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सोमवार, 14 मई 2018

तुग़लक़ वंश • ग़यासुद्दीन तुग़लक़ • मुहम्मद बिन तुग़लक़ • फ़िरोज शाह तुग़लक़ • नसरत शाह तुग़लक़ • महमूद तुग़लक 1. वारंगल व तेलंगाना की विजय (1324 ई.) तिरहुती विजय, मंगोल विजय (1324 ई.)


तुग़लक़ वंश
ग़यासुद्दीन ने एक नये वंश अर्थात् तुग़लक़ वंश की स्थापना की, जिसने 1412 तक राज किया। इस वंश में तीन योग्य शासक हुए। ग़यासुद्दीन, उसका पुत्र मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1324-51) और उसका उत्तराधिकारी फ़िरोज शाह तुग़लक़ (1351-87)। इनमें से पहले दो शासकों का अधिकार क़रीब-क़रीब पूरे देश पर था। फ़िरोज का साम्राज्य उनसे छोटा अवश्य था, पर फिर भी अलाउद्दीन ख़िलजी के साम्राज्य से छोटा नहीं था। फ़िरोज की मृत्यु के बाद दिल्ली सल्तनत का विघटन हो गया और उत्तर भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया। यद्यपि तुग़लक़ 1412 तक शासन करत रहे, तथापि 1399 में तैमूर द्वारा दिल्ली पर आक्रमण के साथ ही तुग़लक़ साम्राज्य का अंत माना जाना चाहिए।
शासकों के नाम
·         ग़यासुद्दीन तुग़लक़
·         मुहम्मद बिन तुग़लक़
·         फ़िरोज शाह तुग़लक़
तुग़लक़ वंश का पतन
इन तीनों योग्य शासकों के बाद कोई और शासक सही शासन न कर सके। इसके बाद तुग़लक़ वंश का पतन शुरू हो गया। इनके अलावा कुछ शासक और हुए जिनका नाम इस प्रकार है:-
·         नसरत शाह तुग़लक़
·         महमूद तुग़लक

ग़यासुद्दीन तुग़लक़ (1320 से 1325 ई.) ग़ाज़ी मलिक या तुग़लक़ ग़ाज़ीग़यासुद्दीन तुग़लक़ (1320-1325 ई.) के नाम से 8 सितम्बर, 1320 को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। इसे तुग़लक़ वंश का संस्थापक भी माना जाता है। इसने कुल 29 बार मंगोल आक्रमण को विफल किया। सुल्तान बनने से पहले वह क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी के शासन काल में उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रान्त का शक्तिशाली गर्वनर नियुक्त हुआ था। वह दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था, जिसने अपने नाम के साथ 'ग़ाज़ी' (काफ़िरों का वध करने वाला) शब्द जोड़ा था। आर्थिक सुधार

सुल्तान ने आर्थिक सुधार के अन्तर्गत अपनी आर्थिक नीति का आधार संयम, सख्ती एवं नरमी के मध्य संतुलन (रस्म-ए-मियान) को बनाया। उसने लगान के रूप में उपज का 1/10 या 1/12 हिस्सा ही लेने का आदेश जारी कराया। ग़यासुद्दीन ने मध्यवर्ती ज़मीदारों विशेष रूप से मुकद्दम तथा खूतों को उनके पुराने अधिकार लौटा दिए, जिससे उनको वही स्थिति प्राप्त हो गयी, जो बलबन के समय में प्राप्त थी। ग़यासुद्दीन ने अमीरों की भूमि पुनः लौटा दी। उसने सिंचाई के लिए कुँए एवं नहरों का निर्माण करवाया। सम्भवतः नहर का निर्माण करवाने वाला ग़यासुद्दीन प्रथम सुल्तान था। अलाउद्दीन ख़िलजी की कठोर नीति के विरुद्ध उसने उदारता की नीति अपनायी, जिसे बरनी ने 'रस्मेमियान' अथवा 'मध्यपंथी नीति' कहा है।
उदार व्यक्ति
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की डाक व्यवस्था श्रेष्ठ थी। न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत ग़यासुद्दीन ने एक न्याय विभाग का निर्माण करवाया। उसमें धार्मिक सहिष्णुता का अभाव था। उसने अलाउद्दीन ख़िलजी द्वारा चलाई गयी दाग़ने तथा चेहरा प्रथा को प्रभावी तरीक़े से लागू किया। वह दानी स्वभाव का होने के साथ जनकल्याणकारी कार्यों को कराने में दिलचस्पी रखता था। बरनी के अनुसार सुल्तान अपने सैनिकों के साथ पुत्रवत व्यवहार करता था। उसकी सेना में गिज, तुर्कमंगोल, रूमी, ताजिक, खुरासानी, मेवाती एवं दोआब के राजपूत सैनिक शामिल थे। उसकी महत्त्वपूर्ण विजय निम्नलिखित थीं-
1. वारंगल व तेलंगाना की विजय (1324 ई.)
2. तिरहुती विजय, मंगोल विजय (1324 ई.) आदि।
विजय अभियान
1321 ई. में ग़यासुद्दीन ने वारंगल पर आक्रमण किया, किन्तु वहाँ के काकतीय राजा प्रताप रुद्रदेव को पराजित करने में वह असफल रहा। 1323 ई. में द्वितीय अभियान के अन्तर्गत ग़यासुद्दीन तुग़लक़ ने शाहज़ादे 'जौना ख़ाँ' (मुहम्मद बिन तुग़लक़) को दक्षिण भारत में सल्तनत के प्रभुत्व की पुन:स्थापना के लिए भेजा। जौना ख़ाँ ने वारंगल के काकतीय एवं मदुरा के पाण्ड्य राज्यों को विजित कर दिल्ली सल्तनत में शामिल कर लिया। इस प्रकार सर्वप्रथम ग़यासुद्दीन के समय में ही दक्षिण के राज्यों को दिल्ली सल्तनत में मिलाया गया। इन राज्यों में सर्वप्रथम वारंगल था। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ पूर्णतः साम्राज्यवादी था। इसने अलाउद्दीन ख़िलजी की दक्षिण नीति त्यागकर दक्षिणी राज्यों को दिल्ली सल्तनत में शामिल कर लिया।
ग़यासुद्दीन जब बंगाल में था, तभी सूचना मिली कि, जूना ख़ाँ (मुहम्मद बिन तुग़लक़) निज़ामुद्दीन औलिया का शिष्य बन गया है और वह उसे राजा होने की भविष्यवाणी कर रहा है। निज़ामुद्दीन औलिया को ग़यासुद्दीन तुग़लक़ ने धमकी दी तो, औलिया ने उत्तर दिया कि, "हुनूज दिल्ली दूर अस्त, अर्थात् दिल्ली अभी बहुत दूर है। हिन्दू जनता के प्रति ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की नीति कठोर थी। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ संगीत का घोर विरोधी था। बरनी के अनुसार अलाउद्दीन ख़िलजी ने शासन स्थापित करने के लिये जहाँ रक्तपात व अत्याचार की नीति अपनाई, वहीं ग़यासुद्दीन ने चार वर्षों में ही उसे बिना किसी कठोरता के संभव बनाया।

 

राजस्व सुधार

अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद ग़यासुद्दीन तुग़लक़ ने अमीरों तथा जनता को प्रोत्साहित किया। शुद्ध रूप से तुर्की मूल का होने के कारण इस कार्य में उसे कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई। ग़यासुद्दीन ने कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों के हितों की ओर ध्यान दिया। उसने एक वर्ष में इक्ता के राजस्व में 1/10 से 1/11 भाग से अधिक की वृद्धि नहीं करने का आदेश दिया। उसने सिंचाई के लिए नहरें खुदवायीं तथा बाग़ बनवायें।

सार्वजनिक सुधार

जनता की सुविधा के लिए अपने शासन काल में ग़यासुद्दीन ने क़िलों, पुलों और नहरों का निर्माण कराया। सल्तनत काल में डाक व्यवस्था को सुदृढ़ करने का श्रेय ग़यासुद्दीन तुग़लक़ को ही जाता है। बरनीने डाक-व्यवस्था का विस्तृत वर्णन किया है। शारीरिक यातना द्वारा राजकीय ऋण वसूली को उसने प्रतिबंधित कर दिया, लेकिन हिन्दू जनता के प्रति उसकी कठोर नीति यथावत बनी रही। उसने हिन्दुओं का धन जमा करने की आज्ञा का निषेध किया।

धार्मिक कार्य

ग़यासुद्दीन एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। इस्लाम धर्म में उसकी गहरी आस्था और उसके सिद्धान्तों का वह सावधानीपूर्वक पालन करता था। उसने मुसलमान जनता पर इस्लाम के नियमों का पालन करने के लिए दबाव डाला। उसने अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता की नीति अपनाई थी।

निर्माण कार्य

स्थापत्य कला के क्षेत्र में ग़यासुद्दीन ने विशेष रूप में रुचि ली। अपने शसन काल में उसने तुग़लक़ाबाद नामक एक दुर्ग की नींव रखी।

 

मृत्यु

जब ग़यासुद्दीन तुग़लक़ बंगाल अभियान से लौट रहा था, तब लौटते समय तुग़लक़ाबाद से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अफ़ग़ानपुर में एक महल (जिसे उसके लड़के जूना ख़ाँ के निर्देश पर अहमद अयाज ने लकड़ियों से निर्मित करवाया था) में सुल्तान ग़यासुद्दीन के प्रवेश करते ही वह महल गिर गया, जिसमें दबकर उसकी मार्च, 1325 ई. को मुत्यृ हो गयी। इस घटना के समय शेख रुकनुद्दीन महल में मौजूद था, जिसे उलूग ख़ाँ ने नमाज़ पढ़ने के बहाने उस स्थान से हटा दिया था। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ का मक़बरा तुग़लक़ाबाद में स्थित है।

मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325 से 1351 ई.) ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र 'जूना ख़ाँ', मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351 ई.) के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम 'उलूग ख़ाँ' था। राजामुंदरी के एक अभिलेख में मुहम्मद तुग़लक़ (जौना या जूना ख़ाँ) को दुनिया का ख़ान कहा गया है। सम्भवतः मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान् एवं योग्य व्यक्ति था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूर-कृत्यों एवं दूसरे के सुख-दुख के प्रति उपेक्षा का भाव रखने के कारण इसे 'स्वप्नशील', 'पागल' एवं 'रक्त-पिपासु' कहा गया है। बरनी, सरहिन्दी , निज़ामुद्दीनबदायूंनी एवं फ़रिश्ता जैसे इतिहासकारों ने सुल्तान को अधर्मी घोषित किया गया है।
पद व्यवस्था
सिंहासन पर बैठने के बाद तुग़लक़ ने अमीरों एवं सरदारों को विभिन्न उपाधियाँ एवं पद प्रदान किया। उसने तातार ख़ाँ को 'बहराम ख़ाँ' की उपाधि, मलिक क़बूल को 'इमाद-उल-मुल्क' की उपाधि एवं 'वज़ीर-ए-मुमालिक' का पद दिया था, पर कालान्तर में उसे 'ख़ानेजहाँ' की उपाधि के साथ गुजरात का हाक़िम बनाया गया। उसने मलिक अरूयाज को ख्वाजा जहान की उपाधि के साथ शहना-ए-इमारतका पद, मौलाना ग़यासुद्दीन को (सुल्तान का अध्यापक) 'कुतुलुग ख़ाँ' की उपाधि के साथ 'वकील-ए-दर' की पदवी, अपने चचेरे भाई फ़िरोज शाह तुग़लक़ को 'नायब बारबक' का पद प्रदान किया था।
गुणवान व्यक्ति
मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली के सभी सुल्तानों में सर्वाधिक कुशाग्र, बुद्धि सम्पन्नधर्म-निरेपक्षकला-प्रेमी एवं अनुभवी सेनापति था। वह अरबी भाषा एवं फ़ारसी भाषा का विद्धान तथा खगोलशास्त्रदर्शन, गणित, चिकित्साविज्ञान, तर्कशास्त्र आदि में पारंगत था। अलाउद्दीन ख़िलजी की भाँति अपने शासन काल के प्रारम्भ में उसने, न तो ख़लीफ़ा से अपने पद की स्वीकृति ली और न उलेमा वर्ग का सहयोग लिया, यद्यपि बाद मे ऐसा करना पड़ा। उसने न्याय विभाग पर उलेमा वर्ग का एकाधिपत्य समाप्त किया। क़ाज़ी के जिस फैसले से वह संतुष्ट नहीं होता था, उसे बदल देता था। सर्वप्रथम मुहम्मद तुग़लक़ ने ही बिना किसी भेदभाव के योग्यता के आधार पर पदों का आवंटन किया। नस्ल और वर्ग-विभेद को समाप्त करके योग्यता के आधार पर अधिकारियों को नियुक्त करने की नीति अपनायी। वस्तुत: यह उस शासक का दुर्भाग्य था कि, उसकी योजनाएं सफलतापूर्वक क्रियान्वित नहीं हुई। जिसके कारण यह इतिहासकारों की आलोचना का पात्र बना।
दिल्ली सल्तनत
मुहम्मद तुग़लक़ के सिंहासन पर बैठते समय दिल्ली सल्तनत कुल 23 प्रांतों में बँटा थी, जिनमें मुख्य थे - दिल्लीदेवगिरिलाहौर, मुल्तान, सरमुतीगुजरातअवधकन्नौज, लखनौतीबिहारमालवा, जाजनगर (उड़ीसा), द्वारसमुद्र आदि।  कश्मीर  एवं  बलूचिस्तान दिल्ली सल्तनत में शामिल नहीं थे। दिल्ली सल्तनत की सीमा का सर्वाधिक विस्तार इसी के शासनकाल में हुआ था। परन्तु इसकी क्रूर नीति के कारण राज्य में विद्रोह आरम्भ हो गया। जिसके फलस्वरूप दक्षिण में नए स्वतंत्र राज्य की स्थापना हुई और ये क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से अलग हो गए। बंगाल भी स्वतंत्र हो गया। राज्यारोहण के बाद मुहम्मद तुग़लक़ ने कुछ नवीन योजनाओं का निर्माण कर उन्हें क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया। जैसे -
1. दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.)
2. राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.)
3. सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.)
4. खुरासन एवं काराचिल का अभियान आदि।
दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि
अपनी प्रथम योजना के द्वारा मुहम्मद तुग़लक़ ने दोआब के ऊपजाऊ प्रदेश में कर की वृद्धि कर दी (संभवतः 50 प्रतिशत), परन्तु उसी वर्ष दोआब में भयंकर अकाल पड़ गया, जिससे पैदावार प्रभावित हुई। तुग़लक़ के अधिकारियों द्वारा ज़बरन कर वसूलने से उस क्षेत्र में विद्रोह हो गया, जिससे तुग़लक़ की यह योजना असफल रही। मुहम्मद तुग़लक़ ने कृषि के विकास के लिए अमीर-ए-कोहीनामक एक नवीन विभाग की स्थापना की। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता, भूमि का अच्छा न होना इत्यादि कारणों से कृषि उन्नति सम्बन्धी अपनी योजना को तीन वर्ष पश्चात् समाप्त कर दिया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने किसानों को बहुत कम ब्याज पर ऋण (सोनथर) उपलब्ध कराया।
राजधानी परिवर्तन
तुग़लक़ ने अपनी दूसरी योजना के अन्तर्गत राजधानी को दिल्ली से देवगिरि  स्थानान्तरित किया। देवगिरि को कुव्वतुल इस्लामभी कहा गया। सुल्तान  कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने देवगिरि का नाम 'कुतुबाबाद' रखा था और मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने इसका नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की गई। मुहम्मद तुग़लक़ द्वारा राजधानी परिवर्तन के कारणों पर इतिहासकारों में बड़ा विवाद है, फिर भी निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि, देवगिरि का दिल्ली सल्तनत के मध्य स्थित होनामंगोल आक्रमणकारियों के भय से सुरक्षित रहना, दक्षिण-भारत की सम्पन्नता की ओर खिंचाव आदि ऐसे कारण थे, जिनके कारण सुल्तान ने राजधानी परिवर्तित करने की बात सोची। मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1355 ई. में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ, जिसने अंततः बहमनी साम्राज्य के उदय का मार्ग खोला।
सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन
तीसरी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ ने सांकेतिक व प्रतीकात्मक सिक्कों का प्रचलन करवाया। सिक्के संबंधी विविध प्रयोगों के कारण ही एडवर्ड टामस ने उसे धनवानों का राजकुमारकहा है। मुहम्मद तुग़लक़ ने 'दोकानी' नामक सिक्के का प्रचलन करवाया। बरनी के अनुसार सम्भवतः सुल्तान ने राजकोष की रिक्तता के कारण एवं अपनी साम्राज्य विस्तार की नीति को सफल बनाने हेतु सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन करवाया। सांकेतिक मुद्रा के अन्तर्गत सुल्तान ने संभवतः पीतल (फ़रिश्ता के अनुसार) और तांबा (बरनी के अनुसार) धातुओं के सिक्के चलाये, जिसका मूल्य चांदी के रुपये टका के बराबर होता था। सिक्का ढालने पर राज्य का नियंत्रण नहीं रहने से अनेक जाली टकसाल बन गये। लगान जाली सिक्के से दिया जाने लगा, जिससे अर्थव्यवसथा ठप्प हो गई। सांकेतिक मुद्रा चलाने की प्रेरणा चीन तथा ईरान से मिली। वहाँ के शासकों ने इन योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाया, जबकि मुहम्मद तुग़लक़ का प्रयोग विफल रहा। सुल्तान को अपनी इस योजना की असफलता पर भयानक आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा।
खुरासान एवं कराचिल अभियान
चौथी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ के खुरासान एवं कराचिल विजय अभियान का उल्लेख किया जाता है। खुरासन को जीतने के लिए मुहम्मद तुग़लक़ ने 3,70,000 सैनिकों की विशाल सेना को एक वर्ष का अग्रिम वेतन दे दिया, परन्तु राजनीतिक परिवर्तन के कारण दोनों देशों के मध्य समझौता हो गया, जिससे सुल्तान की यह योजना असफल रही और उसे आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ी। कराचिल अभियान के अन्तर्गत सुल्तान ने खुसरो मलिक के नेतृत्व में एक विशाल सेना को पहाड़ी राज्यों को जीतने के लिए भेजा। उसकी पूरी सेना जंगली रास्तों में भटक गईइब्न बतूता के अनुसार अन्ततः केवल तीन अधिकारी ही बचकर वापस आ सके। इस प्रकार मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी असफल रही। सम्भवतः 1328-29 ई. के मध्य मंगोल आक्रमणकारी तरमाशरीन चग़ताई ने एक विशाल सेना के साथ भारत पर आक्रमण कर मुल्तानलाहौर से लेकर दिल्ली तक के प्रदेशों को रौंद डाला। ऐसा माना जाता है कि, सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ ने मंगोल नेता को घूस देकर वापस कर दिया था। इस नीति के कारण सुल्तान को आलोचना का शिकार बनना पड़ा। इसके बाद फिर कभी मुहम्मद तुग़लक़ के समय में भारत पर मंगोल आक्रमण नहीं हुआ। अपनी महत्त्वाकांक्षी असफल योजनाओं के कारण मुहम्मद तुग़लक़ को असफलताओं का बादशाहकहा जाता है।
महत्त्वपूर्ण विद्रोह
मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासन काल में सबसे अधिक (34) विद्रोह हुए, जिनमें से 27 विद्रोह अकेले दक्षिण भारत में ही हुए। सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ के शासन काल में हुए कुछ महत्त्वपूर्ण विद्रोहों का सारांश निम्नलिखित हैं-
प्रथम विद्रोह 1327 ई. में तुग़लक़ के चचेरे भाई सुल्तान गुरशास्प ने किया, जो गुलबर्गा के निकट सागर का सूबेदार था। वह सुल्तान द्वारा बुरी तरह से पराजित किया गया। मुहम्मद तुग़लक़ के विरुद्ध सिंध तथा मुल्तान के सूबेदार बहराम आईबा ऊर्फ किश्लू ख़ाँ ने 1327-1328 ई. में विद्रोह किया। सैयद जलालुद्दीन हसनशाह का मालाबार विद्रोह 1334-1335 ई. में किया गया। बंगाल का विद्रोह (1330-1331 ई.) प्रमुख हैं। बंगाल के विद्रोह को यद्यपि प्रारंभ में दबा लिया गया था, किन्तु 1340-1341 ई. के लगभग शम्सुद्दीन के नेतृत्व में बंगाल दिल्ली सल्तनत से अलग हो गया। 1337-1338 ई. में कड़ा के सूबेदार निज़ाम भाई का विद्रोह, 1338-1339 ई. में बीदर के सूबेदार, नुसरत ख़ाँ का विद्रोह, 1339-1340 ई. में गुलबर्गा के अलीशाह का विद्रोह आदि भी मुहम्मद तुग़लक़ के विरुद्ध किये गये विद्रोहों में प्रमुख हैं। इस तरह के विद्रोहों का सुल्तान ने सफलतापूर्वक दमन किया। मुहम्मद तुग़लक़ के शासनकाल में ही दक्षिण में 1336 ई. में 'हरिहर' एवं 'बुक्का' नामक दो भाईयों ने स्वतंत्र विजयनगरकी स्थापना की। अफ़्रीकी यात्री इब्न बतूता को 1333 ई. में मुहम्मद ने अपने राजदूत के रूप में चीन भेजा। इब्न बतूता ने अपनी पुस्तक रेहलामें मुहम्मद तुग़लक़ के समय की घटनाओं का वर्णन किया है। मुहम्मद तुग़लक़ धार्मिक रूप में सहिष्णु था। जैन विद्वान् एवं संत 'जिनप्रभु सूरी' को दरबार में बुलाकर सम्मान प्रदान किया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था, जिसने हिन्दू त्योहरों (होलीदीपावली) में भाग लिया। दिल्ली के प्रसिद्ध सूफ़ी शेख़ 'शिहाबुद्दीन' को 'दीवान-ए-मुस्तखराज' नियुक्त किया तथा शेख़ 'मुईजुद्दीन' को गुजरात का गर्वनर तथा 'सैय्यद कलामुद्दीन अमीर किरमानी' को सेना में नियुक्त किया। शेख़ 'निज़ामुद्दीन चिराग-ए-दिल्ली' सुल्तान के विरोधियों में एक थे।
मृत्यु
अपने शासन काल के अन्तिम समय में जब सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ गुजरात में विद्रोह को कुचल कर तार्गी को समाप्त करने के लिए सिंध की ओर बढ़ा, तो मार्ग में थट्टा के निकट गोंडाल पहुँचकर वह गंभीर रूप से बीमार हो गया। यहाँ पर सुल्तान की 20 मार्च, 1351 को मृत्यु हो गई। उसके मरने के पर इतिहासकार बदायूंनी ने कहा कि, “सल्तान को उसकी प्रजा से और प्रजा को अपने सुल्तान से मुक्ति मिल गई।इसामी ने सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ को इस्लाम धर्म का विरोधी बताया है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने उसके बारे में कहा है कि, “मध्य युग में राजमुकुट धारण करने वालों में मुहम्मद तुग़लक़, निःसंदेह योग्य व्यक्ति था। मुस्लिम शासन की स्थापना के पश्चात् दिल्ली के सिंहासन को सुशोभित करने वाले शासकों में वह सर्वाधिक विद्धान एवं सुसंस्कृत शासक था।उसने अपने सिक्कों पर अल सुल्तान जिल्ली अल्लाह”, “सुल्तान ईश्वर की छाया”, सुल्तान ईश्वर का समर्थक है, आदि वाक्य को अंकित करवाया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ एक अच्छा कवि और संगीत प्रेमी भी था।

फ़िरोज शाह तुग़लक़ (1351 से 1388 ई.) फ़िरोज़शाह तुग़लक़ (1351-1388 ई.)मुहम्मद तुग़लक़ का चचेरा भाई एवं सिपहसलार 'रजब' का पुत्र था। उसकी माँ बीबी नैला’ राजपूत सरदार रणमल की पुत्री थी। मुहम्मद तुग़लक़ की मुत्यु के बाद 20 मार्च, 1351 को फ़िरोज़ तुग़लक़ का राज्याभिषक थट्टा के निकट हुआ। पुनः फ़िरोज़ का राज्याभिषेक दिल्ली में अगस्त, 1351 में हुआ। सुल्तान बनने के बाद फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने सभी क़र्ज़े माफ कर दिए, जिसमें 'सोंधर ऋण' भी शामिल था, जो मुहम्मद तुग़लक़ के समय किसानों को दिया गया था। उसने उपज के हिसाब से लगान निश्चित किया। सरकारी पदों को पुनः वंशानुगत कर दिया।

प्रारम्भिक असफलता

सुल्तान बनने के बाद फ़िरोज़ तुग़लक़ ने दिल्ली सल्तनत से अलग हुए अपने प्रदेशों को जीतने के अभियान के अन्तर्गत बंगाल एवं सिंध पर आक्रमण किया। बंगाल को जीतने के लिए सुल्तान ने 1353 ई. में आक्रमण किया। उस समय शम्सुद्दीन इलियास शाह वहाँ का शासक था। उसने इकदला के क़िले में शरण ले रखी थी, सुल्तान फ़िरोज़ अन्ततः क़िले पर अधिकार करने में असफल होकर 1355 ई. में वापस दिल्ली आ गया। पुनः बंगाल पर अधिकार करने के प्रयास के अन्तर्गत 1359 ई. में फ़िरोज़ तुग़लक़ ने वहाँ के तत्कालीन शासक शम्सुद्दीन के पुत्र सिकन्दर शाह पर आक्रमण किया, किन्तु असफल होकर एक बार फिर वापस आ गया।

आंशिक सफलताएँ

1360 ई. में सुल्तान फ़िरोज़ ने ‘जाजनगर’ (उड़ीसा) पर आक्रमण करके वहाँ के शासक भानुदेव तृतीय को परास्त कर पुरी के जगन्नाथ मंदिर पुरी को ध्वस्त किया। 1361 ई. में फ़िरोज़ ने नगरकोट पर आक्रमण किया। यहाँ के जामबाबनियों से लड़ती हुई सुल्तान की सेना लगभग 6 महीने तक रन के रेगिस्तान में फँसी रही, कालान्तर में जामबाबनियों ने सुल्तान की अधीनता को स्वीकार कर लिया और वार्षिक कर देने के लिए सहमत हो गये।
इन साधारण विजयों के अतिरिक्त फ़िरोज़ के नाम कोई बड़ी सफलता नहीं जुड़ी है। उसने दक्षिण में स्वतंत्र हुए राज्य विजयनगर, बहमनी एवं मदुरा को पुनः जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि, सुल्तान फ़िरोज़ तुग़लक़ ने अपने शासन काल में कोई भी सैनिक अभियान साम्राज्य विस्तार के लिए नहीं किया और जो भी अभियान उसने किया, वह मात्र साम्राज्य को बचाये रखने के लिए किया।

राजस्व व्यवस्था

राजस्व व्यवस्था के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने अपने शासन काल में 24 कष्टदायक करों को समाप्त कर दिया और केवल 4 कर ख़राज’ (लगान), ‘खुम्स’ (युद्ध में लूट का माल), ‘जज़िया’, एवं 'ज़कात' (इस्लाम धर्म के अनुसार अढ़ाई प्रतिशत का दान, जो उन लोगों को देना पड़्ता है, जो मालदार हों और उन लोगों को दिया जाता है, जो अपाहिज या असहाय और साधनहीन हों) को वसूल करने का आदेश दिया। उलेमाओं के आदेश पर सुल्तान ने एक नया सिंचाई (शर्ब) कर भी लगाया, जो उपज का 1/10 भाग वसूला जाता था। सम्भवतः फ़िरोज़ तुग़लक़ के शासन काल में लगान उपज का 1/5 से 1/3 भाग होता था। सुल्तान ने सिंचाई की सुविधा के लिए 5 बड़ी नहरें यमुना नदी से हिसार तक 150 मील लम्बी सतलुज नदी से घग्घर नदी तक 96 मील लम्बी सिरमौर की पहाड़ी से लेकर हांसी तक, घग्घर से फ़िरोज़ाबाद तक एवं यमुना से फ़िरोज़ाबाद तक का निर्माण करवाया। उसने फलो के लगभग 1200 बाग़ लगवाये। आन्तरिक व्यापार को बढ़ाने के लिए अनेक करों को समाप्त कर दिया।

नगरों की स्थापना

नगर एवं सार्वजनिक निर्माण कार्यों के अन्तर्गत सुल्तान ने लगभग 300 नये नगरों की स्थापना की। इनमें से हिसार, फ़िरोज़ाबाद (दिल्ली), फ़तेहाबादजौनपुरफ़िरोज़पुर आदि प्रमुख थे। इन नगरों में यमुना नदी के किनारे बसाया गया फ़िरोज़ाबाद सुल्तान को सर्वाधिक प्रिय था। जौनपुर नगर की नींव फ़िरोज़ ने अपने चचेरे भाई 'फ़खरुद्दीन जौना' (मुहम्मद बिन तुग़लक़) की स्मृति में डाली थी। उसके शासन काल मे ख़िज्राबाद एवं मेरठ से अशोक के दो स्तम्भलेखों को लाकर दिल्ली में स्थापित किया गया। अपने कल्याणकारी कार्यों के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने एक रोज़गार का दफ़्तर एवं मुस्लिम अनाथ स्त्रियों, विधवाओं एवं लड़कियों की सहायता हेतु एक नये 'दीवान-ए-ख़ैरात' नामक विभाग की स्थापना की। 'दारुल-शफ़ा' (शफ़ा=जीवन का अंतिम किनारा, जीवन का अंतिम भाग) नामक एक राजकीय अस्पताल का निर्माण करवाया, जिसमें ग़रीबों का मुफ़्त इलाज होता था।

फ़िरोज़ की नीति एवं परिणाम

फ़िरोज़ के शासनकाल में दासों की संख्या लगभग 1,80,000 पहुँच गई थी। इनकी देखभाल हेतु सुल्तान दे 'दीवान-ए-बंदग़ान' की स्थापना की। कुछ दास प्रांतों में भेजे गये तथा शेष को केन्द्र में रखा गया। दासों को नकद वेतन या भूखण्ड दिए गये। दासों को दस्तकारी का प्रशिक्षण भी दिया गया। सैन्य व्यवस्था के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने सैनिकों पुनः जागीर के रूप में वेतन देना प्रारम्भ कर दिया। उसने सैन्य पदों को वंशानुगत बना दिया, इसमें सैनिकों की योग्यता की जाँच पर असर पड़ा। खुम्स का 4/5 भाग फिर से सैनिकों को देने के आदेश दिए गये। कुछ समय बाद उसका भयानक परिणम सामने आया। फ़िरोज़ तुग़लक़ को कुछ इतिहासकार धर्मान्ध एवं असहिष्णु शासक मानते हैं। सम्भवतः दिल्ली सल्तनत का वह प्रथम सुल्तान था, जिसने इस्लामी नियमों का कड़ाई से पालन करके उलेमा वर्ग को प्रशासनिक कार्यों में महत्त्व दिया। न्याय व्यवस्था पर पुनः धर्मगुरुओं का प्रभाव स्थापित हो गया। मुक्ती क़ानूनों की व्याख्या करते थे। मुसलमान अपराधियों को मृत्यु दण्ड देना बन्द कर दिया गया। फ़िरोज़ कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने हिन्दू जनता को जिम्मी’ कहा और हिन्दू ब्राह्मणों पर जज़िया कर लगाया। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने कहा है कि, 'फ़िरोज़ इस युग का सबसे धर्मान्ध एवं इस क्षेत्र में सिंकदर लोदी एवं औरंगज़ेब का अप्रगामी था।’ दिल्ली सल्तनत में प्रथम बार फ़िरोज़ तुग़लक़ ने ब्राह्मणों से भी जज़िया लिया।

संरक्षण एवं रचनाएँ

शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में सुल्तान फ़िरोज़ ने अनेक मक़बरों एवं मदरसों (लगभग 13) की स्थापना करवायी। उसने 'जियाउद्दीन बरनी' एवं 'शम्स-ए-सिराज अफीफ' को अपना संरक्षण प्रदान किया। बरनी ने 'फ़तवा-ए-जहाँदारी' एवं 'तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही' की रचना की। फ़िरोज़ ने अपनी आत्मकथा फुतूहात-ए-फ़िरोज़शाहीकी रचना की जबकि सीरत-ए-फ़िरोज़शहीकी रचना किसी अज्ञात विद्धान द्वारा की गई है। फ़िरोज़ ने ज्वालामुखी मंदिर के पुस्तकालय से लूटे गये 1300 ग्रंथों में से कुछ का एजुद्दीन द्वारा दलायते-फ़िरोज़शाहीनाम से अनुवाद करवाया। 'वलायले-फ़िरोज़शाही' आयुर्वेद से संबंधित ग्रन्थ था। उसने जल घड़ी का अविष्कार किया। अपने भाई जौना ख़ाँ (मुहम्मद तुग़लक़) की स्मृति में जौनपुर नामक शहर बसाया।

घूसखोरी को बढ़ावा

सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने प्रशासन में स्वयं घूसखोरी को प्रोत्साहित किया था। अफीफ के अनुसार-सुल्तान ने एक घुड़सवार को अपने ख़ज़ाने से एक टका दिया, ताकि वह रिश्वत देकर अर्ज में अपने घोड़े को पास करवा सकें। फ़िरोज़ तुग़लक़ सल्तनत कालीन पहला शासक था, जिसने राज्य की आदमनी का ब्यौरा तैयार करवाया। ख्वाजा हिसामुद्दीन के एक अनुमान के अनुसार- फ़िरोज़ तुग़लक़ के शासन काल की वार्षिक आय 6 करोड़ 75 लाख टका थी। उसके समय में इंजारेदारी को पुनः बढ़ावा दिया गया।

सिक्कों का प्रचलन

फ़िरोज़ तुग़लक़ ने मुद्रा व्यवस्था के अन्तर्गत बड़ी संख्या में तांबा एवं चाँदी के मिश्रण से निर्मित सिक्के जारी करवाये, जिसे सम्भवतः अद्धाएवं मिस्रकहा जाता था। फ़िरोज़ तुग़लक़ ने शंशगानी’ (6 जीतल का) का नया सिक्का चलवाया था। उसने सिक्कों पर अपने नाम के साथ अपने पुत्र अथवा उत्तराधिकारी 'फ़तह ख़ाँ' का नाम अंकित करवाया। फ़िरोज़ ने अपने को ख़लीफ़ा का नाइब पुकारा तथा सिक्कों पर ख़लीफ़ा का नाम अंकित करवाया। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ का शासन कल्याणकारी निरंकुशता पर आधारित था। वह प्रथम सुल्तान था, जिसनें विजयों तथा युद्धों की तुलना में अपनी प्रजा की भौतिक उन्नति को श्रेष्ठ स्थान दिया, शासक के कर्तव्यों का विस्तृत किया तथा इस्लाम धर्म को राज्य शासन का आधार बनाया। हेनरी इलिएट और एलफिन्सटन ने फ़िरोज़ तुग़लक़ को सल्तनत युग का अकबर” कहा है। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ की सफलताओं का श्रेय उसके प्रधानमंत्री 'ख़ान-ए-जहाँ मकबूल' का दिया जाता है।

अद्धा भारतीय इतिहास के सल्तनत काल में प्रचलित ताँबे का सिक्का था, जो सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक़ द्वारा प्रयोग में लाया गया था।
·         फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने मुद्रा व्यवस्था के अन्तर्गत बड़ी संख्या में ताँबे एवं चाँदी के मिश्रण से निर्मित सिक्के जारी करवाये, जिसे सम्भवतः अद्धाएवं मिस्रकहा जाता था।
·         उसने शंशगानी’ (6 जीतल का) का नया सिक्का भी चलवाया था।
·         सिक्कों पर अपने नाम के साथ फ़िरोज़शाह ने अपने पुत्र अथवा उत्तराधिकारी 'फ़तह ख़ाँ' का नाम अंकित करवाया।
·         फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने अपने को ख़लीफ़ा का नाइब पुकारा तथा सिक्कों पर ख़लीफ़ा का नाम अंकित किया
शंशगानी सल्तनत काल में फ़िरोज़शाह तुग़लक़ द्वारा जारी किया गया सिक्का था।
·         फ़िरोज़शाह ने मुद्रा व्यवस्था के अन्तर्गत बड़ी संख्या में ताँबे एवं चाँदी के मिश्रण से निर्मित सिक्के जारी करवाये, जिसे सम्भवतः अद्धा’ एवं मिस्रकहा जाता था।
·         उसने शंशगानीनाम से एक नया सिक्का भी चलाया, जो जीतल के समतुल्य था।
·         सिक्कों पर अपने नाम के साथ फ़िरोज़शाह ने अपने पुत्र अथवा उत्तराधिकारी फ़तह ख़ाँ का नाम अंकित करवाया।
·         फ़िरोज़शाह ने अपने को ख़लीफ़ा का नाइब पुकारा तथा सिक्कों पर ख़लीफ़ा का नाम अंकित करवाया।

मृत्यु

सुल्तान फ़िरोज़ तुग़लक़ की मृत्यु सितम्बर, 1398 ई. में हुई।
फ़तेह ख़ाँ सुल्तान फ़िरोजशाह तुग़लक़ (1351-1388 ई.) का सबसे बड़ा पुत्र था।
·         फ़िरोजशाह तुग़लक़ की मृत्यु से पूर्व ही फ़तेह ख़ाँ की मृत्यु हो गई थी।
·         उसका बड़ा लड़का ग़यासुद्दीन तुग़लक़ द्वितीय अपने बाबा सुल्तान फ़िरोजशाह तुग़लक़ की मृत्यु के पश्चात् दिल्ली की गद्दी पर बैठा।
·         गद्दी पर बैठने के कुछ ही महीनों उसे अपदस्थ करके उसकी हत्या कर दी गई।
·         फ़तेहख़ाँ का दूसरा लड़का नसरत शाह तुग़लक़तुग़लक़ वंश का उपांतिम सुल्तान था।
·         नसरत शाह तुग़लक़ ने 1395 से 1399 ई. तक शासन किया।

·         ग़यासुद्दीन तुग़लक़ द्वितीय (तुग़लकशाह 1388 से 1389 ई.) ग़यासुद्दीन तुग़लक़ द्वितीय को 1389 ई. में फ़िरोज शाह तुग़लक़ की मृत्यु के बाद दिल्ली के सिंहासन पर बैठाया गया।
·         ग़यासुद्दीन तुग़लक़ द्वितीय, फ़िरोज शाह तुग़लक़ के पुत्र फ़तेह ख़ाँ का पुत्र था।
·         ग़यासुद्दीन द्वितीय को तुग़लक़शाह के नाम से भी जाना जाता है।
·         इसकी विलासी प्रवृत्ति के कारण असंतुष्ट सरदारों ने उसकी हत्या कर दी।
·         बाद में फ़िरोज शाह तुग़लक़ के पौत्र जफ़र खाँ के पुत्र अबूबक्र को फ़रवरी, 1389 में दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बनाया।

·         अबूबक्र (फ़रवरी 1389 से अगस्त, 1390 ई.) अबूबक्र को फ़रवरी, 1389 ई. में दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बनाया गया था।
·         यह फ़िरोज शाह तुग़लक़ के पौत्र जफ़र खाँ का पुत्र था।
·         अप्रैल, 1389 में शाहजादा मुहम्मद ने अपने को समानामें सुल्तान घोषित कर दिल्ली पर आक्रमण कर दिया।
·         वह अबूबक्र को अपदस्थ कर अगस्त, 1390 ई. में 'नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह' की उपाधि के साथ दिल्ली का सुल्तान बना।


·         नासिरुद्दीन महमूदशाह (1390 से 1394 ई.) नासिरुद्दीन महमूदशाह (1390-1394 ई.) को अधिक शराब पीने की आदत थी।
·         शराब पीने की इसी आदत के कारण जनवरी, 1394 में उसकी मृत्यु हो गई।
·         उसके मरने के बाद उसके पुत्र 'हुमायूँ' को अलाउद्दीन सिकन्दर शाहकी उपाधि से दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया।
·         परन्तु 6 सप्ताह में ही हुमायूँ की भी मृत्यु हो गई।
·         इसके बाद अमीरों ने उसके अनुज महमूद तुग़लक़ को गद्दी पर बैठाया।


नसरत शाह तुग़लक़ (1395-1398 ई.) नसरत शाह तुग़लक़ वंश का आठवाँ सुल्तान था। वह सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ का पौत्र था। नसरत शाह की शासन अवधि अत्यंत कम रही थी।
·         जनवरी, 1395 ई. में नसरत शाह को गद्दी पर बैठाया गया, किन्तु तीन या चार ही वर्ष नाम मात्र का शासक रहने के उपरान्त उसकी हत्या 1398 ई. कर दी गई।
·         अपने शासन काल में नसरत शाह फ़िरोज़ाबाद में दरबार लगाता था, जबकि उसका प्रतिद्वन्द्वी चचेरा भाई महमूद तुग़लक पुरानी दिल्ली में शासन करता था।
·         नसरत शाह की मृत्यु से महमूद तुग़लक, तुग़लक़ वंश का एकमात्र निर्विरोध प्रतिनिधि रह गया था।


महमूद तुग़लक़ (1399 से 1412 ई.) महमूद तुग़लक़ (1399-1413 ई.) दिल्ली के तुग़लक़ वंश का अंतिम सुल्तान था। उसके राज्यकाल में अनवरत संघर्ष चलते रहे और दुरावस्था अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी। महमूद तुग़लक़ के समय तक दिल्ली सल्तनतसे दक्षिण भारतबंगालख़ानदेशगुजरातमालवाराजस्थानबुन्देलखण्ड आदि प्रान्त स्वतन्त्र गये थे।

शासन

महमूद तुग़लक़ के समय में मलिक सरवर नाम के एक हिजड़े ने सुल्तान से मलिक-उस-र्शक’ (पूर्वाधिपति) की उपाधि ग्रहण कर जौनपुर में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। महमूद तुग़लक़ का शासन इस समय दिल्ली से पालम (निकटवर्ती कुछ ज़िलों) तक ही सीमित रह गया था। इस समय नसरत शाह तुग़लक़ एवं महमूद तुग़लक़ ने एक साथ शासन किया। महमूद तुग़लक़ ने दिल्ली से तथा नुसरत शाह ने फ़िरोजाबाद से अपने शासन का संचालन किया। महमूद तुग़लक़ के समय में तैमूर लंग ने 1398 ई. में दिल्ली पर आक्रमण किया। एक पैर से लंगड़ा होने के कारण उसका नाम तैमूर लंगपड़ गया था। तैमूर के आक्रमण से डरकर दोनों सुल्तान राजधानी से भाग गये। 15 दिन तक दिल्ली में रहने के पश्चात् तैमूर वापस चला गया और ख़िज़्र ख़ाँ को अपने विजित प्रदेशों का राज्यपाल नियुक्त किया।

तैमूर आक्रमण के बाद सिमटा दिल्ली सल्तनत का विस्तार

एक मान्यता के अनुसार तैमूर आक्रमण के बाद दिल्ली सल्तनत का विस्तार सिमट कर पालम तक ही रह गया था। तैमूर के वापस जाने के पश्चात् महमूद तुग़लक़ ने अपने वजीर मल्लू इमबार की सहायता से पुन: दिल्ली सिंहासन पर अधिकार कर लिया, पर कालान्तर में मल्लू इक़बाल मुल्तान के सूबेदार ख़िज़्र ख़ाँ से युद्ध करते हुए मारा गया। मल्लू इक़बाल के मरने के बाद सुल्तान ने दिल्ली की सत्ता एक अफ़ग़ान सरदार दौलत ख़ाँ लोदी को सौंप दी।

मृत्यु

1412 ई. में महमूद तुग़लक़ की मृत्यु हो गई। 1413 ई. में दिल्ली सिंहासन के लिए दौलत ख़ाँ लोदी एवं ख़िज़्र ख़ाँ ने दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर एक नये राजवंश सैय्यद वंश’ की स्थापना की।


ज़ियाउद्दीन बरनी (जन्म - 1285; मृत्यु - 1357) भारत का इतिहास लिखने वाले पहले ज्ञात मुसलमान, जो दिल्ली में सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ के नदीम (प्रिय साथी) बनकर 17 वर्षों तक रहे।

जीवन परिचय

ज़ियाउद्दीन बरनी का जन्म 1285 ई. में सैय्यद परिवार मे हुआ था। ज़ियाउद्दीन बरन (आधुनिक बुलन्दशहर) के रहने वाले थे, इसीलिए अपने नाम के साथ बरनी लिखते थे। इनका बचपन अपने चाचा 'अला-उल-मुल्क' के साथ व्यतीत हुआ, जो अलाउद्दीन ख़िलजी के सलाहकार थे। संभवतः बरनी ने 46 विद्धानों से शिक्षा ग्रहण की थी। ज़ियाउद्दीन बरनी को मुहम्मद तुग़लक़ के शासन काल में 17 वर्ष तक संरक्षण में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ के शासन काल में उन्हें कुछ समय तक जेल में भी रहना पड़ा।

अंतिम समय

सम्भवतः इनके जीवन का अंतिम पड़ाव बड़ा ही कष्टप्रद था। उनकी सम्पत्ति को जब्त कर उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था। अपने अंतिम समय में कष्टप्रद जीवन से मुक्ति प्राप्त कर पुनः मान्यता प्राप्त करने के लिए बरनी ने सुल्तान फ़िरोज़ की प्रशंसा में 'तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही' एवं 'फ़तवा-ए-जहाँदारी' की रचना की थी। बरनी ने अपनी रचना 'अमीर' एवं 'कुलीन वर्ग' के लोगों को समर्पित की। ज़ियाउद्दीन बरनी ने चार विद्वानों ताजुल मासिरके लेखक ख्वाजा सद्र निजामी, ‘जवामे उल हिकायतके लेखक मौलादा सद्रद्दीन औफी, ‘तबकाते नासिरीके लेखक मिनहाजुद्दीन सिराज एवं फाथनामाके लेखक कबीरुद्दीन इराकी को सच्चा इतिहासकार माना है।

रचनाएँ

अनुश्रुत प्रमाण और दरबार के अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर बरनी ने 1357 में तारीख़-ए-फ़िरोज़ शाही (फ़िरोज़ शाह का इतिहास) लिखा, एक उपदेशात्मक पुस्तक, जिसमें भारतीय सुल्तान के इस्लाम के प्रति कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया है। सूफ़ी रहस्यवाद से प्रभावित अपनी पुस्तक, फ़तवा-ए जहांदारी (संसारिक सरकार के नियम), में बरनी ने इतिहास के धार्मिक दर्शन का प्रतिपादन किया, जो महान् व्यक्तियों के जीवन की घटनाओं को दौवी विधान की अभिव्यक्ति मानता है। बरनी के अनुसारग़यासुद्दीन बलबन (शासनकाल, 1266-87) से लेकर फ़िरोज़शाह तुग़लक़ (शासनकाल,1351-88) ने अच्छे इस्लामी शासक के लिए उनके द्वारा दिए गए दिशा-निर्देशों का पालन किया और फले-फूले, जबकि उन नियमों का उल्लंघन करने वाले असफल रहे।



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