लोदी
वंश
लोदी वंश की स्थापना दिल्ली की
गद्दी पर अधिकार करने वाले बहलोल लोदी ने 1451 ई. में की थी। यह वंश 1526 ई. तक सत्ता में रहा और सफलतापूर्वक शासन करता रहा। बहलोल लोदी सरहिन्द का इक्तादार था और जिसने शीघ्र ही सारे पंजाब पर अपना अधिकार जमा लिया था। बहलोल लोदी
की फ़ौज ने कुछ ही समय में समस्त दिल्ली पर भी अपना अधिकार कर लिया और वहाँ के सैयद वंश का अंत कर दिया।
इतिहास
तैमूर के आक्रमण के
पश्चात् दिल्ली में सैयद वंश के रूप में एक नया राजवंश उभरा। कई अफ़ग़ान सरदारों ने पंजाब में अपनी स्थिति
सुदृढ़ कर ली थी। इन सरदारों में सबसे महत्त्वपूर्ण 'बहलोल
लोदी' था, जो सरहिन्द का इक्तादार था।
बहलोल लोदी ने खोखरों की बढ़ती शक्ति को रोका। खोखर एक युद्ध प्रिय जाति थी और सिंध की पहाड़ियों में रहती थी। अपनी नीतियों
और अपने साहस के बल पर बहलोल ने शीघ्र ही सारे पंजाब पर अधिकार जमा लिया। मालवा के
सम्भावित आक्रमण को रोकने के लिए उसे दिल्ली आमंत्रित किया गया और वह बाद में भी
दिल्ली में ही रुका रहा। जल्दी ही उसकी फौंजों ने दिल्ली पर भी अधिकार कर लिया। जब
दिल्ली का सुल्तान 1451 में एक प्रवासी के रूप में मर गया,
तो बहलोल औपचारिक रूप से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इस प्रकार सैयद
वंश का अंत हुआ।
पंदहवीं शताब्दी के मध्य से ही गंगा घाटी के उत्तरी भागों और पंजाब पर लोदियों
का अधिकार था। दिल्ली के शासक पहले तुर्क थे, लेकिन लोदी
शासक अफ़ग़ान थे। यद्यपि दिल्ली सल्तनत की फ़ौज में अनेक अफ़ग़ान थे, लेकिन अफ़ग़ानी सरदारों को कभी भी महत्त्वपूर्ण
पद नहीं दिया गया था। यही कारण था कि बख़्तियार ख़िलजी को अपने भाग्य का निर्माण बिहार और बंगाल में करना
पड़ा था। उत्तरी भारत में
अफ़ग़ानों के बढ़ते महत्व का अंदाजा मालवा में अफ़ग़ान शासन के उदय से लग रहा था।
दक्षिण में भी बहमनी सल्तनत में
उनके पास महत्त्वपूर्ण पद थे।
शासक
लोदी वंश में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण शासक हुए-
बहलोल लोदी (1451-1489
ई.)
दिल्ली में प्रथम अफ़ग़ान राज्य
का संस्थापक था। वह अफ़ग़ानिस्तान के ‘गिलजाई कबीले’ की
महत्त्वपूर्ण शाखा ‘शाहूखेल’ में पैदा
हुआ था। 19 अप्रैल, 1451 को बहलोल
‘बहलोल शाह गाजी’ की उपाधि से दिल्ली
के सिंहासन पर बैठा। चूंकि वह लोदी कबीले का अग्रगामी था, इसलिए
उसके द्वारा स्थापित वंश को 'लोदी वंश' कहा जाता है। 1451 ई. में जब सैयद वंश के अलाउद्दीन
आलमशाह ने दिल्ली का तख़्त छोड़ा, उस समय बहलोल लाहौर और सरहिन्द का सूबेदार था। उसने अपने वज़ीर हमीद ख़ाँ की मदद से दिल्ली के तख़्त पर
क़ब्ज़ा कर लिया।
पहला
अफ़ग़ान सुल्तान
बहलोल लोदी दिल्ली का पहला अफ़ग़ान सुल्तान था, जिसने लोदी वंश की शुरुआत की। बहलोल के सुल्तान बनने के समय दिल्ली सल्तनत नाम मात्र की थी। बहलोल शूरवीर,
युद्धप्रिय और महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसकी अधिकांश शक्ति शर्की शासकों से लड़ने में ही लगी रही। अपनी
स्थिति मज़बूत करने के लिए उसने रोह के अफ़ग़ानों को भारत आमंत्रित किया। अपनी स्थिति कमज़ोर देखकर बहलोल ने रोह के अफ़ग़ानों को यह
सोचते हुए बुलाया कि वे अपनी ग़रीबी के कलंक से छूट जायेंगे और मैं आगे बढ़
सकूँगा। अफ़ग़ान इतिहासकार अब्बास ख़ाँ सरवानी लिखता है कि "इन फ़रमानों को पाकर रोह के अफ़ग़ान सुल्तान बहलोल की ख़िदमत में हाज़िर होने के लिए टिड्डियों के दल की तरह आ
गए।"
हो सकता है कि इस बात को बढ़ा-चढ़ा
कर कहा गया हो। लेकिन यह सत्य है कि अफ़ग़ानों के आगमन से बहलोल न केवल शर्कियों
को हराने में सफल हुआ,
बल्कि भारत में मुस्लिम समाज की संरचना में भी अन्तर आया।
उत्तर और दक्षिण दोनों ओर अफ़ग़ान बहुसंख्यक और महत्त्वपूर्ण हो गए थे। बहलोल लोदी
ने रोह के अफ़ग़ानों को योग्यता के अनुसार जागीरें प्रदान कीं। उसने जौनपुर, मेवाड़, सम्भल तथा रेवाड़ी पर अपनी सत्ता फिर से स्थापित की और दोआब के सरदारों का दमन किया। उसने ग्वालियर पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार
उसने दिल्ली सल्तनत का पुराना दरबार एक प्रकार से फिर से क़ायम किया। वह ग़रीबों
से हमदर्दी रखता था और विद्वानों का आश्रयदाता था। दरबार में शालीनता और शिष्टाचार
के पालन पर ज़ोर देकर तथा अमीरों को अनुशासन में बाँध कर उसने सुल्तान की
प्रतिष्ठा को बहुत ऊपर उठा दिया। उसने दोआब के विद्रोही हिन्दुओं का कठोरता के साथ दमन किया, बंगाल के सूबेदार तुगरिल ख़ाँ को हराकर मार डाला और उसके प्रमुख समर्थकों को बंगाल की राजधानी 'लखनौती' के मुख्य बाज़ार में फ़ाँसी पर लटकवा दिया।
इसके उपरान्त अपने पुत्र 'बुग़रा ख़ाँ' को बंगाल का सूबेदार नियुक्त करके यह चेतावनी दे दी कि, उसने भी यदि विद्रोह करने का प्रयास किया तो उसका भी हश्र वही होगा,
जो तुगरिल ख़ाँ का हो चुका है।
दूरदर्शी
व्यक्ति
बहलोल ने अपना ध्यान सुरक्षा पर
केन्द्रित किया,
जिसके लिए उस समय पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों से ख़तरा था। वे किसी भी समय भारत पर आक्रमण कर सकते थे। अत: बहलोल ने अपने बड़े लड़के 'मुहम्मद ख़ाँ' को सुल्तान का हाक़िम नियुक्त किया और
स्वयं भी सीमा के आसपास ही पड़ाव डालकर रहने लगा। उसका डर बेबुनियाद नहीं था।
मंगोलों ने 1278 ई. में भारत पर आक्रमण करने का प्रयास किया,
किन्तु 'शाहआलम मुहम्मद ख़ाँ' ने उन्हें पीछे खदेड़ दिया। 1485 ई. में पुन: आक्रमण
कर वे मुल्तान तक बढ़ आये, और शाहज़ादे पर हमला करके उसे मार
डाला। सुल्तान के लिए, जो कि अपने बड़े बेटे से बहुत प्यार
करता था और यह उम्मीद लगाये बैठा था कि, वह उसका
उत्तराधिकारी होगा, यह भीषण आघात था। बहलोल की अवस्था उस समय
अस्सी वर्ष हो चुकी थी और पुत्र शोक में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी गणना दिल्ली के सबसे शक्तिशाली सुल्तानों में होती है।
सहृदय
बहलोल अपने सरदारों को ‘मसनद-ए-अली’ कहकर पुकारता था। बहलोल लोदी का राजत्व
सिद्धान्त समानता पर आधारित था। वह अफ़ग़ान सरदारों को अपने समकक्ष मानता था। वह
अपने सरदारों के खड़े रहने पर खुद भी खड़ा रहता था। बहलोल लोदी ने ‘बहलोली सिक्के’ का प्रचलन करवाया, जो अकबर के समय तक
उत्तर भारत में विनिमय का प्रमुख साधन बना रहा। बहलोल लोदी धार्मिक रूप से सहिष्णु
था। उसके सरदारों में कई प्रतिष्ठित सरदार हिन्दू थे। इनमें रायप्रताप सिंह, रायकरन सिंह, रायनर सिंह, राय त्रिलोकचकचन्द्र और राय दांदू
प्रमुख हैं।
सिकन्दर
लोदी (1489-1517
ई.)
सिकन्दर लोदी बहलोल लोदी का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। इसका मूल नाम 'निजाम
ख़ाँ' था और यह 17 जुलाई,
1489 को 'सुल्तान सिकन्दर शाह' की उपाधि से दिल्ली के
सिंहासन पर बैठा। वह स्वर्णकार हिन्दू माँ की संतान था। धार्मिक दृष्टि से सिकन्दर लोदी असहिष्णु था। वह विद्या
का पोषक व प्रेमी था। गले की बीमारी के कारण 21 नवम्बर,
1517 को उसकी मृत्यु हो गई।
विजय
अभियान
सिंहासन पर बैठने के उपरान्त
सुल्तान ने सर्वप्रथम अपने विरोधियों में चाचा आलम ख़ाँ, ईसा ख़ाँ, आजम हुमायूं (सुल्तान का भतीजा) तथा जालरा
के सरदार तातार ख़ाँ को परास्त किया। सिकन्दर लोदी ने जौनपुर को अपने अधीन करने के लिए अपने बड़े भाई 'बारबक शाह'
के ख़िलाफ़ अभियान किया, जिसमें उसे पूर्ण
सफलता मिली। जौनपुर के बाद सुल्तान सिकन्दर लोदी ने 1494 ई.
में बनारस के समीप हुए एक
युद्ध में हुसैनशाह शर्की को
परास्त कर बिहार को दिल्ली में मिला लिया। इसके बाद उसने तिरहुत के
शासक को अपने अधीन किया। राजपूत राज्यों में सिकन्दर लोदी ने धौलपुर, मन्दरेल, उतागिरि, नरवर एवं नागौर को जीता, परन्तु ग्वालियर पर अधिकार नहीं कर सका। राजस्थान के शासकों पर प्रभावी नियंत्रण रखने
के लिए तथा व्यापारिक शहर की नींव डाली।
शासन प्रबन्ध
सिकन्दर लोदी गुजरात के महमूद
बेगड़ा और मेवाड़ के राणा सांगा का
समकालीन था। उसने दिल्ली को इन दोनों से मुक़ाबले के योग्य बनाया। उसने उन अफ़ग़ान
सरदारों का दबाने की कोशिश भी की, जो जातिय स्वतंत्रता के आदी
थे और सुल्तान को अपने बराबर समझते थे। सिकन्दर ने जब सरदारों को अपने सामने खड़े
होने का हुक्म दिया, ताकि उनके ऊपर अपनी महत्ता प्रदर्शित कर
सके। जब शाही फ़रमान भेजा जाता था तो सब सरदारों को शहर से बाहर आकर आदर के साथ
उसका स्वागत करना पड़ता था। जिनके पास जागीरें थीं, उन्हें
नियमित रूप से उनका लेखा देना होता था और हिसाब में गड़बड़ करने वाले और
भ्रष्टाचारी ज़ागीरदारों को कड़ी सजाएँ दी जाती थीं। लेकिन सिकन्दर लोदी को इन
सरदारों को क़ाबू में रखने में अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई। अपनी मृत्यु के समय बहलोल लोदी ने अपने पुत्रों और रिश्तेदारों में
राज्य बांट दिया था। यद्यपि सिकन्दर एक बड़े संघर्ष के बाद उसे फिर से एकत्र करने
में सफल हुआ था, लेकिन सुल्तान के पुत्रों में राज्य के
बंटवारे का विचार अफ़ग़ानों के दिमाग़ में बना रहता था।
सुधार
कार्य
सिकन्दर शाह ने भूमि के लिए एक
प्रमाणिक पैमाना ‘गज-ए-सिकन्दरी’ का प्रचलन करवाया, जो 30 इंच का था। उसने अनाज पर से चुंगी हटा दी और
अन्य व्यापारिक कर हटा दिये, जिससे अनाज, कपड़ा एवं आवश्यकता की अन्य वस्तुएँ सस्ती हो गयीं। सिकन्दर लोदी ने
खाद्यान्न पर से जकात कर हटा लिया तथा भूमि में गढ़े हुए खज़ाने से कोई हिस्सा
नहीं लिया। अपने व्यक्तित्व की सुन्दरता बनाये रखने के लिए वह दाढ़ी नहीं रखता था।
सिकन्दर लोदी ने अफ़ग़ान सरदारों
से समानता की नीति का परित्याग करके श्रेष्ठता की नीति का अनुसरण किया। सिकन्दर
लोदी सल्तनत काल का एक मात्र सुल्तान हुआ, जिसमें खुम्स से
कोई हिस्सा नहीं लिया। उसने निर्धनों के लिए मुफ़्त भोजन की व्यवस्था करायी। उसने
आन्तरिक व्यापार कर को समाप्त कर दिया तथा गुप्तचर विभाग का पुनर्गठन किया।
असहिष्णु
व्यक्ति
धार्मिक दृष्टि से सिकन्दर लोदी
असहिष्णु था। उसने हिन्दू मंदिरों को तोड़ कर वहाँ पर मस्जिद का
निर्माण करवाया। एक इतिहासकार के अनुसार, 'सिकन्दर ने नगरकोट के ज्वालामुखी मंदिर की मूर्ति को तोड़कर उसके टुकड़ों को कसाइयों को माँस तोलने के लिए
दे दिया था।' सिकन्दर लोदी ने हिन्दुओं पर जज़िया कर पुनः लगा दिया। उसने एक ब्राह्मण को इसलिए फाँसी दे दी, क्योंकि उसका कहना था कि, हिन्दू और मुस्लिम समान रूप
से पवित्र हैं। मुसलमानों को ‘ताजिया’ निकालने
एवं मुसलमान स्त्रियों को
पीरों एवं सन्तों के मजार पर जाने पर सुल्तान ने प्रतिबंध लगाया। क्रोध में उसने शर्की शासकों द्वारा जौनपुर में बनवायी गयी एक मस्जिद तोड़ने का
आदेश दिया, यद्यपि उलेमाओं की सलाह पर आदेश वापस ले लिया
गया।
मृत्यु
जीवन के अन्तिम समय में सुल्तान
सिकन्दर शाह के गले में बीमारी होने से 21 नवम्बर,
1517 को उसकी मृत्यु हो गई। आधुनिक इतिहासकार सिकन्दर लोदी को लोदी वंश का सबसे सफल शासक मानते है। सिकन्दर
लोदी कहता था कि, “यदि मै अपने एक ग़ुलाम को भी पालकी में
बैठा दूँ तो, मेरे आदेश पर मेरे सभी सरदार उसे अपने कन्धों
पर उठाकर ले जायेगें।” सिकन्दर लोदी प्रथम सुल्तान था,
जिसने आगरा को
अपनी राजधानी बनाया। निष्पक्ष न्याय के लिए मियां भुआं को नियुक्त किया। सुल्तान शहनाई सुनने का शौक़ीन था।
विद्वानों
का संरक्षणदाता
सिकन्दर शाह लोदी विद्या का पोषक
था। वह विद्वानों और दार्शनिकों को बड़े-बड़े अनुदान देता था। इसलिए उसके दरबार
में अरब और ईरान सहित विभिन्न जातियों और देशों के सुसंस्कृत विद्वान पहुँचते थे।
सुल्तान के प्रयत्नों से कई संस्कृत ग्रंथ फ़ारसी भाषा में
अनुवादित हुए। उसके आदेश पर संस्कृत के एक आयुर्वेद ग्रंथ का फ़ारसी में ‘फरहंगे सिकन्दरी’ के नाम से अनुवाद हुआ। उसका उपनाम ‘गुलरुखी’ था। इसी उपनाम से वह कविताएँ लिखा करता था।
उसने संगीत के एक ग्रन्थ ‘लज्जत-ए-सिकन्दरशाही’ की रचना की।
सिकन्दर शाह लोदी स्वयं भी शिक्षित
और विद्वान था। विद्वानों को संरक्षण देने के कारण उसका दरबार विद्वानों का
केन्द्र स्थल बन गया था। प्रत्येक रात्रि को 70 विद्वान उसके पलंग
के नीचे बैठकर विभिन्न प्रकार की चर्चा किया करते थे। उसने मस्जिदों को सरकारी
संस्थाओं का स्वरूप प्रदान करके उन्हें शिक्षा का केन्द्र बनाने का प्रयत्न किया
था। मुस्लिम शिक्षा में सुधार करने के लिए उसने तुलम्बा के विद्वान शेख़
अब्दुल्लाह और शेख़ अजीजुल्लाह को बुलाया था। उसके शासनकाल में हिन्दू भी बड़ी
संख्या में फ़ारसी सीखने लगे थे और उन्हें उच्च पदों पर रखा गया था।
इब्राहीम लोदी (1517-1526 ई.) सिकन्दर शाह लोदी के मरने के बाद अमीरों ने आम सहमति से उसके पुत्र इब्राहीम लोदी (1517-1526 ई.) को 21
नवम्बर, 1517 को आगरा के सिंहासन पर बैठाया। अपने शासन काल के शुरू में उसने राजपूतों से ग्वालियर छीन लिया, परन्तु उसने अफ़ग़ान सरदारों को कड़े नियंत्रण में रखने की जो नीति अपनायी तथा उनके साथ जिस
प्रकार का कठोर व्यवहार किया, उससे वे उसके विरोधी बन गये।
इब्राहीम लोदी दिल्ली का
अन्तिम सुल्तान था। 21 अप्रैल, 1526 को पानीपत के मैदान
इब्राहीम लोदी की हत्या कर दी गई।
असफलता
इब्राहीम लोदी ने राज्य का विभाजन करके अपने भाई 'जलाल ख़ाँ' को जौनपुर का शासक
नियुक्त किया, परन्तु बाद में जौनपुर को अपने राज्य में मिला
लिया। सिंहासन पर बैठने के उपरान्त इब्राहीम ने आजम हुमायूं शेरवानी को ग्वालियर पर आक्रमण करने हेतु भेजा। वहाँ के
तत्कालीन शासक विक्रमजीत सिंह ने इब्राहीम की अधीनता स्वीकार कर ली। मेवाड़ के शासक राणा
साँगा के विरुद्ध इब्राहीम लोदी का अभियान असफल रहा।
खतौली के युद्ध में इब्राहीम लोदी राणा साँगा से हार गया। इस युद्ध में राणा साँगा
ने अपना बाँया हाथ खो दिया। राणा साँगा ने चन्देरी पर अधिकार कर लिया।
झगड़े
का कारण
मेवाड़ एवं इब्राहीम लोदी के बीच झगड़े का मुख्य कारण मालवा पर अधिकार को लेकर था। इब्राहीम के भाई जलाल ख़ाँ ने जौनपुर को अपने अधिकार
में कर लिया था। उसने कालपी में
‘जलालुद्दीन’ की उपाधि के साथ अपना
राज्याभिषेक करवाया था। इब्राहीम लोदी ने लोहानी, फारमूली
एवं लोदी जातियों के दमन का पूर्ण प्रयास किया, जिससे
शक्तिशाली सरदार असंतुष्ट हो गये।
पराजय
एवं मृत्यु
इब्राहीम के असंतुष्ट सरदारों में पंजाब का शासक ‘दौलत ख़ाँ
लोदी’ एवं इब्राहीम लोदी के चाचा ‘आलम
ख़ाँ’ ने काबुल के तैमूर वंशी शासक बाबर को भारत पर आक्रमण
के लिए निमंत्रण दिया। बाबर ने यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया और वह भारत आया। 21
अप्रैल, 1526 को पानीपत के मैदान में इब्राहीम लोदी और बाबर के मध्य हुए भयानक संघर्ष में लोदी की
बुरी तरह हार हुई और उसकी हत्या कर दी गई। इब्राहिम लोदी की सबसे बड़ी दुर्बलता
उसका हठी स्वभाव था। उसके समय की प्रमुख विशेषता उसका अपने सरदारों से संघर्ष था।
इब्राहीम की मृत्यु के साथ ही दिल्ली सल्तनत समाप्त हो गई और बाबर ने भारत में एक नवीन वंश ‘मुग़ल
वंश’ की स्थापना की।
विद्धानों
के विचार
- फ़रिश्ता
के अनुसार - “वह मृत्युपर्यन्त लड़ा और एक सैनिक भाँति मारा गया।”
- नियामतुल्लाह
का विचार है कि - “सुल्तान इब्राहिम लोदी के अतिरिक्त भारत का कोई अन्य सुल्तान युद्ध स्थल में नहीं मारा गया।”
·
इब्राहीम लोदी 1526
ई. में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर के हाथों मारा गया और उसी के साथ ही लोदी वंश भी समाप्त हो गया।
·
आलम ख़ाँ सुल्तान बहलोल लोदी (1451-89 ई.) का तीसरा बेटा
था और दिल्ली के अन्तिम
सुल्तान इब्राहीम लोदी (1517-26 ई.) का चाचा था।
·
आलम ख़ाँ अपने भतीजे की अपेक्षा
अपने को दिल्ली की सल्तनत का असली हक़दार समझता था।
·
जब वह अपने बल पर इब्राहीम लोदी को
गद्दी से नहीं हटा सका तो उसने लाहौर के हाक़िम दौलत ख़ाँ लोदी से मिलकर बाबर को हिन्दुस्तान पर हमला करने के लिए निमंत्रण दिया।
·
इसके फलस्वरूप बाबर ने भारत पर हमला किया और पानीपत की पहली
लड़ाई (1526 ई.) में इब्राहीम लोदी को हराने के बाद मौत
के घाट उतार दिया।
·
इसके तदुपरान्त बाबर स्वयं दिल्ली
के तख़्त पर बैठ गया और आलमशाह की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया।
·
आलम ख़ाँ की कुछ समय के बाद मृत्यु
हो गई।
जलाल ख़ाँ लोदी दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम
लोदी (1517-1526 ई.) का भाई था। 1517 ई. में उसे जौनपुर का
शासक बनाया गया था। परंतु सल्तनत का यह बंटवारा कई लोगों को स्वीकार नहीं था।
·
बंटवारे से अप्रसन्न जलाल ख़ाँ ने
शीघ्र ही दिल्ली सल्तनत के ख़िलाफ़ बगावत का झंडा बुलन्द
कर दिया।
·
सुल्तान इब्राहीम लोदी ने जब उसके
विरुद्ध सेना भेजी,
तब जलाल ख़ाँ ग्वालियर भाग गया।
·
ग्वालियर के राजपूत राजा विक्रमाजीत ने जलाल ख़ाँ को अपने
यहाँ शरण दी।
·
जलाल ख़ाँ को विक्रमाजीत द्वारा शरण
दिये जाने से इब्राहीम लोदी भड़क उठा और उसने ग्वालियर पर
आक्रमण कर दिया।
·
एक युद्ध के पश्चात् राजा
विक्रमाजीत आत्मसमर्पण करने के लिए विवश हो गया। युद्ध में जलाल ख़ाँ मारा गया।
बहलोली सल्तनत काल में प्रचलित ताँबे का सिक्का था,
जो बहलोल लोदी के द्वारा प्रचलन में लाया गया था। यह 1/40 टका के समतुल्य था।[1]
·
बहलोल लोदी अपने सरदारों को ‘मसनद-ए-अली’ कहकर पुकारता था। उसका राजत्व सिद्धान्त
समानता पर आधारित था।
·
वह अफ़ग़ान सरदारों को अपने समकक्ष मानता था। बहलोल अपने सरदारों के खड़े रहने पर खुद
भी खड़ा रहता था।
·
उसने ‘बहलोली सिक्के’ का प्रचलन करवाया, जो अकबर के समय तक उत्तर भारत में विनिमय का प्रमुख साधन बना रहा।
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