सैय्यद वंश
इस वंश का आरम्भ तुग़लक़ वंश के अंतिम शासक महमूद तुग़लक की मृत्यु के पश्चात् ख़िज़्र ख़ाँ से 1414 ई.
में हुआ। इस वंश के प्रमुख शासक थे-
ख़िज़्र ख़ाँ (1414-1421
ई.), उसका पुत्र मुबारक
शाह (1421-1434 ई,), उसका भतीजा मुहम्मदशाह (1434-1445 ई.), और अलाउद्दीन आलमशाह (1445-1451 ई.)। अंतिम सुल्तान इतना अशक्त और अहदी था कि, उसने 1451
ई. में बहलोल लोदी को सिंहासन समर्पित कर दिया। 37 वर्षों के शासन काल
में सैयद वंश के शासकों ने कोई भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया।
ख़िज़्र ख़ाँ (संस्थापक 1414 से 1421 ई.)
ख़िज़्र ख़ाँ सैय्यद वंश का संस्थापक था। ख़िज़्र ख़ाँ ने 1414
ई. में दिल्ली की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। ख़िज़्र ख़ाँ ने सुल्तान की उपाधि न धारण
कर अपने को 'रैयत-ए-आला' की उपाधि से
ही खुश रखा।
शासन काल
तैमूर लंग जिस समय भारत से वापस जा रहा था, उसने
ख़िज़्र ख़ाँ को मुल्तान, लाहौर एवं दीपालपुर का
शासक नियुक्त कर दिया था। ख़िज़्र ख़ाँ अपने को तैमूर के लड़के शाहरूख का
प्रतिनिधि बताता था और साथ ही उसे नियमित 'कर' भेजा करता था। उसने खुतबा (प्रशंसात्मक रचना) में तैमूर और उसके
उत्तराधिकारी शाहरूख का नाम पढ़वाया। ख़िज़्र ख़ाँ के शासन काल में पंजाब, मुल्तान एवं सिंध पुनः दिल्ली सल्तनत के
अधीन हो गये उसने अपने समय में कटेहर, इटावा, खोर, चलेसर, ग्वालियर, बयाना, मेवात, बदायूँ के विद्रोह को कुचल कर उन्हें जीतने का
प्रयास किया।
न्यायप्रिय एवं उदार
सुल्तान को राजस्व वसूलने के लिए भी प्रतिवर्ष सैनिक अभियान का सहारा लेना पड़ता था। उसने अपने सिक्कों पर
तुग़लक़ सुल्तानों का नाम खुदवाया। फ़रिश्ता ने ख़िज़्र ख़ाँ को एक न्यायप्रिय एवं
उदार शासक बताया है।
मृत्यु
20
मई, 1421 को ख़िज़्र ख़ाँ की मृत्यु हो गई।
फ़रिश्ता के अनुसार ख़िज़्र ख़ाँ की मृत्यु पर युवा, वृद्ध
दास और स्वतंत्र सभी ने काले वस्त्र पहनकर दुःख प्रकट किया।
मुबारक शाह (1421
से 1434 ई.)
मुबारक शाह (1421-1434
ई.) सैय्यद वंश के ख़िज़्र ख़ाँ का
पुत्र था। ख़िज़्र ख़ाँ ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। मुबारक शाह ने ‘शाह’ की उपाधि ग्रहण कर अपने नाम के सिक्के जारी
किये। उसने अपने नाम से 'ख़ुतबा'[1] पढ़वाया और इस प्रकार विदेशी स्वामित्व का अन्त किया।
·
पिता ख़िज़्र
ख़ाँ की भाँति मुबारक शाह को भी विद्रोहों का दमन और
राजस्व वसूली के लिए नियमित सैनिक यात्राएँ करनी पड़ीं।
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अपने शासन काल में मुबारक शाह ने
भटिण्डा एवं दोआब मे हुए विद्रोह को सफलतापूर्वक दबाया,
परन्तु खोक्खर जाति के नेता जसरथ द्वारा किये गये विद्रोह को दबाने
में वह असफल रहा।
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मुबारक शाह के समय में पहली बार दिल्ली सल्तनत में दो महत्त्वपूर्ण हिन्दू अमीरों का उल्लेख मिलता है।
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उसके वज़ीर सरवर-उल-मुल्क ने
षड़यन्त्र द्वारा 19
फ़रवरी, 1434 ई. को उस समय मुबारक शाह की
हत्या कर दी, जिस समय वह अपने द्वारा निर्मित नये नगर
मुबारकाबाद का निरीक्षण कर रहा था।
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मुबारक शाह ने वीरतापूर्वक
विद्रोहों का दमन किया था। उसने सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा बढ़ायी और अपने राज्य
की सीमाओं को सुरक्षित किया।
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इस प्रकार मुबारक शाह सैयद वंश के सुल्तानों में योग्यतम सुल्तान
सिद्ध हुआ था।
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उसने विद्धान 'याहिया बिन अहमद सरहिन्दी' को अपना राज्याश्रय
प्रदान किया था। उसके ग्रंथ ‘तारीख़-ए-मुबारकशाही’ से मुबारक शाह के शासन
काल के विषय में जानकारी मिलती है।
मुहम्मदशाह (1434
से 1445 ई.)
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मुबारक शाह के बाद दिल्ली की
गद्दी पर मुबारक शाह का भतीजा 'मुहम्मद बिन फ़रीद ख़ाँ' मुहम्मदशाह (1434-1445 ई.) के नाम से गद्दी
पर बैठा।
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उसके शासन काल के 6 महीने उसके वज़ीर 'सरवर-उल-मुल्क' के आधिपत्य में बीते।
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परन्तु छः महीने उपरान्त ही सुल्तान
ने अपने नायब सेनापति 'कमाल-उल-मुल्क' के सहयोग से वज़ीर का वध करवा दिया।
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वज़ीर के प्रभाव से मुक्त होने के
तुरन्त बाद मालवा के शासक महमूद द्वारा दिल्ली पर आक्रमण
कर दिया गया।
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मुल्तान में लंगाओं ने विद्रोह किया, जिसे सुल्तान ने स्वंय जाकर शांत किया।
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मुहम्मदशाह मुल्तान के सूबेदार बहलोल लोदी की सहायता द्वारा महमूद को वापस
खदेड़ने में सफल रहा।
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मुहम्मदशाह ने खुश होकर बहलोल लोदी
को ‘ख़ान-ए-ख़ाना’ की उपाधि दी और साथ ही उसे अपना पुत्र
कहकर पुकारा।
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इसके समय की प्रमुख घटना रही -
बहलोल लोदी का उत्थान।
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बहलोल लोदी ने भी दिल्ली पर आक्रमण
किया,
परन्तु वह असफल रहा।
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अपने अन्तिम समय में हुए विद्रोह को
दबाने में मुहम्मदशाह असमर्थ रहा। अतः अधिकांश राज्यों ने अपने को स्वतंत्र कर
लिया।
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1445
ई. में मुहम्मदशाह की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के साथ ही सैयद वंश पतन की ओर अग्रसर हो गया।
अलाउद्दीन आलमशाह (1445
से 1450 ई.)
सैयद वंश के मुहम्मदशाह का
पुत्र था। मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद अलाउद्दीन ने 'आलमशाह'
की उपाधि ग्रहण की और अलाउद्दीन आलमशाह के नाम से सिंहासन पर बैठा।
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वह आराम पसन्द एवं विलासी प्रवृत्ति
का व्यक्ति था।
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अलाउद्दीन आलमशाह को अपने वज़ीर हमीद ख़ाँ से अनबन होने के कारण दिल्ली छोड़कर बदायूँ में शरण लेनी पड़ी तथा हमीद ख़ाँ ने बहलोल लोदी को दिल्ली आमंत्रित किया।
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बहलोल लोदी ने दिल्ली आने के कुछ
दिन बाद हमीद ख़ाँ की हत्या करवाकर 1450 ई. में दिल्ली
प्रशासन को अपने अधिकार में कर लिया।
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दूसरी तरफ सुल्तान अलाउद्दीन आलमशाह
ने अपने को बदायूँ में ही सुरक्षित महसूस किया और वहीं पर 1476 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
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इस प्रकार लगभग 37 वर्ष के बाद सैय्यद वंश समाप्त हो गया।
हमीद ख़ाँ
सैयद वंश के अंतिम सुल्तान अलाउद्दीन आलमशाह (1445-1451
ई.) का दीवान था। बहलोल लोदी को दिल्ली की गद्दी पर अधिकार करने में हमीद ख़ाँ ने उसकी मदद की थी।
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अलाउद्दीन आलमशाह को अपने वज़ीर
हमीद ख़ाँ से अनबन होने के कारण दिल्ली छोड़कर बदायूँ में शरण लेनी पड़ी थी।
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हमीद ख़ाँ ने बाद के समय में बहलोल
लोदी को दिल्ली आमंत्रित किया।
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दिल्ली की गद्दी प्राप्त कर लेने के बाद बहलोल ने हमीद ख़ाँ को जेल में डलवा दिया,
जिससे वह नये सुल्तान के मार्ग का काँटा न बन सके।[1]
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