त गुप्त राजाओं में सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से सम्पन्न था। शकों पर विजय प्राप्त करके उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। वह 'शकारि' भी कहलाया। वह अपने वंश में बड़ा पराक्रमी शासक हुआ। मालवाकाठियावाड़गुजरात और उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिलाकर उसने अपने पिता के राज्य का और भी विस्तार किया। चीनी यात्री फ़ाह्यानउसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा।

 चंद्रगुप्त द्वितीय ने वैवाहिक संबंधों के माध्यम से  गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया। एवं उसमें  निम्न राजवंशो के साथ विवाह संबंध स्थापित किए-
1  नागवंश
         चंद्रगुप्त द्वितीय ने नागवंश की राजकुमारी कुबेर नागा के साथ विवाह किया, जिससे उसको प्रभावती गुप्त नामक  पुत्री उत्पन्न हुई।

2  वाकाटक
         चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक वंश के शासक रुद्र सिंह द्वितीय के साथ किया।

3  कदंब वंश
         चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश के शासक काकुत्स  वर्मन की पुत्री के साथ  किया।

 नोट-  पश्चिमी राज्यों को विजित करने के उपलक्ष में चंद्रगुप्त द्वितीय ने गणारि की उपाधि धारण की।

 चंद्रगुप्त  द्वितीय की शक विजय
         इस समय शक शासक रुद्र सिंह तृतीय था और वहां श्चिमी भारत में शासन कर रहा था। चंद्रगुप्त ने वाकाटक वंश के सहयोग से पश्चिमी भारत में शकों का उन्मूलन किया और इसी उपलक्ष में व्याघ्र शैली,  (बाघ शैली) के चांदी के सिक्के चलाए। एवं विक्रमादित्य एवं शाकारी की उपाधि धारण की।
 इसने पश्चिम भारत में सर्वप्रथम चांदी के सिक्के चलाए। चंद्रगुप्त द्वितीय  की क्षत्रप रुद्र सिंह तृतीय पर विजय का वर्णन महरौली लौह स्तंभ में मिलता है। इसके अन्य नाम देवगुप्त, देवराज, देव श्री था।

 चंद्रगुप्त द्वितीय की अन्य उपलब्धियां-
  चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन को अपनी दूसरी एवं सांस्कृतिक राजधानी बनाई। उसके उज्जैन दरबार में 9 विद्वानों की एक मंडली थी, जिसको नवरत्न कहा जाता था जो निम्न है
 वराहमिहिर,  धनवंतरी,  कालिदास,  अमर सिंह, क्षपणक,  वेताल भट्ट,   वरुचि, घटकर्प  और शंकु।
 गुप्त कालीन कवयित्रीयां-  शीला, भट्टारिका एवं प्रभावती गुप्ता

 चंद्रगुप्त द्वितीय ने सोने चांदी एवं तांबे के सिक्के चलाए। उसके सोने की सिक्कों को दिनार, चांदी के सिक्कों को रूपक कहां गया था। दीनार ग्रुप कविराज की मुद्रा थी।
 चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान (399-415 ई0) ने भारत की यात्रा की एवं उसने मध्यप्रदेश का विस्तृत वर्णन किया। महायान ने अपना यात्रा वृतांत फा-को-की   से लिखा तथा पाटलिपुत्र का वर्णन किया।
 नोट_ भारत आने वाला प्रथम चीनी यात्री/ सीलोन की यात्रा- फाह्यान की पुस्तक

चन्द्रगुप्त द्वितीय का सेनापति आम्रकार्द्दव था। उसे देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री, श्रीविक्रम, विक्रमादित्य, परमाभागवत्, नरेन्द्रचन्द्र, सिंहविक्रम, अजीत विक्रम आदि उपाधि धारण किए थे। अनुश्रूतियों में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से किया, रुद्रसेन की मृत्यु के बाद चन्द्रगुप्त ने अप्रत्यक्ष रूप से वाकाटक राज्य को अपने राज्य में मिलाकर उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी बनाई। इसी कारण चन्द्रगुप्त द्वितीय को 'उज्जैनपुरवराधीश्वर' भी कहा जाता है। उसकी एक राजधानी पाटलिपुत्र भी थी। अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय को 'पाटलिपुत्र पुरावधीश्वर' भी कहा गया है। दक्षिण भार में कुंतल एक प्रभावशाली राज्य था। 'श्रृंगार प्रकाश' तथा' कंतलेश्वरदीत्यम्' से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय का कुंतल नरेश से मैत्रीपूर्ण संबंध था। कुंतल नरेश ककुत्स्थवर्मन ने अपनी पुत्री का विवाह गुप्त नरेश से कर दिया। इस वैवाहिक संबंध की पुष्टि क्षेमेन्द्र की औचित्य विचार चर्चा से भी होती है।
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन-काल भारत के इतिहास का बड़ा महत्त्वपूर्ण समय माना जाता है। चीनी यात्री फ़ाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा। वह बड़ा उदार और न्याय-परायण सम्राट था। उसके समय में भारतीय संस्कृति का चतुर्दिक विकास हुआ। महाकवि कालिदास उसके दरबार की शोभा थे। वह स्वयं वैष्णव था, पर अन्य धर्मों के प्रति भी उदार-भावना रखता था। गुप्त राजाओं के काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा जाता है। इसका बहुत कुछ श्रेय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की शासन-व्यवस्था को है।
चंद्रगुप्त के सम्राट बनने पर शीघ्र ही साम्राज्य में व्यवस्था क़ायम हो गई। अपनी राजशक्ति को सुदृढ़ कर उसने शकों के विनाश के लिए युद्धों का प्रारम्भ किया।
विष्णुपुराण से विदित होता है कि संभवत: गुप्तकाल से पूर्व अवन्ती पर आभीर इत्यादि शूद्रों या विजातियों का आधिपत्य था- ऐतिहासिक परंपरा से हमें यह भी विदित होता है कि प्रथम शती ई. पू. में (57 ई. पू. के लगभग) विक्रम संवत के संस्थापक किसी अज्ञात राजा ने शकों को हराकर उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया था। गुप्तकाल में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अवंती को पुन: विजय किया और वहाँ से विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंका। कुछ विद्वानों के मत में 57 ई. पू. में विक्रमादित्य नाम का कोई राजा नहीं था और चंद्रगुप्त द्वितीय ही ने अवंती-विजय के पश्चात् मालव संवत् को जो 57 ई. पू. में प्रारम्भ हुआ थाविक्रम संवत का नाम दे दिया।

कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य (415-455 ई.)
कुमारगुप्त पर तुमने क्रमादित्य की उपाधि धारण की। इसकी काल में निम्नलिखित प्रमुख घटनाएं हुई-
यह प्रथम गुप्त शासक था जिसने सर्वाधिक अभिलेख खुदवाए।

अभिलेख

कुमारगुप्त प्रथम के समय के लगभग 16 अभिलेख और बड़ी मात्रा में स्वर्ण के सिक्के प्राप्त हुए हैं। उनसे उसके अनेक विरुदों, यथा- 'परमदैवत', 'परमभट्टारक', 'महाराजाधिराज', 'अश्वमेघमहेंद्र', 'महेंद्रादित्य', 'श्रीमहेंद्र', 'महेंद्रसिंह' आदि की जानकारी मिलती है। इसमें से कुछ तो वंश के परंपरागत विरुद्ध हैं, जो उनके सम्राट पद के बोधक हैं। कुछ उसकी नई विजयों के द्योतक जान पड़ते हैं। सिक्कों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम ने दो अश्वमेघ यज्ञ किए थे। उसके अभिलेखों और सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से उसके विस्तृत साम्राज्य का ज्ञान होता है। वे पूर्व में उत्तर-पश्चिम बंगाल से लेकर पश्चिम में भावनगरअहमदाबादउत्तर प्रदेश और बिहार में उनकी संख्या अधिक है। उसके अभिलेखों से साम्राज्य के प्रशासन और प्रांतीय उपरिकों का भी ज्ञान होता है।

        इसी के द्वारा एवं सहयोग से प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय का निर्माण किया गया, नालंदा का दूसरा नाम  मृगशिखा वन था। यह विश्व का प्रथम पूर्णता आवासीय विश्वविद्यालय था।
इसने  मयूर शैली एवं कार्तिकेय शैली के सिक्के चलाए।
भरतपुर के बयाना से गुप्तकालीन मुद्राओं का बयाना मुद्रा प्राप्त हुआ है, जिसमें अधिकांश मुद्रा मयूर शैली की है।

राज्य पर आक्रमण

कुमारगुप्त  के काल में पुष्यमित्र नाम विदेशी जातियों ने भारत पर आक्रमण किया, जिसको दबाने का समय इस ग्रुप को जाता है।
कुमारगुप्त के अंतिम दिनों में साम्राज्य को हिला देने वाले दो आक्रमण हुए थे। पहला आक्रमण नर्मदा नदी और विध्यांचल पर्वतवर्ती आधुनिक मध्य प्रदेशीय क्षेत्रों में बसने वाली पुष्यमित्र नाम की किसी जाति का था। उनके आक्रमण ने गुप्त वंश की लक्ष्मी को विचलित कर दिया था; किंतु राजकुमार स्कंदगुप्त आक्रमणकारियों को मार गिराने में सफल हुआ। दूसरा आक्रमण हूणों का था, जो संभवत उसके जीवन के अंतिम वर्ष में हुआ था। हूणों ने गंधार पर कब्जा कर गंगा की ओर बढ़ना प्रारंभ कर दिया था। स्कंदगुप्त ने उन्हें पीछे ढकेल दिया।

11 वीं शताब्दी में पाल शासकों ने नालंदा के स्थान पर विक्रमशिला को संरक्षण देना प्रारंभ कर दिया। 1199 मे तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने नालंदा को जलाकर  पूर्णता नष्ट कर दिया। इसे ऑक्सफोर्ड ऑफ महायान बौद्ध के नाम से जाना जाता है। नालंदा की शिक्षा की भाषा पालि थी।
उसके शासन काल में विशाल गुप्त साम्राज्य अक्षुण रूप से क़ायम रहा। बल्ख से बंगाल की खाड़ी तक उसका अबाधित शासन था। सब राजा, सामन्त, गणराज्य और प्रत्यंतवर्ती जनपद कुमारगुप्त के वशवर्ती थे। गुप्त वंश की शक्ति उसके शासन काल में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। कुमारगुप्त को विद्रोही राजाओं को वश में लाने के लिए कोई युद्ध नहीं करने पड़े।



स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)
यह गुप्त वंश का अंतिम योग्य शासक था। जिसकी जानकारी इसके भीतरी स्तंभ लेख एवं जूनागढ़ अभिलेख से मिलती है।
 इसके द्वारा महेंरादित्य एवं शक्रदित्य की उपाधि धारण की गई।
 इसके काल में दो विदेशी जातियों पुष्यमित्र एवं उन्होंने भारत पर आक्रमण किया, जिसको इस ग्रुप में पराजित किया।
अपने पिता के शासन काल में ही 'पुष्यमित्रों' को परास्त करके उसने अपनी अपूर्व प्रतिभा और वीरता का परिचय दिया था। पुष्यमित्रों का विद्रोह इतना भयंकर रूप धारण कर चुका था, कि गुप्तकाल की लक्ष्मी विचलित हो गई थी और उसे पुनः स्थापित करने के लिए स्कन्दगुप्त ने अपने बाहुबल से शत्रुओं का नाश करते हुए कई रातें ज़मीन पर सोकर बिताईं
हूणों की पराजय
स्कन्दगुप्त के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना हूणों की पराजय है। हूण बड़े ही भयंकर योद्धा थे। उन्हीं के आक्रमणों के कारण 'युइशि' लोग अपने प्राचीन निवास स्थान को छोड़कर शकस्थान की ओर बढ़ने को बाध्य हुए थे, और युइशियों से खदेड़े जाकर शक लोग ईरान और भारत की तरफ़ आ गए थे। हूणों के हमलों का ही परिणाम था, कि शक और युइशि लोग भारत में प्रविष्ट हुए थे।
स्कन्दगुप्त के समय में हूण लोग गान्धार से आगे नहीं बढ़ सके। गुप्त साम्राज्य का वैभव उसके शासन काल में प्रायः अक्षुण्ण रहा।
स्कंद गुप्त के सिक्के
स्कन्दगुप्त के समय के सोने के सिक्के कम पाए गए हैं। उसकी जो सुवर्ण मुद्राएँ मिली हैं, उनमें भी सोने की मात्रा पहले गुप्तकालीन सिक्कों के मुक़ाबले में कम है। इससे अनुमान किया जाता है, कि हूणों के साथ युद्धों के कारण गुप्त साम्राज्य का राज्य कोष बहुत कुछ क्षीण हो गया था, और इसीलिए सिक्कों में सोने की मात्रा कम कर दी गई थी।
स्कंद गुप्त ने वृषभ  शैली के सिक्के चलाए।
 स्कंद गुप्त के काल में सोने के सिक्कों में मिलावट होना प्रारंभ हो गई जो कि उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति का प्रतीक था।
 स्कंद गुप्त के काल में सौराष्ट्र प्रांत का राज्यपाल प्रण दत्त एवं वहां का प्रशासक चक्रपालित था, जिसने सुदर्शन झील के बांध का पुनर्निर्माण करवाया। स्कन्दगुप्त के समय में सौराष्ट्र (काठियावाड़) का प्रान्तीय शासक 'पर्णदत्त' था। उसने गिरिनार की प्राचीन सुदर्शन झील की फिर से मरम्मत कराई थी। इस झील का निर्माण सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय में हुआ था।
 स्कंद गुप्त के पश्चात गुप्त साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया।

 पुरूगुप्त
स्कन्दगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य का ह्रास प्रारम्भ हो गया।
स्कन्दगुप्त की कोई सन्तान नहीं थी, अतः उसकी मृत्यु के बाद पुरुगुप्त सम्राट बना।
वह स्कन्दगुप्त का भाई था, और कुमारगुप्त की पट्टमहारानी का पुत्र था। इस समय तक वह वृद्ध हो चुका था।
उसके राजगद्दी पर बैठते ही गुप्त साम्राज्य में अव्यवस्था प्रारम्भ हो गई।
हूणों के आक्रमणों से पहले ही गुप्त साम्राज्य को ज़बर्दस्त चोटें लग रही थीं, अब वाकाटक वंश ने फिर से सिर उठा लिया।
इस प्रकार स्कन्दगुप्त के निर्बल भाई पुरुगुप्त के शासन में वाकाटक राज्य फिर से स्वतंत्र हो गया।
पुरुगुप्त बौद्ध धर्म का अनुयायी था।


 बुद्ध गुप्त
 कुमारगुप्त द्वितीय
 नरसिंह गुप्त ( बालादित्य)
नरसिंह गुप्त, गुप्त वंश का एक प्रमुख शासक था। वह सम्राट पुरुगुप्त का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।
उसके बौद्ध पिता ने एक बौद्ध आचार्य को उसकी शिक्षा के लिए नियत किया था।
नरसिंहगुप्त ने अपने नाम के साथ 'बालादित्य' उपाधि प्रयुक्त की थी।
उसके सिक्कों पर एक तरफ़ उसका चित्र है और 'नर' लिखा है, दूसरी तरफ़ 'बालादित्य' लिखा गया है।
अपने गुरु की शिक्षाओं के कारण नरसिंह गुप्त ने भी बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था।
नरसिंहगुप्त बौद्ध धर्म का कट्टर अनुयायी था।
उसने नालन्दा में, जो उत्तरी भारत में बौद्ध शिक्षा का विश्वविख्यात केन्द्र था, ईंटों का एक भव्य मन्दिर बनवाया था।
 भानुगुप्त
 कुमारगुप्त तृतीय ( अंतिम महान शासक)
यह नरसिंह गुप्त के बाद पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ था। इसके अस्तित्व का परिचय सारनाथ से प्राप्त गुप्त संबत 154 के एक अभिलेख से होता है। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश के पराक्रमी राजा नरसिंह गुप्त का पुत्र और उत्तराधिकारी था। वह गुप्त वंश का 24वाँ शासक था। इसके शासन काल में गुप्त साम्राज्य तेजी से पतन की ओर बढ़ रहा था। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था।
कुमारगुप्त तृतीय ने अपने पिता नरसिंह गुप्त के समान ही सोने के सिक्के चलवाये और उसकी ही तरह अपने नाम के पीछे 'क्रमादित्य' उपाधि लगायीं।
सिक्कों में मिलावट की मात्रा लगातार बढ़ती गई, जो इस समय के गुप्त शासकों के तेजी से पतन की ओर जाने को स्पष्ट करता है।
भितरी और नालंदा से प्राप्त मुहरों के अनुसार कुमारगुप्त तृतीय नरसिंह गुप्त का पुत्र और विष्णुगुप्त का पिता था। बहुत दिनों तक इसे भी सारनाथ अभिलेख में उल्लखित कुमारगुप्त समझा और कुमारगुप्त द्वितीय कहा जाता रहा। किंतु हाल ही में मिले प्रमाणों से ज्ञात होता है कि यह उससे सर्वथा भिन्न था और वह बुधगुप्त के परवर्ती काल के शासकों का था।

 वैन्यू गुप्त
विष्णुगुप्त ( अंतिम गुप्त शासक)
चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार बालादित्य ने हूणों के नेता मिहिरकुल को पराजित किया था।
'एरण' जो कि मध्य प्रदेश के सागर ज़िले में विदिशा के निकट बेतवा नदी के किनारे स्थित है, वहाँ से एक अभिलेख प्राप्त हुआ है, जो 510 ई. का है। इसे भानुगुप्त का अभिलेख कहते हैं।





गुप्तकालीन कला-
1.  स्थापत्य कला- मंदिर स्थापत्य

मंदिर-  स्थापत्य कला/ मंदिर निर्माण की शैलियां-
 प्राचीन काल में पहली बार मंदिरों के प्रमाण गुप्तकाल में मिलते हैं। प्राचीन भारत में मंदिर निर्माण की तीन शैलियां पर चली थी
1  नागर शैली, 2  द्रविड़ शैली  तथा 3  बेसर शैली।

1  नागर शैली-  यह उत्तर भारत के मंदिरों की निर्माण शैली थी, जिसकी  निम्न विशेषताएं है-
 वर्गाकार  गर्भ गृह।
 चबूतरा युक्त मंदिर।
 मंदिरों में  समतल छाते  या शिखर का प्रयोग।
 विशाल स्तंभ युक्त बरामदा।
 मंदिर के प्रवेश द्वार पर गंगा यमुना एवं पशु पक्षियों की आकृतियां।

 नागर शैली के मंदिरों का निर्माण उत्तर भारत में अनेक शासकों के काल में किया गया जिनमें प्रसिद्ध  निम्न है-
 खजुराहो मध्य प्रदेश के मंदिर,
 दिलवाड़ा के जैन मंदिर,
 कोणार्क का सूर्य मंदिर,
 पुरी का जगन्नाथ मंदिर,
 पापनाथ व लाढ़्खा  मंदिर,
 देवगढ़ का दशावतार मंदिर

 नोट- उत्तर भारत में ग्वालियर का तेली मंदिर एकमात्र ऐसा मंदिर है जो उत्तर भारत में होते हुए  भी  द्रविड़ शैली में बना हुआ है।

2  द्रविड़ शैली- दक्षिण भारत के मंदिर निर्माण शैली को द्रविड़ शैली कहा जाता है, जिसकी निम्न विशेषता है-
 गोलाकार एवं वृगाकार गर्भ  ग्रह।
 मंडप का प्रयोग।
 पिरामिडनुमा छत।
 विशाल प्रवेश द्वार, जिसको गोपुरम व तोरण द्वार कहते हैं।
 रथ मंदिर।
 मंदिर का निर्माण चबूतरे के बजाए धरातल पर।
 विशाल प्रांगण।

 द्रविड़ शैली के मंदिर का निर्माण चोल पल्लव एवं पाण्ड्य राजाओं के संरक्षण में हुआ। जिनमें निम्न प्रमुख है-
 तंजौर का राजेश्वर मंदिर ( वृद्ध राजेश्वर),
 कांची का कैलाशनाथ मंदिर,
 महाबलीपुरम का रथ मंदिर,
 कुंभकोंडम मंदिर,
 चिदंबरम मंदिर

3  बेसर शैली-   बेसर शैली के मंदिरों का निर्माण नागर एवं द्रविड़ शैली के मिश्रण से हुआ है। जिसमें मंदिरों का आकार, संरचना तो नागर शैली में है जबकि उनका अलंकरण द्रविड़ शैली में किया गया है।
 बेसर शैली के मंदिरों का विकास चालुक्य एवं होयसाल राजाओं के काल में हुआ है। जिनमें निम्न  प्रमुख है-
 हल बेदी का होयसलेश्वर मंदिर,
 एहलोल के मंदिर,
पतड़कल  के मंदिर।



गुप्तकालीन मंदिर-

 गुप्तकाल में नागर शैली के अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ जो निम्न है-
 देवगढ़ का दशावतार मंदिर,  UP
 नचना कुठार का पार्वती मंदिर,  मध्य प्रदेश
 कानपुर का भीतरगांव मंदिर,
 भूमरा का शिव मंदिर मध्य प्रदेश,
 तिगवा का विष्णु मंदिर मध्य प्रदेश,
लाड़खां का मंदिर उत्तर प्रदेश।

 नोट-  देवगढ़ का दशावतार मंदिर प्राचीन काल का भारत का प्रथम मंदिर है जिसमें पहली बार  शिखर का प्रयोग हुआ।
 कानपुर का भीतरगांव मंदिर पहला ऐसा मंदिर है जो पूर्णतया ईटों से निर्मित है।


2.  गुप्तकालीन चित्रकला-  अजंता चित्रकला,  बाघ की गुफाएं चित्रकला

1  अजंता चित्रकला- 1, 2, 9, 10, 16, 17, 19
 अजंता की चित्रकला महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित है. इसकी खोज 1819  मे जेम्स एलेग्जेंडर द्वारा की गई।
 अजंता की गुफाओं के चित्र धार्मिक विषय से संबंधित है जिस में बौद्ध धर्म एवं महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्रों का निर्माण किया गया है।
 इन गुफाओं में कुल 29  गुफाओं की खोज की गई, जिनमें से वर्तमान में केवल 7 ही विद्यमान है
1,2  चालू किस शासकों के काल में
9,10  सातवाहन शासकों के काल में
16, 17, 19  गुप्त शासक एवं वाकाटक काल में।

 नोट- गुफा संख्या 16 में मरणासन्न राजकुमारी के चित्र प्रसिद्ध है।  जब की गुफा संख्या 17 को चित्रशाला कहा  है। क्योंकि इनमें सबसे अधिक चित्र मिलते हैं।

2  बाघ की गुफाए, ग्वालियर मध्य प्रदेश-
 बाघ की गुफाओं की खोज  18 18 में डेंजर फिल्ड के द्वारा की गई।
 बाघ की गुफाओं के चित्र मनुष्य के लौकिक जीवन से संबंधित है।
 बाघ की गुफाओं में कुल गुफाओं की खोज की गई। जिनका निर्माण गुप्त एवं वाकाटक शासको के काल में किया गया। एवं इन गुफाओं में प्रसिद्ध चित्र नृत्य एवं गायन का चित्र है, जो कि सभी 9 गुफाओ में मिलता है

गुप्तकालीन साहित्य
गुप्त काल में संस्कृत भाषा एवं साहित्य का  चरम विकास हुआ, इसीलिए इस काल को संस्कृत भाषा एवं साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है।
संस्कृत भाषा गुप्त शासकों की राजकीय भाषा थी। एवं इस काल में अनेक विद्वानों द्वारा साहित्य की रचना की है एवं अन्य ग्रंथों को अंतिम रुप दिया गया जो निम्न है-
 पुराणों का अंतिम संकलन किया गया।
स्मृति साहित्य को  अंतिम रूप दिया गया और इस काल में नारद स्मृति, बृहस्पति स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति व  कात्यायन स्मृति की रचना की गई।
सबसे प्राचीनतम स्मृति मनुस्मृति है
महाकाव्य रामायण, महाभारत को अंतिम रुप दिया गया
कालिदास
1  अभिज्ञान शाकुंतलम्, 2  मालविकाग्निमित्र, 3  विक्रमोर्वशीय।
1  कुमारसंभव, 2  मेघदूत, 3  रघुवंश, 4  ऋतुसंहार।

 विशाखदत्त
1  देवीचंद्रगुप्तम, 2  मुद्राराक्षस।

भारवि-  किरातार्जुनीयम्।

शूद्रक-  मृच्छकटिकम्।

दंडिन-  दशकुमारचरित,  कातिया दर्श।

विष्णु शर्मा-  पंचतंत्र।

अमर सिंह-  अमरकोट।

सिद्ध सेन दिवाकर- न्यायवतार

राजेश्वर-  काव्यमीमांसा।


गुप्तकालीन विज्ञान

1  आर्यभट्ट जन्म 476 ईसवी476
यह प्रसिद्ध गणितज्ञ थे। जिनका जन्म संभवत पटना/ पाटलिपुत्र में हुआ। इसने आर्य  भट्टी नामक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की। तथा इतने गणित के क्षेत्र में निम्न सिद्धांतों का प्रतिपादन किया-
 शून्य का आविष्कार,
 दशमलव का आविष्कार,
 22/7,  पाई का आविष्कार,
 चंद्र ग्रहण एवं सूर्य ग्रहण के सिद्धांत का प्रतिपादन।



2  वराह मिहिर जन्म 5500
 यह भी प्रसिद्ध गणितज्ञ  एवं ज्योतिष थे।
 ज्योतिष के क्षेत्र में रोमक सिद्धांत तथा पोलिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
 इसमें निम्न पुस्तकों की रचना की-
1 पंथ सिद्धांतिका, 2 वृहत संहिता, 3 वृहत जातक, 4 लघु जातक।

3  ब्रह्मगुप्त 598-
 यहां प्रसिद्ध खगोलशास्त्री था, जिसने पृथ्वी पर गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसने ब्रह्म सिद्धांतिका नामक पुस्तक की रचना की।

4 भास्कर प्रथम 6000
 यह प्रसिद्ध सामान्य वैज्ञानिक था, जिसने पूर्ण वृत्ति वैज्ञानिक सिद्धांतों की पुष्टि की। इन्होंने निम्न प्रश्नों की रचना की
 भास्कराचार्य,  वृहत भास्कर, लघु भास्कर

 नोट
धनवंतरी-  आयुर्वेद के चिकित्सक थे।
पालकाप्य-  पशु चिकित्सक थे। इन्होंने हास्यायुर्वेद नामक ग्रंथ की रचना की।
वाग्भट-  शल्य चिकित्सक।
नागार्जुन-  रसायन शास्त्री

गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था
       
        गुप्तकालीन प्रशासन व्यवस्था का केंद्र बिंदु सम्राट होता था एवं प्रशासन में विकेंद्रीकरण एवं सामंतवाद के लक्षण निहित थे। गुप्त शासकों की राज्य मुद्रा  दीनार, राजकीय  भाषा संस्कृत, राजकीय चिन्ह गरुड तथा राजकीय धर्म वैष्णव था।
प्रशासन में सहायता एवं सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी, जिसकी नियुक्ति स्वयं सम्राट करता था एवं केंद्रीय प्रशासन निम्न अधिकारियों द्वारा संचालित होता था-
महामात्य-   उच्च एवं विशेष अधिकारियों का वर्ग।
महा संधि विग्रहक- हरि सेन-  शांति एवं विदेश मंत्री।
महाबलाधिकृत-  सेनापति।
महा अक्षपटलिक-  भू संबंधित अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाला अधिकारी।

ध्रुवाधिकारी-  राजस्व एकत्रित करता।
न्यायाधिकरण-  भू-संबंधी विवादों का निपटारा करने वाला अधिकारी।
महागण  नायक-  न्याय  तथा युद्ध का मंत्री।
दंडपाशिक-  पुलिस विभाग का अधिकारी।

गुप्त काल में प्रांतों को देश/ अवनी/ भूक्ति कहा जाता था। तथा इसके प्रमुख को उपरिक/भोक्ता कहा जाता था।
गुप्त काल में राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि कर था, जिसको भागउद्धगउपरि  कहा जाता था
राज्यकी भूमि से लिया जाने वाला भूमि कर-  भाग
किसानों से लिया जाने वाला भूमि कर- उद्रग/उपरि

नोट- गुप्त काल में गुप्त शासकों के द्वारा महाराजाधिराज एवं परम भागवत की उपाधि धारण की गई।

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