मध्यकालीन भारत (500 ई.– 1761 ई.) भारत पर अरबों का आक्रमण मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण (711-715 ई.) मुहम्मद बिन कासिम की वापसी अरबों के भारत पर आक्रमण का परिणाम महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण महमूद ग़ज़नवी के भारत पर आक्रमण (1001-1026 ई.) भारत में तुर्क राज्य की स्थापना - Read Here and get Success Sure

Read Here and get Success Sure

Read Here and get Success Sure..... This is an educational blog

Breaking


Home Top Ad

Responsive Ads Here

Post Top Ad


Responsive Ads Here

सोमवार, 14 मई 2018

मध्यकालीन भारत (500 ई.– 1761 ई.) भारत पर अरबों का आक्रमण मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण (711-715 ई.) मुहम्मद बिन कासिम की वापसी अरबों के भारत पर आक्रमण का परिणाम महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण महमूद ग़ज़नवी के भारत पर आक्रमण (1001-1026 ई.) भारत में तुर्क राज्य की स्थापना


मध्यकालीन भारत (500 ई.– 1761 ई.)
लगभग 632 ई. में 'हज़रत मुहम्मद' की मृत्यु के उपरान्त 6 वर्षों के अन्दर ही उनके उत्तराधिकारियों ने सीरियामिस्र, उत्तरी अफ़्रीका, स्पेन एवं ईरान को जीत लिया। इस समय ख़लीफ़ा साम्राज्य फ़्राँस के लायर नामक स्थान से लेकर आक्सस एवं काबुल नदी तक फैल गया था। अपने इस विजय अभियान से प्रेरित अरबियों की ललचाई आँखे भारतीय सीमा पर पड़ीं। उन्होंने जल एवं थल दोनों मार्गों का उपयोग करते हुए भारत पर अनेक धावे बोले, पर 712 ई. तक उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई। मध्यकालीन भारत में यही वह समय था, जब भारत में सूफ़ी आन्दोलन की शुरुआत हुई।

भारत पर अरबों का आक्रमण

अपनी सफलताओं के जोश से भरे हुए अरबों ने अब सिंध पर आक्रमण करना शुरू किया। सिंध पर अरबों के आक्रमण के पीछे छिपे कारणों के विषय में विद्वानों का मानना है कि, ईराक का शासक 'अल हज्जाजभारत की सम्पन्नता के कारण उसे जीत कर सम्पन्न बनना चाहता था। दूसरे कारण के रूप में माना जाता है कि, अरबों के कुछ जहाज़, जिन्हें सिंध के देवल बन्दरगाह पर कुछ समुद्री लुटेरों ने लूट लिया था, के बदले में ख़लीफ़ा ने सिंध के राजा दाहिर से जुर्माने की माँग की। किन्तु दाहिर ने असमर्थता जताते हुए कहा कि, उसका उन डाकुओं पर कोई नियंत्रण नहीं है। इस जवाब से ख़लीफ़ा ने क्रुद्ध होकर सिंध पर आक्रमण करने का निश्चय किया। लगभग 712 में हज्जाज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की अवस्था में सिंध के अभियान का सफल नेतृत्व किया। उसने देवल, नेरून, सिविस्तान जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण दुर्गों को अपने अधिकार में कर लिया, जहाँ से उसके हाथ ढेर सारा लूट का माल लगा। इस जीत के बाद कासिम ने सिंधबहमनाबाद, आलोद आदि स्थानों को जीतते हुए मध्य प्रदेश की ओर प्रस्थान किया।
मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण (711-715 ई.)
कासिम के द्वारा किये गए आक्रमणों में उसकी निम्न विजय उल्लेखनीय हैं-
देवल विजय
एक बड़ी सेना लेकर मुहम्मद बिन कासिम ने 711 ई. में देवल पर आक्रमण कर दिया। दाहिर ने अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए देवल की रक्षा नहीं की और पश्चिमी किनारों को छोड़कर पूर्वी किनारों से बचाव की लड़ाई प्रारम्भ कर दी। दाहिर के भतीजे ने राजपूतों से मिलकर क़िले की रक्षा करने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहा।
नेऊन विजय
नेऊन पाकिस्तान में वर्तमान हैदराबाद के दक्षिण में स्थित चराक के समीप था। देवल के बाद मुहम्मद कासिम नेऊन की ओर बढ़ा। दाहिर ने नेऊन की रक्षा का दायित्व एक पुरोहित को सौंप कर अपने बेटे जयसिंह को ब्राह्मणाबाद बुला लिया। नेऊन में बौद्धों की संख्या अधिक थी। उन्होंने मुहम्मद बिन कासिम का स्वागत किया। इस प्रकार बिना युद्ध किए ही मीर क़ासिम का नेऊन दुर्ग पर अधिकार हो गया।
सेहवान विजय
नेऊन के बाद मुहम्मद बिना कासिम सेहवान (सिविस्तान) की ओर बढ़ा। इस समय वहाँ का शासक माझरा था। इसने बिना युद्ध किए ही नगर छोड़ दिया और बिना किसी कठिनाई के सेहवान पर मुहम्मद बिन कासिम का अधिकार हो गया।
सीसम के जाटों पर विजय
सेहवान के बाद मुहम्मद बिन कासिम ने सीसम के जाटों पर अपना अगला आक्रमण किया। बाझरा यहीं पर मार डाला गया। जाटों ने मुहम्मद बिन कासिम की अधीनता स्वीकार कर ली।
राओर विजय
सीसम विजय के बाद कासिम राओर की ओर बढ़ा। दाहिर और मुहम्मद बिन कासिम की सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ। इसी युद्ध में दाहिर मारा गया। दाहिर के बेटे जयसिंह ने राओर दुर्ग की रक्षा का दायित्व अपनी विधवा माँ पर छोड़कर ब्राह्मणावाद चला गया। दुर्ग की रक्षा करने में अपने आप को असफल पाकर दाहिर की विधवा पत्नी ने आत्मदाह कर लिया। इसके बाद कासिम का राओर पर नियंत्रण स्थापित हो गया।
ब्राह्मणावाद पर अधिकार
ब्राह्मणावाद की सुरक्षा का दायित्व दाहिर के पुत्र जयसिंह के ऊपर था। उसने कासिम के आक्रमण का बहादुरी के साथ सामना किया, किन्तु नगर के लोगों के विश्वासघात के कारण वह पराजित हो गया। ब्राह्मणावाद पर कासिम का अधिकार हो गया। कासिम ने यहाँ का कोष तथा दाहिर की दूसरी विधवा रानी लाडी के साथ उसकी दो पुत्रियों सूर्यदेवी तथा परमल देवी को अपनी क़ब्ज़े में कर लिया।
आलोर विजय
ब्राह्मणावाद पर अधिकार के बाद कासिम आलोर पहुँचा। प्रारम्भ में आलोर के निवासियों ने कासिम का सामना किया, किन्तु अन्त में विवश होकर आत्मसमर्पण कर दिया।
मुल्तान विजय
आलोर पर विजय प्राप्त करने के बाद कासिम मुल्तान पहुँचा। यहाँ पर आन्तरिक कलह के कारण विश्वासघातियों ने कासिम की सहायता की। उन्होंने नगर के जलस्रोत की जानकारी अरबों को दे दी, जहाँ से दुर्ग निवासियों को जल की आपूर्ति की जाती थी। इससे दुर्ग के सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। कासिम का नगर पर अधिकार हो गया। इस नगर से मीर क़ासिम को इतना धन मिला की, उसने इसे 'स्वर्णनगर' नाम दिया।
मुहम्मद बिन कासिम की वापसी
714 ई. में हज्जाज की और 715 ई में ख़लीफ़ा की मृत्यु के उपरान्त मुहम्मद बिन कासिम को वापस बुला लिया गया। सम्भवतः सिंध विजय अभियान में मुहम्मद बिन कासिम की वहाँ के बौद्ध भिक्षुओं ने सहायता की थी। अरब की राजनीतिक स्थिति सामान्य न होने के कारण दाहिर ने अपने पुत्र जयसिंह को बहमनाबाद पर पुनः क़ब्ज़ा करने के लिए भेजा, परन्तु सिंध के राज्यपाल जुनैद ने जयसिंह को हरा कर बंदी बना लिया। ब्राह्मणाबाद के पतन के बाद मुहम्मद बिन कासिम ने दाहिर की दूसरी विधवा रानी लाडी और दाहिर की दो कन्याओं सूर्यदेवी और परमलदेवी को बन्दी बनाया। कालान्तर में कई बार जुनैद ने भारत के आन्तरिक भागों को जीतने हेतु सेनाऐं भेजी, परन्तु नागभट्ट प्रथमपुलकेशी प्रथम एवं यशोवर्मन (चालुक्य) ने इसे वापस खदेड़ दिया। इस प्रकार अरबियों का शासन भारत में सिंध प्रांत तक सिमट कर रह गया। कालान्तर में उन्हें सिंध का भी त्याग करना पड़ा।
अरबों के भारत पर आक्रमण का परिणाम
अरब आक्रमण का भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर लगभग 1000 ई. तक प्रभाव रहा। प्रारम्भ में अरबियों ने कठोरता से इस्लाम धर्म को थोपने का प्रयास किया, पर तत्कालीन शासकों के विरोध के कारण उन्हें अपनी नीति बदलनी पड़ी। सिंध पर अरबों के शासन से परस्पर दोनों संस्कृतियों के मध्य प्रतिक्रिया हुई। अरबियों की मुस्लिम संस्कृति पर भारतीय संस्कृति का काफ़ी प्रभाव पड़ा। अरब वासियों ने चिकित्सादर्शन, नक्षत्र विज्ञान, गणित (दशमलव प्रणाली) एवं शासन प्रबंध की शिक्षा भारतीयों से ही ग्रहण की। चरक संहिता एवं पंचतंत्र ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद किया गया। बग़दाद के ख़लीफ़ाओं ने भारतीय विद्धानों को संरक्षण प्रदान किया। ख़लीफ़ा मंसूर के समय में अरब विद्धानों ने अपने साथ ब्रह्मगुप्त द्वारा रचित 'ब्रह्मसिद्धान्त' एवं 'खण्डनखाद्य' को लेकर बग़दाद गये और अल-फ़ाजरी ने भारतीय विद्वानों के सहयोग से इन ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद किया। भारतीय सम्पर्क से अरब सबसे अधिक खगोल शास्त्र के क्षेत्र में प्रभावित हुए। भारतीय खगोल शास्त्र के आधार पर अरबों ने इस विषय पर अनेक पुस्तकों की रचना की, जिसमें सबसे प्रमुख अल-फ़ाजरी की किताब-उल-जिज है
अरबों ने भारत में अन्य विजित प्रदेशों की तरह धर्म पर आधारित राज्य स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। हिन्दुओं को महत्त्व के पदों पर बैठाया गया। इस्लाम धर्म ने हिन्दू धर्म के प्रति सहिष्णुता का प्रदर्शन किया। अरबों की सिंध विजय का आर्थिक क्षेत्र भी प्रभाव पड़ा। अरब से आने वाले व्यापारियों ने पश्चिम समुद्र एवं दक्षिण पूर्वी एशिया में अपने प्रभाव का विस्तार किया। अतः यह स्वाभाविक था कि, भारतीय व्यापारी उस समय की राजनीतिक शक्तियों पर दबाव डालते कि, वे अरब व्यापारियों के प्रति सहानुभूति पूर्ण रुख़ अपनायें।
तुर्की आक्रमण
अरबों के बाद तुर्को ने भारत पर आक्रमण किया। तुर्कचीन की उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं पर निवास करने वाली एक असभ्य एवं बर्बर जाति थी। उनका उद्देश्य एक विशाल मुस्लिम साम्राज्य स्थापित करना था। अलप्तगीननामक एक तुर्क सरदार ने ग़ज़नी में स्वतन्त्र तुर्क राज्य की स्थापना की। 977 ई. में अलप्तगीन के दामाद सुबुक्तगीन ने ग़ज़नी पर अधिकार कर लिया। भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम मुस्लिम मुहम्मद बिन कासिम(अरबी) था, जबकि भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम तुर्की मुसलमान सुबुक्तगीन था। सुबुक्तगीन से अपने राज्य को होने वाले भावी ख़तरे का पूर्वानुमान लगाते हुए दूरदर्शी हिन्दुशाही वंश के शासक जयपाल ने दो बार उस पर आक्रमण किया, किन्तु दुर्भाग्यवश प्रकृति की भयाभय लीलाओं के कारण उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। अपमान एवं क्षोभ से संतप्त जयपाल ने आत्महत्या कर ली। 986 ई. में सुबुक्तगीन ने हिन्दुशाही राजवंश के राजा जयपाल के ख़िलाफ़ एक संघर्ष में भाग लिया, जिसमें जयपाल की पराजय हुई। सुबुक्तगीन के मरने से पूर्व उसके राज्य की सीमायें अफ़ग़ानिस्तानखुरासानबल्ख एवं पश्चिमोत्तर भारत तक फैली थी।
सुबुक्तगीन की मुत्यु के बाद उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी महमूद ग़ज़नवी ग़ज़नी की गद्दी पर बैठा। तारीख ए गुजीदाके अनुसार महमूद ने सीस्तान के राजा खलफ बिन अहमद को पराजित कर सुल्तान की उपाधि धारण की। इतिहासविदों के अनुसार सुल्तान की उपाधि धारण करने वाला महमूद पहला तुर्क शासक था। महमूद ने बग़दाद के ख़लीफ़ा से यामीनुदौलातथा अमीर-उल-मिल्लाहउपाधि प्राप्त करते समय प्रतिज्ञा की थी, कि वह प्रति वर्ष भारत पर एक आक्रमण करेगा। इस्लाम धर्म के प्रचार और धन प्राप्ति के उद्देश्य से उसने भारत पर 17 बार आक्रमण किये। इलियट के अनुसार ये सारे आक्रमण 1001 से 1026 ई. तक किये गये। अपने भारतीय आक्रमणों के समय महमूद ने जेहादका नारा दिया, साथ ही अपना बुत शिकनरखा। हालांकि इतिहासकार महमूद ग़ज़नवी को मुस्लिम इतिहास में प्रथम सुल्तान मानते हैं, किन्तु सिक्कों पर उसकी उपाधि केवल अमीर महमूदमिलती है।
महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय भारत की दशा
10वीं शताब्दी ई. के अन्त तक भारत अपनी बाहरी सुरक्षा-प्राचीर जाबुलिस्तान तथा अफ़ग़ानिस्तान खो चुका था। परिणामस्वरूप इस मार्ग द्वारा होकर भारत पर सीधे आक्रमण किया जा सकता था। इस समय भारत में राजपूत राजाओं का शासन था।
काबुल एवं पंजाब का हिन्दुशाही राज्य
महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय पंजाब एवं काबुल में हिन्दुशाही वंश का शासन था। वह राज्य चिनाब नदी के हिन्दुकुश तक फैला हुआ था। इस राज्य के स्वामी ब्राह्मण राजवंश के शाहिया अथवा हिन्दुशाह थे। इसकी राजधानी  उद्भाण्डपुर थी। महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय यहां का शासक जयपाल था।
मुल्तान
यह हिन्दुशाही राज्य के दक्षिण में स्थित था। यहाँ का शासक करमाथी शिया मुसलमानों के हाथ में था। महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय यहां का शासक फ़तेह दाऊद था।
सिंध
अरबों के आक्रमण के समय से ही सिंध पर उनका अधिपत्य था। मजमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय सिन्ध प्रान्त में अरबों का शासन था।
कश्मीर का लोहार वंश
महमूद ग़ज़नवी के सिंहासनारूढ़ के समय कश्मीर की शासिका रानी दिद्दा थी। 1003 ई. में दिद्दा की मुत्यु के बाद संग्रामराज गद्दी पर बैठा। उसने लोहार वंश की स्थापना की।
कन्नौज के प्रतिहार
महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय कन्नौज पर प्रतिहारों का शासन था। प्रतिहारों की राजधानी कन्नौज थी। सबसे पहले बंगाल के राजा धर्मपाल ने इस नगर पर आक्रमण किया तथा कुछ वर्षो तक शासन किया। महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण (1018 ई.) के समय यहाँ का शासक राज्यपाल था। उसने राजधानी कन्नौज को बारी में स्थानान्तरित किया था।
बंगाल का पाल वंश
पाल वंश की स्थापना 750 ई. में गोपाल ने की थी। इस वंश का महत्त्वपूर्ण शासक देवपाल था। महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय यहां का सबसे महान् शासक महीपाल प्रथम (992-1026 ई.) था।
दिल्ली के तोमर
तोमर राजपूतों की एक शाखा थी। तोमर शासक अनंगपाल दिल्ली नगर का संस्थापक था।
मालवा का परमार वंश
इस वंश की स्थापना नवी शताब्दी ईसवी के पूर्वार्द्ध में कृष्णराज ने किया थी। इस वंश का सबसे महत्त्वपूर्ण शासक राजा भोज था। यहां महमूद ग़ज़नवी का समकालीन शासक सिंधुराज था।
गुजरात का चालुक्य वंश
महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय गुजरात पर चालुक्यों का शासन था। इस काल में चालुक्य वंश के चार हुए - चामुण्डराज (997-1009ई.), वल्लभ राज (1009ई.), दुर्लभ राज (1009-24ई.) तथा भीम प्रथम (1024-64ई.)।
बुंदेलखण्ड के चंदेल
मजमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय बुन्देलखंड में चंदेलों का शासन था। उस समय बुंदेलखण्ड की राजधानी खजुराहो थी।
त्रिपुरी के कलचुरी वंश
कलचुरी वंश को हैहय वंश भी कहा जाता है। गुजरात के सोलंकी वंश से इसका संघर्ष चलता था। महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय दक्षिण के दो राज्य प्रमुख थे। (1) चालुक्य और (2) चोल। चोल शासकों में राजराज प्रथम (1014-1015 ई.) महत्त्वपूर्ण शासक थे।
महमूद ग़ज़नवी के भारत पर आक्रमण (1001-1026 ई.)
999 ई. में जब महमूद ग़ज़नवी सिंहासन पर बैठा, तो उसने प्रत्येक वर्ष भारत पर आक्रमण करने की प्रतिज्ञा की। उसने भारत पर कितनी बार आक्रमण किया यह स्पष्ट नहीं है। किन्तु सर हेनरी इलियट ने महमूद ग़ज़नवी के 17 आक्रमणों का वर्णन किया।
प्रथम आक्रमण (1001 ई.)- महमूद ग़ज़नवी ने अपना पहला आक्रमण 1001 ई. में भारत के समीपवर्ती नगरों पर किया।
दूसरा आक्रमण (1001-1002 ई. - अपने दूसरे अभियान के अन्तर्गत महमूद ग़ज़नवी ने सीमांत प्रदेशों के शासक जयपाल के विरुद्ध युद्ध किया। उसकी राजधानी बैहिन्द पर अधिकार कर लिया। जयपाल इस पराजय के अपमान को सहन नहीं कर सका और उसने आग में जलकर आत्मदाह कर लिया।
तीसरा आक्रमण (1004 ई.)- महमूद ग़ज़नवी ने उच्छ के शासक वाजिरा को दण्डित करने के लिए आक्रमण किया। महमूद के भय के कारण वाजिरा सिन्धु नदी के किनारे जंगल में शरण लेने को भागा और अन्त में उसने आत्महत्या कर ली।
चौथा आक्रमण (1005 ई.)- 1005 ई. में महमूद ग़ज़नवी ने मुल्तान के शासक दाऊद के विरुद्ध मार्च किया। इस आक्रमण के दौरान उसने भटिण्डा के शासक आनन्दपाल को पराजित किया और बाद में दाऊद को पराजित कर उसे अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया।
पाँचवा आक्रमण (1007 ई.)- पंजाब में ओहिन्द पर महमूद ग़ज़नवी ने जयपाल के पौत्र सुखपाल को नियुक्त किया था। सुखपाल ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था और उसे नौशाशाह कहा जाने लगा था। 1007 ई. में सुखपाल ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। महमूद ग़ज़नवी ने ओहिन्द पर आक्रमण किया और नौशाशाह को बन्दी बना लिया गया।
छठा आक्रमण (1008 ई.)- महमूद ने 1008 ई. अपने इस अभियान के अन्तर्गत पहले आनन्दपाल को पराजित किया। बाद में उसने इसी वर्ष कांगड़ी पहाड़ी में स्थित नगरकोट पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में महमूद को अपार धन की प्राप्ति हुई।
सातवाँ आक्रमण (1009 ई.)- इस आक्रमण के अन्तर्गत महमूद ग़ज़नवी ने अलवर राज्य के नारायणपुर पर विजय प्राप्त की।
आठवाँ आक्रमण (1010 ई.)- महमूद का आठवां आक्रमण मुल्तान पर था। वहां के शासक दाऊद को पराजित कर उसने मुल्तान के शासन को सदा के लिए अपने अधीन कर लिया।
नौवा आक्रमण (1013 ई.)- अपने नवे अभियान के अन्तर्गत महमूद ग़ज़नवी ने थानेश्वर पर आक्रमण किया।
दसवाँ आक्रमण (1013 ई.)- महमूद ग़ज़नवी ने अपना दसवां आक्रमण नन्दशाह पर किया। हिन्दू शाही शासक आनन्दपाल ने नन्दशाह को अपनी नयी राजधानी बनाया। वहां का शासक त्रिलोचन पाल था। त्रिलोचनपाल ने वहाँ से भाग कर कश्मीर में शरण लिया। तुर्को ने नन्दशाह में लूटपाट की।
ग्यारहवाँ आक्रमण (1015 ई.)- महमूद का यह आक्रमण त्रिलोचनपाल के पुत्र भीमपाल के विरुद्ध था, जो कश्मीर पर शासन कर रहा था। युद्ध में भीमपाल पराजित हुआ।
बारहवाँ आक्रमण (1018 ई.)- अपने बारहवें अभियान में महमूद ग़ज़नवी ने कन्नौज पर आक्रमण किया। उसने बुलंदशहर के शासक हरदत्त को पराजित किया। उसने महाबन के शासक बुलाचंद पर भी आक्रमण किया। 1019 ई. में उसने पुनः कन्नौज पर आक्रमण किया। वहाँ के शासक राज्यपाल ने बिना युद्ध किए ही आत्मसमर्पण कर दिया। राज्यपाल द्वारा इस आत्मसमर्पण से कालिंजर का चंदेल शासक क्रोधित हो गया। उसने ग्वालियरके शासक के साथ संधि कर कन्नौज पर आक्रमण कर दिया और राज्यपाल को मार डाला।
तेरहवाँ आक्रमण (1020 ई.)- महमूद का तेरहवाँ आक्रमण 1020 ई. में हुआ था। इस अभियान में उसने बारीबुंदेलखण्ड, किरात तथा लोहकोट आदि को जीत लिया।
चौदहवाँ आक्रमण (1021 ई.)- अपने चौदहवें आक्रमण के दौरान महमूद ने ग्वालियर तथा कालिंजर पर आक्रमण किया। कालिंजर के शासक गोण्डा ने विवश होकर संधि कर ली।
पन्द्रहवाँ आक्रमण (1024 ई.)- इस अभियान में महमूद ग़ज़नवी ने लोदोर्ग (जैसलमेर), चिकलोदर (गुजरात), तथा अन्हिलवाड़ (गुजरात) पर विजय स्थापित की।
सोलहवाँ आक्रमण (1025 ई.)- इस 16वें अभियान में महमूद ग़ज़नवी ने सोमनाथ को अपना निशाना बनाया। उसके सभी अभियानों में यह अभियान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। सोमनाथ पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने वहाँ के प्रसिद्ध मंदिरों को तोड़ दिया तथा अपार धन प्राप्त किया। यह मंदिर गुजरात में समुद्र तट पर अपनी अपार संपत्ति के लिए प्रसिद्ध था। इस मंदिर को लूटते समय महमूद ने लगभग 50,000 ब्राह्मणों एवं हिन्दुओं का कत्ल कर दिया। पंजाब के बाहर किया गया महमूद का यह अंतिम आक्रमण था।
सत्रहवाँ आक्रमण (1027 ई.)- यह महमूद ग़ज़नवी का अन्तिम आक्रमण था। यह आक्रमण सिंध और मुल्तान के तटवर्ती क्षेत्रों के जाटों के विरुद्ध था। इसमें जाट पराजित हुए।
महमूद के भारतीय आक्रमण का वास्तविक उद्देश्य धन की प्राप्ति था। वह एक मूर्तिभंजक आक्रमणकारी था। महमूद की सेना में सेवदंराय एवं तिलक जैसे हिन्दू उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति थे। महमूद के भारत आक्रमण के समय उसके साथ प्रसिद्ध इतिहासविद्, गणितज्ञ, भूगोलावेत्ता, खगोल एवं दर्शन शास्त्र के ज्ञाता तथा किताबुल हिन्दका लेखक अलबरूनी भारत आया। अलबरूनी महमूद का दरबारी कवि था। तहकीक-ए-हिन्दपुस्तक में उसने भारत का विवरण लिखा है। इसके अतिरिक्त इतिहासकार उतबी’, 'तारीख-ए-सुबुक्तगीन' का लेखक बेहाकीभी उसके साथ आये। बेहाकी को इतिहासकार लेनपूल ने पूर्वी पेप्सकी उपाधि प्रदान की है। शाहनामाका लेखक 'फ़िरदौसी’, फ़ारस का कवि जारी खुरासानी विद्धान तुसी, महान् शिक्षक और विद्वान् उन्सुरी, विद्वान् अस्जदी और फ़ारूखी आदि दरबारी कवि थे।

भारत में तुर्क राज्य की स्थापना

शिहाबुद्दीन उर्फ मुईजुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने भारत में तुर्क राज्य की स्थापना की। ग़ज़नी और हेरात के मध्य स्थित छोटा पहाड़ी प्रदेश गोर पहले महमूद ग़ज़नवी के क़ब्ज़े में था। गोर में शंसबनी वंशसबसे प्रधान वंश था। मुहम्मद ग़ोरी ने भी अनेक आक्रमण किये। उसने प्रथम आक्रमण 1175 ई. में मुल्तान के विरुद्ध किया। एक दूसरे आक्रमण के अन्तर्गत ग़ोरी ने 1178 ई. में गुजरात पर आक्रमण किया। यहाँ पर सोलंकी वंश का शासन था। इसी वंश के भीम द्वितीय (मूलराज द्वितीय), ने मुहम्मद ग़ोरी को आबू पर्वत के समीप परास्त किया। सम्भवतः यह मुहम्मद ग़ोरी की प्रथम भारतीय पराजय थी। इसके बाद 1179-86 ई. के बीच उसने पंजाब पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। 1179 ई. में उसने पेशावर को तथा 1185 ई. में स्यालकोट को जीता। 1191 ई. में पृथ्वीराज चौहान के साथ ग़ोरी की भिड़न्त तराइन के मैदान में हुई। इस युद्ध में ग़ोरी बुरी तरह परास्त हुआ। इस युद्ध को तराईन का प्रथम युद्धकहा गया है। तराइन का द्वितीय युद्ध’ 1192 ई. में तराईन के मैदान में हुआ, पर इस युद्ध का परिणाम मुहम्मद ग़ोरी के पक्ष में रहा तथा इसके उपरांत पृथ्वीराज चौहान की हत्या कर दी गई। 1194 ई. में प्रसिद्ध चन्दावर का युद्ध मुहम्मद ग़ोरी एवं राजपूत नरेश जयचन्द्र के बीच लड़ा गया। जयचन्द्र की पराजय के उपरान्त उसकी हत्या कर दी गई। जयचन्द्र को पराजित करने के उपरान्त मुहम्मद ग़ोरी अपने विजित प्रदेशों की ज़िम्मेदारी अपने ग़ुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप कर वापस ग़ज़नी चला गया। ऐबक ने अपनी महत्त्वपूर्ण विजय के अन्तर्गत 1194 ई. में अजमेर को जीतकर यहाँ पर स्थित जैन मंदिर एवं संस्कृतविश्वविद्यालय को नष्ट कर उनके मलवे पर क्रमशः कुव्वल-उल-इस्लामएवं ढाई दिन का झोपड़ाका निर्माण करवाया। ऐबक ने 1202-03 ई. में बुन्देलखण्ड के मज़बूत कालिंजर के किले को जीता। 1197 से 1205 ई. के मध्य ऐबक ने बंगाल एवं बिहार पर आक्रमण कर उदण्डपुर, बिहारविक्रमशिला  एवं नालन्दा विश्वविद्यालय पर अधिकार कर लिया।
1205 ई. में मुहम्मद ग़ोरी पुनः भारत आया और इस बार उसका मुक़ाबला खोक्खरों से हुआ। उसने खोक्खरों को पराजित कर उनका बुरी तरह कत्ल किया। इस विजय के बाद मुहम्मद ग़ोरी जब वापस ग़ज़नी जा रहा था, तो मार्ग में 13 मार्च 1206 को उसकी हत्या कर दी गई। अन्ततः उसके शव को ग़ज़नी ले जाकर दफ़नाया गया। ग़ोरी की मृत्यु के बाद उसके ग़ुलाम सरदार कुतुबुदद्दीन ऐबक ने 1206 ई. में ग़ुलाम वंश की स्थापना की।

दिल्ली सल्तनत की स्थापना 1206 ई. में की गई। इस्लाम की स्थापना के परिणामस्वरूप अरब और मध्य एशिया में हुए धार्मिक और राजनीतिक परिवर्तनों ने जिस प्रसारवादी गतिविधियों को प्रोत्साहित किया, दिल्ली सल्तनत की स्थापना उसी का परिणाम थी। बाद के काल में मंगोलों के आक्रमण से इस्लामी जगत् भयभीत था। उसके आतंक के कारण इस्लाम के जन्म स्थान से इस्लामी राजसत्ता के पाँव उखड़ गये थे। इस स्थिति में दिल्लीसल्तनत इस्लाम को मानने वाले संतों, विद्वानों, साहित्यकारों और शासकों की शरणस्थली बन गयी थी।

भिन्न-भिन्न वंशों का अधिकार
दिल्ली सल्तनत की स्थापना भारतीय इतिहास में युगान्तकारी घटना है। शासन का यह नवीन स्वरूप भारत की पूर्ववर्ती राजव्यवस्थाओं से भिन्न था। इस काल के शासक एवं उनकी प्रशासनिक व्यवस्था एक ऐसे धर्म पर आधारित थी, जो कि साधारण धर्म से भिन्न था। शासकों द्वारा सत्ता के अभूतपूर्व केन्द्रीकरण और कृषक वर्ग के शोषण का भारतीय इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता है। दिल्ली सल्तनत का काल 1206 ई. से प्रारम्भ होकर 1562 ई. तक रहा। 320 वर्षों के इस लम्बे काल में भारत में मुस्लिमों का शासन व्याप्त रहा। यह काल स्थापत्य एवं वास्तुकला के लिये भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
दिल्ली सल्तनत पर निम्नलिखित 5 वंशों का शासन रहा-
मामलूक अथवा ग़ुलाम वंश (1206 से 1290 ई.)
ख़िलजी वंश (1290 से 1320 ई.)
तुग़लक़ वंश (1320 से 1414 ई.)
सैय्यद वंश (1414 से 1451 ई.)
लोदी वंश (1451 से 1526 ई.)
दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाले वंश एवं उनके शासक व शासन काल-
कुतुबुद्दीन ऐबक (1206 - 1210) इस वंश का प्रथम शासक था ।
आरामशाह (1210 - 1211)
इल्तुतमिश (1211 - 1236),
रुकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह (1236)
रज़िया सुल्तान (1236 - 1240)
मुइज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 - 1242 )
अलाउद्दीन मसूद (1242 - 46 ई.)
नसीरूद्दीन महमूद (1245 - 1265)
अन्य कई शासकों के बाद उल्लेखनीय रूप से ग़यासुद्दीन बलबन (1250 - 1290) सुल्तान बने ।

ख़िलजी वंश
जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी (संस्थापक 1290 से 1296 ई.)
अलाउद्दीन ख़िलजी (1296 से 1316 ई.)
शिहाबुद्दीन उमर ख़िलजी (1316 ई.)      
क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी (1316 से 1320 ई.)
नासिरुद्दीन खुसरवशाह (हिन्दू से मुसलमान बना) (15 अप्रैल से 27 अप्रैल, 1320 ई.)]

तुग़लक़ वंश
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ (संस्थापक 1320 से 1325 ई.)
मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325 से 1351 ई.)
फ़िरोज शाह तुग़लक़ (1351 से 1388 ई.)
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ द्वितीय (तुग़लकशाह 1388 से 1389 ई.)
अबूबक्र (फ़रवरी 1389 से अगस्त, 1390 ई.)
नासिरुद्दीन महमूदशाह (1390 से 1394 ई.)
नसरत शाह तुग़लक़ (1395-1398 ई.)
महमूद तुग़लक़ (1399 से 1412 ई.)

सैय्यद वंश
ख़िज़्र ख़ाँ (संस्थापक 1414 से 1421 ई.)
मुबारक शाह (1421 से 1434 ई.)
मुहम्मदशाह (1434 से 1445 ई.)
अलाउद्दीन आलमशाह (1445 से 1450 ई.)

लोदी वंश
बहलोल लोदी (संस्थापक 1451 से 1489 ई.)
सिकन्दर शाह लोदी (1489 से 1517 ई.)
इब्राहीम लोदी (1517 से 1526 ई.)

बलबन का राजत्व सिद्धान्त

तुर्क-अफ़ग़ान शासकों द्वारा दिल्ली को इस्लामी राज्य की संज्ञा दी गई है। वे अपने साथ शासन की धार्मिक व्यवस्था भी लाए थे। इस शासन व्यवस्था में राजा कोई धार्मिक नेता माना जाता था। इस्लामिक धर्मशास्त्रियों ने अपने द्वारा अपनाई गई अथवा विकसित की गई संस्थाओं को तर्क संगत औचित्य प्रदान करने के लिए यूनानी राजनीतिक दर्शन का आधार ग्रहण किया था। दिल्ली सल्तनत एक इस्लामिक राज्य था, जिसके शासक अभिजात वर्ग एवं उच्चतर प्रशासनिक पदों के क्रमानुसार इस्लाम धर्म के थे। सैद्धान्तिक रूप से दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने भारत में इस्लामी क़ानून लागू करने एवं अपने अधिकार पत्र में दारूल हर्ब को, दारूल इस्लाम परिवर्तित करने का प्रयास किया।

शासन सिद्धांत

सल्तनत काल के सभी शासक (ख़िलजी वंश को छोड़कर) अन्य सभी सुल्तानों ने अपने को ख़लीफ़ा का प्रतिनिधि माना। सल्तनत कालीन सुल्तानों का शासन अत्यंत केन्द्रीकृत निरंकुश सिद्धान्तों पर आधारित था। इस समय की शासन व्यवस्था में सुल्तान ही मुख्य प्रशासक, सर्वोच्च न्यायधीश, सर्वाच्च नियामक और सर्वोच्च सेनापति होता था। सल्तनत काल में जिन सुल्तानों ने 'राजस्व के सिद्धान्त' को अपनी दृष्टि से व्याख्यायित किया, और उसी पर अमल किया, उसमें प्रमुख हैं - ग़यासुद्दीन बलबनअलाउद्दीन ख़िलजी और क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी।

बलबन का राजत्व सिद्धान्त

बलबन ने सुल्तान के पद को दैवीय कृपा माना है। उसका राजत्व सिद्धान्त निरंकुशता पर आधारित था। वह अपने आपको तुर्की 'अफ़रासियाब' का वंशज मानता था। बलबन पहला ऐसा भारतीय मुसलमान था, जिसने 'जिल्ल-ए-इलाही' की उपाधि धारण की। शासक की दैवी उत्पत्ति को सिद्ध करने के लिए बलबन ने अपने दरबार में 'सिजदा' (ज़मीन पर सिर रखना) और 'पैबोस' की प्रथा प्रारम्भ की। बलबन ने अपने दरबार में ईरानी त्यौहार 'नौरोज' मनाने की प्रथा की शुरुआत किया। वह उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में भेद करता था। वह ग़ैर तुर्की को कभी उच्च पद पर नहीं रखता था।

अलाउद्दीन का राजत्व सिद्धान्त

अलाउद्दीन ख़िलजी एक सुन्नी मुसलमान था। उसे इस्लाम में पूर्ण विश्वास था। उसने राजत्व के लिए दैवी सदगुणों का दावा किया। वह राजा को देश के क़ानून से ऊपर मानता था। अपने शासन काल में अलाउद्दीन ने पहले 'शमशीर' (अभिजात वर्ग) तथा 'अहले कलम' (उलेमा वर्ग) के प्रशासनिक प्रभाव को कम किया। उसने शासक के पद को स्वेच्छाकारी तथा निरंकुश बनाया तथा स्वयं 'यामिन-उल-ख़िलाफ़त' तथा 'नासिरी-अमी-उल-मौमनीन' की उपाधि धारण की। उसने अपने शासन की स्वीकृति के लिए ख़लीफ़ा की मंजूरी को आवश्यक नहीं समझा। अपने पूरे शासन काल में उसने इस्लाम धर्म के संबंध में विचार विमर्श करने के लिए दो धार्मिक नेताओं 'अला-उल-मुल्क' और 'मुगीसुद्दीन' से चर्चा की।
अलाउद्दीन ख़िलजी के बाद मुबारकशाह ख़िलजी ने ख़लीफ़ा के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं किया। उसने 'अल-इमाम', 'उल-इमाम' एवं 'ख़िलाफ़त-उल्लाह' की उपाधि धारण की। उसने 'अलबसिक विल्लाह' की धर्म प्रधान उपाधि भी धारण की। इसके बाद शेष सभी सुल्तानों ने शासन के लिए राजत्व के पारम्परिक इस्लामिक सिद्धान्तों का पालन किया।


1 टिप्पणी:

Thank you for comment.

Post Bottom Ad

Responsive Ads Here

Pages