शकों
का भारत में प्रवेश
मगध के विशाल
साम्राज्य की शक्ति के क्षीण होने पर जिन विदेशी आक्रान्ताओं के आक्रमण भारत पर शुरू हुए, उनमें
से डेमेट्रियस और
मीनान्डर सदृश यवन विजेताओं ने भारत के उत्तर-पश्चिमी
प्रदेशों में अपने अनेक राज्य स्थापित किए, और उनके वंशधरों
ने उनका शासन किया। पर इस युग में (दूसरी सदी ई. पू. और उसके बाद) यवनों (बैक्ट्रिया के
ग्रीक) के अतिरिक्त पार्थियन और शक लोगों ने भी इस देश पर अनेक आक्रमण किए। विशाल सीरियन साम्राज्य की
अधीनता से मुक्त होकर जिन राज्यों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की थी, उनमें से एक बैक्ट्रिया था और दूसरा पार्थिया। पार्थिया राज्य में वह
देश अंतर्गत था, जिसे अब ईरान कहा जाता है।
शक जाति
बैक्ट्रिया के यवन राज्य का अन्त शक जाति के
आक्रमण द्वारा हुआ था। इन शक लोगों का मूल निवास स्थान सीर नदी की घाटी में था।
दूसरी सदी ई. पू. में उन पर उत्तर-पूर्व की ओर से 'युइशि जाति' ने आक्रमण किया। युइशि लोग तिब्बत के उत्तर-पश्चिम में तकला-मकान की
मरुभूमि के सीमान्त पर निवास करते थे। ये बड़े ही वीर और योद्धा थे। हूणों के आक्रमण के कारण ये अपने प्राचीन अभिजन
को छोड़कर आगे बढ़ जाने के लिए विवश हुए थे। प्राचीन काल में हूण जाति उत्तरी चीन में निवास करती थी, और
चीन के सभ्य राज्यों पर आक्रमण करती रहती थी। उन्हीं के हमलों से अपने देश की
रक्षा करने के लिए चीन के शक्तिशाली सम्राट शी-हुआँग-ती (246-210 ई. पू.) ने उस विशाल दीवार का निर्माण कराया था, जो
अब तक भी उत्तरी चीन में विद्यमान है। इस दीवार के कारण हूण लोगों के लिए चीन पर
आक्रमण करना सम्भव नहीं रहा, और उन्होंने पश्चिम की ओर बढ़ना
शुरू किया। हूण लोग असभ्य और बर्बर थे, और लूट-मार के द्वारा
ही अपना निर्वाह करते थे। हूणों ने प्रचण्ड आँधी के समान पश्चिम की ओर बढ़ना शुरू
किया, और युइशि लोगों को जीत लिया। उनकी राजा की युद्ध
क्षेत्र में मृत्यु हुई। विधवा रानी के नेतृत्व में युइशि लोग अपने प्राचीन अभिजन
को छोड़कर आगे बढ़ने के लिए विवश हो गए। सीर नदी की घाटी में उस समय शकों का निवास
था। युइशि जाति ने उन पर हमला कर दिया, और शक उनसे परास्त हो
गए। विवश होकर शकों को अपना प्रदेश छोड़ना पड़ा, और उनके
विविध जन (क़बीले) विविध में आगे बढ़े। हूणों ने युइशियों को धकेला, और युइशियों ने शकों को। हूणों की बाढ़ ने युइशि जाति के प्रदेश को
आक्रांत कर दिया, और शकों के प्रदेश पर युइशि छा गए। यही समय
था, जब शकों की एक शाखा ने बैक्ट्रिया पर आक्रमण किया और
वहाँ के यवन राजा हेलिओक्लीज़ को परास्त किया। शक लोगों की जिस शाखा ने बैक्ट्रिया
की विजय की थी, वह हिन्दुकुश पर्वत को पार कर भारत में
प्रविष्ट नहीं हुई। इसीलिए हेलिओक्लीज़ का शासन उत्तर-पश्चिमी भारत में क़ायम रहा।
शकों का पार्थिया पर आक्रमण
बैक्ट्रिया को जीत कर शक लोग दक्षिण-पश्चिम की
ओर मुड़े। वंक्षु नदी के पार उस समय पार्थिया का राज्य था। वहाँ के राजाओं के लिए
यह सुगम नहीं था, कि वे शक आक्रमण का भली-भाँति मुक़ाबला कर
सकते। 128 ई. पू. के लगभग पार्थियन राजा फ़्रावत द्वितीय ने
शकों की बाढ़ को रोकने का प्रयत्न किया। पर वह सफल नहीं हो सका। शकों के साथ युद्ध
करते हुए रणक्षेत्र में ही उसकी मृत्यु हुई। उसके उत्तराधिकारी राजा आर्तेबानस के
समय में शक लोग पार्थियन राज्य में घुस गए और उसे उन्होंने बुरी तरह से लूटा।
आर्तेबानस भी शकों से लड़ते हुए मारा गया। आर्तेबानस के बाद मिथिदातस द्वितीय (123-88
ई. पू.) पार्थिया का राजा बना। उसने शकों के आक्रमणों से अपने राज्य
की रक्षा करने के लिए घोर प्रयत्न किया और उसे इस काम में सफलता भी प्राप्त हुई।
मिथिदातस की शक्ति से विवश होकर शकों का प्रवाह पश्चिम की तरफ़ से हटकर
दक्षिण-पूर्व की ओर हो गया। परिणाम यह हुआ, कि अब शकों ने
भारत पर आक्रमण शुरू किया। उनके भारत आक्रमण का समय 123 ई.
पू. के लगभग है।
भारत में प्रवेश
पार्थिया को जीत सकने में असमर्थ होकर शकों ने
सीस्तान और सिन्ध मार्ग से भारत में प्रवेश किया। भारत के जिस प्रदेश को शकों ने
पहले-पहल अपने अधीन किया,
वह मगध साम्राज्य
के अधीन नहीं था। सम्भवतः वहाँ भी यवनों के छोटे-छोटे राज्य स्थापित थे। सिन्ध नदी के तट पर स्थित मीननगर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया। भारत
का यह पहला शक राज्य था। यहीं से उन्होंने भारत के अन्य प्रदेशों में अपना प्रसार
किया। एक जैन अनुश्रुति के
अनुसार भारत में शकों को आमंत्रित करने का श्रेय आचार्य कालक को है। यह जैन आचार्य उज्जैन के निवासी थे, और
वहाँ के राजा गर्दभिल्ल के अत्याचारों से तंग आकर सुदूर पश्चिम के पार्थियन राज्य
(पारस कुल) में चले गए थे। जब पार्थिया के शक्तिशाली राजा मिथिदातस द्वितीय की
शक्ति के कारण शक लोग परेशानी का अनुभव कर रहे थे, तो
कालकाचार्य ने उन्हें भारत आने के लिए प्रेरित किया। कालक के साथ शक लोग सिन्ध में
प्रविष्ट हुए, और वहाँ पर उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया।
इसके बाद उन्होंने सौराष्ट्र को जीतकर उज्जयिनी पर
भी आक्रमण किया, और वहाँ के राजा गर्दभिल्ल को परास्त किया।
यद्यपि शकों की मुख्य राजधानी मीननगर थी, पर भारत के विविध
प्रदेशों में उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित किए, जो
सम्भवतः मीननगर के शकराज की अधीनता स्वीकार करते थे। ये विविध शकराज्य था।
शकक्षत्रपों के कुल निम्नलिखित थे -
1. सिन्ध
और पश्चिमी भारत का शक कुल
2. महाराष्ट्र
का शक-क्षत्रप कुल
3. मथुरा
का शक-क्षत्रप कुल
4. गान्धार
का शक कुल।
लगभग ई. पू. 165 में यह
क़बीला 'यूची' नामक एक अन्य क़बीले के
द्वारा मध्य एशिया से खदेड़ दिया गया था। इसने आगे बढ़ते हुए बैक्ट्रिया, पार्थिया आदि पर आक्रमण किया, फिर और आगे बढ़कर हिन्द पार्थियन राजाओं से युद्ध किया। भारत में शक राजा अपने आप को 'क्षत्रप' कहते थे। शक शासकों की भारत में दो शाखाएँ
हो गई थीं। एक उत्तरी क्षत्रप कहलाते थे जो तक्षशिला एवं मथुरा में थे और
दूसरे 'पश्चिमी क्षत्रप' कहलाते थे जो नासिक एवं उज्जैन के थे। पश्चिमी क्षत्रप अधिक प्रसिद्ध थे। यूची आक्रमणों के भय से कई
क्षत्रप ई. पू. पहली शती से ईस्वी की पहली शती के बीच उत्तर पश्चिम से दक्षिण की
ओर बढ़ आए थे और नासिक के क्षत्रपों तथा उज्जैन के क्षत्रपों की दो शाखाओं में बँट
गए थे। नासिक के क्षत्रपों में दो प्रसिद्ध शासक भूमक और नहपान थे। वे
अपने को 'क्षयरात क्षत्रप' कहते थे।
·
ताँबे के सिक्कों में भूमक ने अपने
आपकों क्षत्रप लिखा है।
·
नहपान के अभिलेख में 41 से 46 तक तिथियाँ हैं, जो
सम्भ्वतः 78 ई. में प्रारम्भ होने वाले संवत में है। इसलिए
नहपान का राज्यकाल 119 से 124 ई. तक
स्थिर होता है। नहपान ने अपने सिक्कों में अपने आप को 'राजा'
लिखा है। प्रारम्भिक अभिलेखों में अपने को क्षत्रप लिखता है किन्तु
वर्ष 46 के अभिलेख में महाक्षत्रप।
अभिलेखों के आधार पर प्रतीत होता है कि नहपान का राज्य उत्तर में राजपूताना तक था।
उसके राज्य में काठियावाड़, दक्षिणी गुजरात, पश्चिमी मालवा, उत्तरी कोंकण, पूना
आदि शामिल थे। उसने महाराष्ट्र के एक बड़े भू भाग को सातवाहन राजाओं से छीना था। नहपान के समय भड़ौच एक बंदरगाह था। उज्जैन, प्रतिष्ठान आदि से बहुत सा व्यापारिक सामान लाकर वहाँ पर एकत्र किया जाता
था। वहाँ से यह सामान पश्चिमी देशों को भेजा जाता था।
·
उज्जयिनी का पहला स्वतंत्र शक शासक चष्टण था। इसने अपने अभिलेखों में शक संवत का प्रयोग किया है। इसके अनुसार इस
वंश का राज्य 130 ई. से 388 ई. तक चला,
जब सम्भवतः चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने इस कुल को समाप्त किया। ये शक 'कार्द्धमक क्षत्रप'
कहलाते थे। उज्जैन के क्षत्रपों में सबसे प्रसिद्ध रुद्रदामा (130
ई. से 150 ई.) था।
·
इसके जूनागढ़ अभिलेख से प्रतीत होता
है कि पूर्वी पश्चिमी मालवा, द्वारका के आसपास के प्रदेश,
सौराष्ट्र, कच्छ, सिंधु
नदी का मुहाना, उत्तरी कोंकण, मारवाड़,
आदि प्रदेश उनके राज्य में सम्मिलित थे।
·
ऐसा प्रतीत होता है कि रुद्रादामा
या पूर्वजों ने मालवा,
सौराष्ट्र, कोंकण आदि प्रदेशों को सातवाहनों
से जीता। रुद्रदामा ने दुबारा अपने समकालीन शातवर्णी राजा को हराया, परन्तु निकट सम्बन्धी होने के कारण उसे नष्ट किया। यह शातकर्णी सम्भवतः
वशिष्ठीपुत्र पुलुमावि था। सम्भवतः सिंधु नदी की घाटी रुद्रदामा ने कुषाण राजा से जीती थी। वह सुदर्शन झील, जिसे चंद्रगुप्त मौर्य ने बनवाया था और जिसकी मरम्मत अशोक ने करवाई थी, रुद्रदामा के समय फिर टूट गई। तब उसने
निजी आय से इसकी मरम्मत कराई और प्रजा से इसके लिए कोई कर नहीं लिया।
·
रुद्रदामा व्याकरण, राजनीति, संगीत एवं तर्कशास्त्र का पंडित था।
जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में
है और इससे उस समय के संस्कृत के साहित्य के विकास का अनुमान होता है।
·
यद्यपि शक साम्राज्य चौथी शताब्दी
ईस्वी तक चलता रहा किन्तु रुद्रदामा के पश्चात् शक साम्राज्य की शक्ति का ह्रास
प्रारम्भ हो गया था। इस वंश का अन्तिम राजा रुद्रसिंह तृतीय था। चंद्रगुप्त
विक्रमादित्य ने उसे मारकर पश्चिमी क्षत्रपों के राज्य को गुप्त साम्राज्य में
मिला लिया।
सिन्ध
और पश्चिमी भारत का शक राज्य
मीननगर को राजधानी बनाकर शक आक्रान्ताओं ने
सिन्ध में अपना जो राज्य स्थापित किया था, वह भारत के शक
राज्यों में सर्वप्रधान था। अन्य शक राज्यों के शासक क्षत्रप या महाक्षत्रप कहाते
थे, जिससे यह परिणाम निकलता है कि वे स्वतंत्र राजा न होकर
किसी शक्तिशाली महाराजा की अधीनता स्वीकार करते थे। शकों के इस महाराजा की राजधानी
मीननगर ही थी। वहाँ के एक राजा का नाम मोअ था। पंजाब के जेलहम
ज़िले में मैरा नामक गाँव के एक कुएँ से एक शिला प्राप्त हुई है, जिस पर उत्कीर्ण लेख से मोअ नाम के शक राजा का परिचय मिलता है। इसी प्रकार तक्षशिला के भग्नावशेषों में एक ताम्र-पात्र पर मोग नाम के एक शक राजा का उल्लेख है, जिसके नाम के साथ 'महाराज' और 'महान' विशेषण दिए गए हैं। सम्भवतः मोअ और मोग एक ही
व्यक्ति के सूचक हैं। इस मोग के बहुत से सिक्के पश्चिमी पंजाब में प्राप्त हुए हैं,
जो कि यवन सिक्कों के नमूने पर बने हुए हैं। इन सिक्कों का लेख इस
प्रकार है - राजाधिराजस महतस मोअस। इस लेख से इस बात
में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि शक राजा मोअ या मोग की स्थिति क्षत्रप या
महाक्षत्रप से अधिक ऊँची थी। वह राजाधिराज और महान् था, और
शकों के अन्य राजकुल उसकी अधीनता स्वीकार करते थे। इस शक राजाधिराज का शासन पश्चिम
में पुष्कलावती से लगाकर
पूर्व में तक्षशिला और दक्षिण में सिन्ध तक विस्तृत था।
महाराष्ट्र का शक क्षत्रप कुल
मीननगर के शक महाराज की अधीनता में जो सबसे अधिक
शक्तिशाली शक क्षत्रप थे,
उनका शासन काठियावाड़, गुजरात, कोंकण, पश्चिमी महाराष्ट्र और मालवा तक के
प्रदेशों में विद्यमान था। इस विशाल राज्य पर शासन करने वाले शक कुल को 'क्षहराज' कहते हैं। इसकी राजधानी सम्भवतः भरुकच्छ
(सौराष्ट्र) में थी। पर इनके बहुत से उत्कीर्ण लेख महाराष्ट्र में उपलब्ध हुए हैं। इसी कारण से
इन्हें 'शक कुल' भी कहा जाता है। शकों
के क्षहरात कुल का पहला क्षत्रप भूमक था। उसके अनेक सिक्के उपलब्ध हुए हैं। जो महाराष्ट्र और काठियावाड़ से
मिले हैं। इससे अनुमान किया जाता है कि महाराष्ट्र और काठियावाड़ दोनों उसके शासन
में थे।
पर क्षहरात कुल का सबसे प्रसिद्ध शक क्षत्रप नहपान था।
इसके सात उत्कीर्ण लेख और हज़ारों सिक्के उपलब्ध हुए हैं। सम्भवतः यह भूमक का ही
उत्तराधिकारी था, पर इसका भूमक के साथ क्या सम्बन्ध था,
यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। नहपान का राज्य बहुत ही
विस्तृत था। यह बात उसके जामाता उषावदात के एक लेख से ज्ञात होती है। इस लेख के कुछ अंश निम्नलिखित हैं -
'"सिद्ध हो। राजा क्षहरात क्षत्रप नहपान के जामाता, दीनाक
के पुत्र, तीन लाख गौओं का दान करने वाले, बार्णासा (नदी) पर सुवर्णदान करने वाले, देवताओं और
ब्राह्मणों को सोलह ग्राम देने वाले, सम्पूर्ण वर्ष
ब्राह्मणों को भोजन कराने वाले, पुण्यतीर्थ प्रभास में
ब्राह्मणों को आठ भार्याएँ देने वाले, भरुकच्छ दशपुर गोवर्धन
और शोर्पारण में चतुःशाल वरुध और प्रतिश्रय देने वाले, आराम,
तडाग, उदपान बनवाने वाले, इवा पारातापी करवेणा दाहानुका (नदियों पर) नावों और धर्मात्मा उपावदात ने
गोवर्धन में त्रिरशिम पर्वत पर यह लेण बनवाई'
उषावदात का यह लेख नासिक के पास एक गुहा की दीवार पर उत्कीर्ण है।
इसी गुहा पर एक अन्य लेख में उषावदात ने लिखा है, कि
"मैं पोक्षर को गया हूँ, और वहाँ पर मैंने अभिषेक
(स्नान) किया, तीन हज़ार गौएँ और गाँव दिया।" नासिक
गुहा के इन लेखों से क्षत्रप नहपान के राज्य की सीमा के सम्बन्ध में अच्छे निर्देश
प्राप्त होते हैं। उषावदात ने पोक्षर (पुष्कर) में अभिषेक
स्नान किया था। अतः सम्भवतः अजमेर के समीपवर्ती प्रदेश नहपान के राज्य के अंतर्गत थे। इस लेख में उल्लिखित
प्रभास (सोमनाथ पाटन) सौराष्ट्र (काठियावाड़) में है। भरुकच्छ की स्थिति भी इसी
प्रदेश में है। गोवर्धन नासिक का नाम है। शोर्पारण (सोपारा) कोंकण में है। इस
प्रकार इस लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि काठियावाड़, महाराष्ट्र
और कोंकण अवश्य ही क्षत्रप नहपान के राज्य के अंतर्गत थे। नासिक के लेख में जिन
नदियों का उल्लेख है, उनका सम्बन्ध गुजरात में है। अतः इस प्रदेश को भी नहपान के
राज्य के अंतर्गत माना जाता है।
नासिक के इस गुहालेख के समीप ही उषावदात का एक
अन्य लेख भी उपलब्ध हुआ है। जिसमें दाहूनक नगर और कंकापुर के साथ उजेनि (उज्जयिनी) का भी उल्लेख है। इन नगरों में भी उषावदात ने ब्राह्मणों को बहुत कुछ
दान-पुण्य किया था। इससे भी यह अनुमान किया जाता है कि उज्जयिनी भी नहपान के
अंतर्गत थी। उज्जयिनी के नहपान के अधीन होने की बात जैन और पौराणिक अनुश्रुतियों
द्वारा भी पुष्ट होती है। जैन अनुश्रुति में उज्जयिनी के राजाओं का उल्लेख करते
हुए गर्दभिल्ल के बाद नहवाण नाम दिया गया है। इसी प्रकार पुराणों में अन्तिम शुंग राजाओं के समकालीन विदिशा के राजा को नख़वानजः (नख़वान का पुत्र)
कहा गया है। सम्भवतः ये नहवाण व नख़वान क्षहरात वंशी क्षत्रप नहपान के ही रूपान्तर
हैं। इसमें सन्देह नहीं कि नहपान बहुत ही शक्तिशाली क्षत्रप था, और उसका राज्य काठियावाड़ से मालवा तक विस्तृत था। सम्भवतः नहपान ने अपनी
शक्ति का विस्तार करने के लिए बहुत से युद्ध किए थे, और
इन्हीं के कारण उसकी स्थिति 'क्षत्रप' से
बढ़कर महाक्षत्रप की हो गई
थी। उषावदात के नासिकवाले लेख में उसे केवल 'क्षत्रप'
कहा गया है। पर पूना के समीप उपलब्ध हुए एक अन्य गुहालेख में उसके नाम के साथ 'महाक्षत्रप' विशेषण आता है।
महाक्षत्रप नहपान के उत्तराधिकारियों के सम्बन्ध
में कुछ विशेष ज्ञान नहीं होता। सातवाहन वंश के प्रतापी राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने क्षहरात कुल के द्वारा शासित प्रदेशों को शकों के शासन से स्वतंत्र
किया था।
मथुरा
के शक क्षत्रप
सिन्ध से शकों की शक्ति का विस्तार काठियावाड़, गुजरात, कोंकण,
महाराष्ट्र और मालवा में हुआ, और वहाँ से
उत्तर की ओर मथुरा में। सम्भवतः उज्जयिनी की विजय के बाद ही शकों ने मथुरा पर अपना
आधिपत्य स्थापित किया था। मथुरा के शक क्षत्रप भी क्षहरात कुल के थे। इन क्षत्रपों
के बहुत से सिक्के मथुरा व उसके समीपवर्ती प्रदेशों से उपलब्ध हुए हैं। मथुरा के
प्रथम शक क्षत्रप हगमाश और हगान थे। उनके बाद रञ्जुबुल और उसका पुत्र शोडास
क्षत्रप या महाक्षत्रप पद पर
अधिष्ठित हुए। शोडास के बाद मेवकि मथुरा का महाक्षत्रप बना। मथुरा के शक क्षत्रपों
ने पूर्वी पंजाब को जीतकर अपने अधीन किया था। वहाँ पर अनेक यवन राज्य विद्यमान थे,
जिनकी स्वतंत्र सत्ता इन शकों के द्वारा नष्ट की गई। साथ ही कुणिन्द
गण को भी इन्होंने विजय किया। गार्गीसंहिता से युग पुराण में शकों द्वारा कुणिन्द
गण के विनाश का उल्लेख है। शोडास ने जो 'महाक्षत्रप' का पद ग्रहण किया था, वह सम्भवतः इन्हीं विजयों का
परिणाम था। मथुरा के इन शक क्षत्रपों की बौद्ध-धर्म में बहुत भक्ति थी। मथुरा के
एक मन्दिर की सीढ़ियों के नीच दबा हुआ, एक सिंहध्वज मिला है,
जिसकी सिंहमूर्तियों के आगे-पीछे तथा नीचे ख़रोष्ठी लिपि में एक लेख
उत्कीर्ण है। इस लेख में महाक्षत्रप रञ्जुबुल या रजुल की अग्रमहिषी द्वारा शाक्य मुनि बुद्ध के
शरीर-धातु को प्रतिष्ठापित करने और बौद्ध विहार को एक ज़ागीर दान देने का उल्लेख
है। मथुरा से प्राप्त हुए एक अन्य लेख में महाक्षत्रप शोडास के शासन काल में 'हारिती के पुत्र पाल की भार्या' मोहिनी द्वारा
अर्हत् की पूजा के लिए एक मूर्ति की प्रतिष्ठा का उल्लेख किया गया है। इसमें
सन्देह नहीं कि महाराष्ट्र के क्षहरात शक क्षत्रपों के समान मथुरा के शकों ने भी
इस देश के धर्मों को अंगीकार कर लिया था।
गान्धार
का शक कुल
शक लोगों की शक्ति केवल काठियावाड़, गुजरात, कोंकण, महाराष्ट्र,
मालवा, मथुरा और पूर्वी पंजाब तक ही सीमित
नहीं रही, उन्होंने गान्धार तथा पश्चिमी पंजाब पर भी अपना
आधिपत्य स्थापित कर लिया। इन प्रदेशों में शकों के बहुत से सिक्के उपलब्ध हुए हैं,
और साथ ही अनेक उत्कीर्ण लेख भी। इनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण लेख
तक्षशिला से प्राप्त हुआ है, जो एक ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण
है। इस लेख के अनुसार महाराज महान् मोग के राज्य में क्षहरात चुक्ष के क्षत्रप
लिअक कुसुलक के पुत्र पतिक ने तक्षशिला में भगवान शाक्य मुनि के अप्रतिष्ठापित
शरीर धातु को प्रतिष्ठापित किया था। इस लेख से यह स्पष्ट है कि तक्षशिला के शक
क्षत्रप भी क्षहरात वंश के थे, और उनके अन्यतम क्षत्रप का नाम
'लिअक कुसुलक' था, जिसके पुत्र पतिक ने शाक्य मुनि के शरीर धातु की प्रतिष्ठा करने की स्मृति
में यह लेख उत्कीर्ण कराया था। तक्षशिला या गान्धार के क्षत्रप स्वतंत्र राजा नहीं
थे, अपितु महाराज मोग की अधीनता स्वीकृत करते थे। क्षत्रप
लिअक कुसुलक के अनेक सिक्के भी उपलब्ध हुए हैं।
उज्जैन
के क्षत्रप
मालवा के शक क्षत्रपों का एक अन्य
कुल भी शासन करता था,
जिसका प्रथम शासक यसामोतिक का पुत्र चष्टन था। इसी के वंश में आगे चलकर रुद्रदामन हुआ, जिसने दूर-दूर तक अपनी शक्ति का विस्तार किया।
शक
शासन का काल
भारत के शक क्षत्रपों और शक
महाराजाओं का जो वृत्तान्त हमने ऊपर लिखा है, उसमें कहीं काल या
तिथि का निर्देश नहीं किया गया। इसका कारण यह है, कि इन शक
शासकों के काल के सम्बन्ध में बहुत विवाद है। इनके लेखों व सिक्कों पर बहुधा किसी
संवत् का उल्लेख मिलता है। तक्षशिला में उपलब्ध जिस ताम्रपत्र का ज़िक़्र हमने अभी
ऊपर किया है, उस पर संवत् 78 लिखा है।
पर शकों के लेखों व सिक्कों पर उल्लिखित ये वर्ष किस संवसू का निर्देश करते हैं,
यह अभी निश्चित नहीं हो सका है। कोई भी दो ऐतिहासिक इन शक राजाओं व
क्षत्रपों के काल के सम्बन्ध में अविकल रूप से एकमत नहीं हो सके हैं। इस दशा में
इनके काल को निर्धारित करने का प्रयत्न व्यर्थ सा ही है। पर स्थूल रूप से यह कहा
जा सकता है कि दूसरी सदी ई.
पू. के अन्त और पहली सदी ई.
पू. के प्रारम्भिक भाग में शकों ने भारत में अपनी शक्ति का विस्तार किया, और अपने विविध राज्य क़ायम किए। पहली सदी में ई. पू. के मध्यभाग में सातवाहन वंशी राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि और
मालवगण के प्रयत्न से शकों की शक्ति क्षीण होनी शुरू हो गई, और
धीरे-धीरे उनके स्वतंत्र व पृथक् राज्यों का अन्त हो गया।
भूमक शकों के क्षहरात वंश का प्रथम क्षत्रप था। उसे सम्भवत: कुषाण साम्राज्य के दक्षिण-पश्चिमी भाग के शासन का भार सौंपा गया था। उसके जो सिक्के
प्राप्त हुए हैं, उनके प्रकार तथा उन पर लिखित अभिलेखों से
ज्ञात होता है कि भूमक नहपान का पूर्वगामी था। परंतु दोनों के बीच वास्तविक सम्बन्ध क्या था, यह ज्ञात नहीं है। भूमक के सिक्कों से ज्ञात होता है कि क्षत्रप के राज्य
में सिर्फ़ ब्राह्मी के
प्रचलन वाले क्षेत्र, जैसे- मालवा, गुजराततथा सौराष्ट्र ही नहीं थे, बल्कि पश्चिमी राजस्थान तथा सिन्ध के भी क्षेत्र थे, जहाँ खरोष्ठी का प्रचलन था।
·
नहपान 'क्षहरात वंश' का ख्यातिप्राप्त व बहुत ही योग्य शासक
था। भूमक के बाद उसे ही
क्षहरात वंश का शासक व गद्दी का वास्तविक उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया था। इसका
शासनकाल सम्भवतः 119 से 224 ई. तक रहा।
नहपान ने अपनी मुद्राओं पर 'राजा' की
उपाधि धारण की थी।
· नहपान का साम्राज्य उत्तर में अजमेर एवं राजपूताना तक विस्तृत था। इसके अन्तर्गत काठियावाड़,
दक्षिणी गुजरात, पश्चिमी मालवा, उत्तरी कोंकण, नासिक
व पूना आदि
सम्मिलित थे।
·
ऋषदत्त (उषादत्त) जो कि नहपान का
दामाद था,
नहपान के समय में उसके दक्षिणी प्रान्त गोवर्धन (नासिक) तथा मामल्ल (पूना) का वायसराय था।
·
नहपान के समय में स्वर्ण के कर्षापण का विनिमय दर 1:35 था।
· इसके समय में भड़ौच बन्दरगाह द्वारा उज्जैन, प्रतिष्ठान से लाए गए व्यापारिक सामान को
पश्चिमी देशों को भेजा जाता था।
·
सम्भवतः सातवाहन नरेश गौतमी
शातकर्णी ने नहपान को परास्त कर उसकी हत्या कर दी थी,
जिसका साक्ष्य 'जोगलथम्बी' में पाए गए सिक्कों से होता है।
·
कुछ लोग नहपान को ही शक संवत का प्रवर्तक मानते हैं।
·
राजुबुल की पत्नी कंबोजिका ने मथुरा में यमुना नदी के तट
पर एक बौद्ध-बिहार निर्मित कराया था, जिसके लिए शोडास ने कुछ भूमि दान में दी थी। राजबुल अथवा
राजवुल (प्रथम शताब्दी) मथुरा का इन्डो सीथियन शासक 1869 ई. में मथुरा से पत्थर का
यह 'सिंह-शीर्ष' मिला जो लंदन के 'ब्रिटिश
म्यूज़ियम' में रखा हुआ है। इस पर खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में कई लेख हैं। इनमें क्षत्रप शासकों के नाम मिलते हैं।
· एक शिलालेख में महाक्षत्रप राजुबुल की
पटरानी कमुइअ (कंबोजिका) के द्वारा बुद्ध के अवशेषों पर एक स्तूप तथा एक 'गुहा विहार' नामक मठ
बनवाने का उल्लेख मिलता है। संभवत: यह मठ मथुरा में यमुना-तट पर
वर्तमान सप्तर्षि टीला पर रहा होगा। यहीं से ऊपर उल्लेखित 'सिंह-शीर्ष'
मिला था।
राजबुल / राजवुल / रजुबुल / रंजुबुल / राजुल
राजबुल अथवा राजवुल (प्रथम शताब्दी) मथुरा का इन्डो सीथियन शासक। 1869 ई. में मथुरा से पत्थर का यह 'सिंह-शीर्ष' मिला जो लंदन के 'ब्रिटिश म्यूज़ियम में रखा हुआ है। इस पर खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में कई लेख हैं। इनमें क्षत्रप शासकों के नाम मिलते हैं। एक शिलालेख में महाक्षत्रप राजुबुल की पटरानी कमुइअ (कंबोजिका) के द्वारा बुद्ध के अवशेषों पर एक स्तूप तथा एक 'गुहा विहार' नामक मठ
बनवाने का उल्लेख मिलता है। संभवत: यह मठ मथुरा में यमुना-तट पर
वर्तमान सप्तर्षि टीला पर रहा होगा। यहीं से ऊपर उल्लेखित 'सिंह-शीर्ष'
मिला था। इसके नाम रजुबुल, रंजुबुल और राजुल
भी मिलते हैं। यह पहले शाकल का
शासक था। हगान और हगामष से इसका क्या संबंध था, यह स्पष्ट
नहीं।
शोडास (80
से ई. पूर्व 57 ई. पूर्व)
राजुबुल (राजवुल)
का पुत्र था। शोडास ने मथुरा पर लम्बे समय तक शासन किया। राजबुल के बाद उसका पुत्र
शोडास (लगभग ई. पूर्व 80-57) शासनाधिकारी हुआ। 1869 ई. में मथुरा से पत्थर के एक 'सिंह-शीर्ष' के शिलालेख पर शोडास की उपाधि 'क्षत्रप' अंकित है, किन्तु मथुरा में ही मिले अन्य शिलालेखों में उसे 'महाक्षपत्र'
कहा गया है। अनेक सिक्कों का मिलना इसका प्रमाण है। जिन पर “महाक्षत्रप” सम्बोधन है। कंकाली टीला (मथुरा)
से प्राप्त एक शिलापट्ट पर सं0 72 का ब्रह्मी लेख है,
जिसके अनुसार 'स्वामी महाक्षत्रप' शोडास के शासनकाल में जैन भिक्षु की शिष्या अमोहिनी ने एक जैन विहार की स्थापना की । राजुबुल की
पत्नी कंबोजिका ने मथुरा में यमुना नदी के तट पर एक बौद्ध-बिहार निर्मित कराया था, जिसके
लिए शोडास ने कुछ भूमि दान में दी थी । मथुरा के हीनयान मत वाले बौद्धों की 'सर्वास्तिवादिन्' नामक शाखा के भिक्षुओं के निर्वाह के लिए यह दान दिया गया था। सिंह-शीर्ष
के इन खरोष्ठी लेखों से ज्ञात होता है कि शोडास के काल में मथुरा के बौद्धों में
हीनयान तथा महायान (महासंधिक)--
मुख्यतः इन दोनों शाखाओं के अनुयायी थे और इनमें परस्पर वाद-विवाद भी होते थे।
शोडाष
के सिक्के
शोडाष के सिक्के दो प्रकार के है, पहले वे है जिन पर सामने की तरफ खड़ी हुई लक्ष्मी की मूर्ति तथा दूसरी तरफ लक्ष्मी का अभिषेक चित्रित है। इन सिक्कों पर हिन्दी में 'राजुबुल पुतस
खतपस शोडासस' लिखा हुआ है । दूसरे प्रकार के सिक्कों पर लेख
में केवल 'महाक्षत्रप शोडासस' चित्रित
है । इससे अनुमान होता है कि शोडाष के पहले वाले सिक्के उस समय के होगें जब उसका
पिता जीवित रहा होगा और दूसरे राजुबुल की मृत्यु के बाद, जब
शोडाष को राजा के पूरे अधिकार मिल चुके होगें । शोडाष
तथा राजुबुल के सिक्के हिंद -यूनानी शासक स्ट्रैटो तथा मथुरा के मित्र-शासकों के
सिक्कों से बहुत मिलते-जुलते हैं । शोडाष के अभिलेखों में सबसे महत्त्वपूर्ण वो
लेख है जो एक सिरदल (धन्नी) पर उत्कीर्ण है। यह सिरदल मथुरा छावनी के एक कुएँ पर
मिली थी, जो कटरा केशवदेव से लाई गई प्रतीत होती है।
शासन
काल
महाक्षत्रप शोडाष का शासन-काल ई.
पूर्व 80
से ई. पूर्व 57 के बीच माना जाता है। यह सबसे
पहला अभिलेख है जिसमें मथुरा में कृष्ण-मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है। शोडाष का समकालीन तक्षशिला का शासक पतिक था। मथुरा के उक्त सिंह-
शीर्ष पर खुदे हुए एक लेख में पतिक की उपाधि 'महाक्षत्रप'
दी हुई है। तक्षशिला से प्राप्त सं078 में एक
दूसरे शिलालेख में 'महादानपति' पतिक का
नाम आया है। सम्भवतः ये दोनो पतिक एक ही है और जब शोडाष मथुरा का क्षत्रप था उसी समय पतिक तक्षशिला में महाक्षत्रप था। मथुरा-लेख में पतिक के साथ मेवकि का नाम भी आता है। गणेशरा गाँव (जि0 मथुरा)
से मिले एक लेख में क्षत्रप घटाक का नाम भी है। शोडाष
के साथ इन क्षत्रपों का क्या संबंध था, यह विवरण कहीं नहीं
मिलता है। ई. पूर्व पहली शती का पूर्वार्द्ध पश्चिमोत्तर भारत के शकों के शासन का
समय था । इस समय में तक्षशिला से लेकर उत्तरी महाराष्ट्र् तक शकों का ही एकछ्त्र राज्य हो गया था।
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