राजपूत काल
राजपूतों के इतिहास के बारे में अभिलेखों एवं समकालीन तथा बाद के कुछ साहित्यों से
जानकारी मिलती है। अभिलेखों में ग्वालियर एवं ऐहोल अभिलेख तथा
साहित्य में नयचन्द्रसूरि का 'हम्मीर महाकाव्य', पद्मगुप्त का 'नवसाहसांकचरित',
हलायुध की 'पिंगलसूत्रवृति', 'कुमारपाल चरित', 'वर्ण रत्नाकार' एवं पृथ्वीराजरासो आदि
प्रमुख है।
राजपूत का अर्थ
राजपूत शब्द संस्कृत के 'राजपूत्र'
का अपभ्रंश है। सामान्यत: इसका अर्थ होता है, 'राजा का पुत्र' या शाही परिवार के किसी व्यक्ति का 'राजपूत्र'। सम्भवतः प्राचीन काल में इस शब्द का
प्रयोग किसी जाति के रूप में न करके राजपरिवार के सदस्यों के लिए किया जाता था,
पर हर्ष की मृत्यु के बाद राजपूत या राजपूत्र शब्द का प्रयोग जाति
के रूप में होने लगा।
राजपूतों की उत्पत्ति
इन राजपूत वंशों की उत्पत्ति के विषय में विद्धानों के दो मत प्रचलित हैं- एक का मानना है कि राजपूतों की उत्पत्ति
विदेशी है, जबकि दूसरे का मानना है कि, राजपूतों की उत्पत्ति भारतीय है। हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरान्त जिन महान् शक्तियों का उदय हुआ था, उनमें अधिकांश राजपूत वर्ग के अन्तर्गत ही आते थे।ऐजेन्ट टोड ने 12वीं
शताब्दी के उत्तर भारत के
इतिहास को 'राजपूत काल' भी कहा है। कुछ
इतिहासकारों ने प्राचीन काल एवं मध्य काल को 'संधि काल'
भी कहा है। इस काल के महत्त्वपूर्ण राजपूत वंशों में राष्ट्रकूट वंश, चालुक्य वंश, चौहान वंश, चंदेल वंश, परमार वंश एवं गहड़वाल
वंश आदि आते हैं।
साम्राज्य विस्तार
बंगाल पर पहले पाल वंश का अधिकार था, बाद
में सेन वंश का अधिकार हुआ।
उत्तरकालीन पाल शासकों में सबसे महत्त्वपूर्ण 'महीपाल'
था। जिसने उत्तरी भारत में महमूद ग़ज़नवी के
आक्रमण के समय क़रीब पचास वर्षों तक राज किया। इस काल में उसने अपने राज्य का विस्तार
बंगाल के अलावा बिहार में भी
किया। उसने कई नगरों का निर्माण किया तथा कई पुराने धार्मिक भवनों की मरम्मत करवाई,
जिनमें से कुछ नालन्दा तथा बनारसमें थे। उसकी मृत्यु के बाद कन्नौज के गहड़वालों ने बिहार से धीरे-धीरे
पालों के अधिकार को समाप्त कर दिया और बनारस को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। इसी
दौरान चौहान अपने साम्राज्य का विस्तार अजमेर से लेकर गुजरात की
ओर कर रहे थे। वे दिल्ली और पंजाब की ओर भी बढ़ रहे थे। इस प्रयास में
उन्हें गहड़वालों का सामना करना पड़ा। इन्हीं आपसी संघर्षों के कारण राजपूत पंजाब
से ग़ज़नवियों को बाहर निकालने में असफल रहे। उनकी कमज़ोरी का लाभ उठाकर
ग़ज़नवियों ने उज्जैन पर भी
आक्रमण किया।
इतिहासकारों के मत
डॉ. गौरी शंकर ओझा राजपूतों की उत्पत्ति प्राचीन क्षत्रिय जाति से मानते हैं। राजतरंगिणी में 36 क्षत्रिय
कुलों का वर्णन मिलता है। कुछ विद्वान् राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुंड से उत्पन्न
बताते हैं। यह अनुश्रति पृथ्वीराजरासो (चन्द्ररबरदाई कृत) के वर्णन पर आधारित है। पृथ्वीराजरासो के अतिरिक्त 'नवसाहसांक' चरित, 'हम्मीररासो',
'वंश भास्कर' एवं 'सिसाणा'
अभिलेख में भी इस अनुश्रति का वर्णन मिलता है। कथा का संक्षिप्त
रूप् इस प्रकार है- 'जब पृथ्वी दैत्यों के आतंक से आक्रांत
हो गयी, तब महर्षि वशिष्ठ ने दैत्यों के विनाश के लिए आबू पर्वत पर एक अग्निकुण्ड का निर्माण कर यज्ञ किया। इस यज्ञ की अग्नि से चार योद्धाओं- प्रतिहार, परमार, चौहान एवं चालुक्य की
उत्पत्ति हुई। भारत में अन्य
राजपूत वंश इन्हीं की संतान हैं। 'दशरथ शर्मा', 'डॉ. गौरी शंकर ओझा' एवं 'सी.वी.
वैद्य' इस कथा को मात्र काल्पनिक मानते हैं।
विदेशी जाति का मत
विदेशी उत्पत्ति के समर्थकों में महत्त्वपूर्ण स्थान 'कर्नल जेम्स टॉड' का है। वे राजपूतों को विदेशी सीथियन जाति की सन्तान मानते हैं। तर्क के
समर्थन में टॉड ने दोनों जातियों (राजपूत एवं सीथियन)
की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति की समानता की बात कही है। उनके अनुसार दोनों में
रहन-सहन, वेश-भूषा की समानता, मांसाहार
का प्रचलन, रथ के द्वारा युद्ध को संचालित करना, याज्ञिक अनुष्ठानों का प्रचलन, अस्त्र-शस्त्र की
पूजा का प्रचलन आदि से यह प्रतीत होता है कि राजपूत सीथियन के ही वंशज थे।
विलियम क्रुक ने 'कर्नल जेम्स टॉड' के मत का समर्थन किया है। 'वी.ए. स्मिथ' के अनुसार शक तथा कुषाण जैसी
विदेशी जातियां भारत आकर
यहां के समाज में पूर्णतः घुल-मिल गयीं। इन देशी एवं विदेशी जातियों के मिश्रण से
ही राजपूतों की उत्पत्ति हुई।
भारतीय इतिहासकारों में 'ईश्वरी प्रसाद' एवं 'डी.आर.
भंडारकर' ने भारतीय समाज में विदेशी मूल के लोगों के
सम्मिलित होने को ही राजपूतों की उत्पत्ति का कारण माना है। भण्डारकर तथा कनिंघम के अनुसार राजपूत विदेशी थे। इन तमाम
विद्वानों के तर्को के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि राजपूत क्षत्रियों
के वंशज थे, फिर भी उनमें विदेशी रक्त का मिश्रण अवश्य था।
अतः वे न तो पूर्णतः विदेशी थे, न तो पूर्णत भारतीय।
राजपूत समाज का मुख्य आधार
राजपूत राज्यों में भी सामंतवादी व्यवस्था का प्रभाव था। राजपूत समाज का मुख्य आधार वंश था। हर वंश अपने को एक योद्धा का वंशज बताता था,
जो वास्तविक भी हो सकता था और काल्पनिक भी। अलग-अलग वंश अलग-अलग
क्षेत्रों पर शासन करते थे। इनके राज्यों के अंतर्गत 12, 24, 48 या 84 ग्राम आते थे। राजा इन ग्रामों की भूमि अपने
सरदारों में बाँट देता था, जो फिर इसी तरह अपने हिस्से की
भूमि को राजपूत योद्धाओं को, अपने परिवारों और घोड़ों के
रख-रखाव के लिए बाँट देते थे। राजपूतों की प्रमुख विशेषता अपनी भूमि, परिवार और अपने मान-सम्मान के साथ लगाव था। हर राजपूत राज्य का राजा
अधिकतर अपने भाइयों की सहायता से शासन करता था। यद्यपि सारी भूमि पर राजा का ही
अधिकार था। भूमि पर नियंत्रण को सम्मान की बात समझने के कारण विद्रोह अथवा
उत्तराधिकारी के न होने जैसी विशेष स्थितियों में ही राजा ज़मीन वापस ले लेता था।
अनुशासनहीनता
राजपूतों की समाज व्यवस्था के लाभ भी थे और नुक़सान भी। लाभ तो यह था कि राजपूतों में भाईचारे और समानता की भावना
व्याप्त थी, पर दूसरी ओर इसी भावना के कारण उनमें अनुशासन
लाना कठिन था। उनकी दूसरी कमज़ोरी आपसी संघर्ष था, जो
पुश्तों तक चलता था। पर उनकी मूल कमज़ोरी यह थी कि, वे अपने
ही अलग गुट बनाते और दूसरों से श्रेष्ठ होने का दावा करते थे। वे भाईचारे की भावना
में ग़ैर राजपूतों को शामिल नहीं करते थे। इससे शासन करने वाले राजपूतों और आम
जनता, जो अधिकतर राजपूत नहीं थी, के
बीच अन्तर बढ़ता गया। आज भी राजपूत राजस्थान की आबादी के कुल छ्ह प्रतिशत के लगभग हैं। ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी
में भी राजपूतों तथा उनके द्वारा शासित प्रदेशों की पूरी आबादी के बीच यही अनुपात
रहा होगा।
धार्मिक स्वतंत्रता
उस काल में अधिकतर राजपूत राजा हिन्दू थे,
यद्यपि कुछ जैन धर्म के भी समर्थक थे। वे ब्राह्मण और मन्दिरों को बड़ी मात्रा में धन और भूमि का दान करते थे। वे वर्ण
व्यवस्था तथा ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के पक्ष में थे। इसलिए कुछ राजपूती
राज्यों में तो भारत की
स्वतंत्रता और भारतीय संघ में उनके विलय तक ब्राह्मणों से अपेक्षाकृत कम लगान वसूल
किया जाता था। इन विशेषाधिकारों के बदले ब्राह्मण राजपूतों को प्राचीन सूर्य और चन्द्रवंशी क्षत्रियों के वंशज मानने को तैयार थे।
इतिहास
राजपूतों का उदभव काल उत्तर और पश्चिमोत्तर भारत में पाँचवीं शताब्दी के मध्य से 'श्वेत हूणों (हेफ़्थलाइटों)' और सम्बद्ध जनजातियों के प्रभाव के
कारण भारतीय समाज के विघटन से जुड़ा प्रतीत होता है। गुप्त साम्राज्य के विघटन
(छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में) के बाद आक्रमणकारी सम्भवत: तत्कालीन समाज में
घुलमिल गए, जिसका परिणाम पश्चिमोत्तर भारतीय समाज का वर्तमान
स्वरूप है। सातवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु से लेकर 12वीं शताब्दी के अन्त में
मुसलमानों की भारत विजय तक
के लगभग 500 वर्षों के काल में भारतवर्ष के इतिहास में
राजपूतों ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यह शब्द राजपूत्र का अपभ्रंश है।
जनजातीय प्रमुखों और अभिजातों को हिन्दुओं के दूसरे वर्ण में, क्षत्रिय के रूप में स्वीकार किया गया, जबकि उनके
अनुयायी, जैसे जाट और अहीर जनजातियों
के आधार पर कृषक वर्ग में शामिल हो गए। कुछ आक्रमणकारियों के पुजारी ब्राह्मण
(सर्वोत्तम जाति) बन गए। कुछ देशी जनजातियों, जैसे राजस्थान
के राठौर और मध्य भारत के चन्देल और बुन्देलों ने राजपूतों का दर्जा प्राप्त कर
लिया।
राजपूतों
की शाखाएँ
पश्चात्यकालीन ग्रन्थों में
राजपूतों की 36
शाखाओं का उल्लेख मिलता है। राजपूत सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी तथा अजमेर के निकट अग्नि-कुण्ड से
उत्पत्ति का दावा करने वालों की श्रेणी में शामिल हैं। राजपूतों की मांस (गौमांस
छोड़कर) खाने की आदत और अन्य गुण उनके विदेशी और आदिवासी मूल की ओर संकेत करते
हैं। राजपूतों में परिहार, चौहान
(चाहमान), सोलंकी (चालुक्य), परमार, तोमर, कलचुरि, गहड़वाल
(गाहड़वाल, गहरवार या राठौर), राष्ट्रकूट
और गुहिलोत (सिसोदिया) सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। वीरता,
उदारता, स्वातंत्रय प्रेम, देशभक्ति जैसे सदगुणों के साथ उनमें मिथ्या कुलाभिमान तथा एकताबद्ध होकर
कार्य करने की क्षमता के अभाव के दुर्गुण भी थे। मुसलमानों के आक्रमण के समय
राजपूत हिन्दू धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के रक्षक बनकर
सामने आते रहे।
जनश्रुतियाँ
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में किंचित विवाद है और यह इस कारण और भी जटिल हो गया है कि
प्रारम्भ में राजन्य वर्ग और युद्धोपजीवी लोगों को क्षत्रिय कहा जाता था और राजपूत
(राजपूत्र) शब्द का प्रयोग सातवीं शताब्दी के उपरान्त ही प्रचलित हुआ। जनश्रुतियों
के अनुसार राजपूत उन सूर्यवंशी एवं चन्द्रवंशी (सोमवंशी) क्षत्रियों के वंशज हैं,
जिनकी यशोगाथा रामायण और महाभारत में
वर्णित है। किन्तु अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुहिलोत या सिसोदिया शाखा,
जिसमें मेवाड़ के स्वनामधन्य राणा हुए और जो अपने को रामचन्द्र जी
का वंशज मानती हैं, वस्तुत: एक ब्राह्मण द्वारा प्रवर्तित
हुई थी। इसी प्रकार गुर्जर-प्रतीहार शाखा भी, जो अपने को
रामचन्द्र जी के लघु भ्राता लक्ष्मण का वंशज मानती है, कुछ अभिलेखों के अनुसार गुर्जरों
से आरम्भ हुई थी, जिन्हें विदेशी माना जाता है और हूणों के साथ अथवा उनके कुछ ही बाद भारत में आकर गुजरात में बस गये थे। आभिलेखिक प्रमाणों से शकों और भारतीय राज्यवंशों में
वैवाहिक सम्बन्ध सिद्ध होते हैं।
विभिन्न
नस्ल
शकों के उपरान्त जितनी भी विदेशी जातियाँ पाँचवीं और छठी शताब्दियों में भारत आईं, उनकों हिन्दुओं
ने नष्ट न करके शकों और कुषाणों की भाँति अपने में आत्मसात् कर लिया। तत्कालीन हिन्दू समाज में उनकी स्थिति उनके पेशे के
अनुसार निर्धारित हुई और उनमें से शस्त्रोपजीवी तथा शासक वर्ग क्षत्रिय माना जाकर
राजपूत कहलाने लगा। इसी प्रकार भारत की मूल निवासी जातियों में 'गोंड, भर, कोल' आदि के कुछ परिवारों ने अपने बाहुबल से छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए।
इनकी शक्ति और सत्ता में वृद्धि होने से तथा क्षत्रियोचित्त शासनकर्मी होने के
फलस्वरूप इनकी भी गणना क्षत्रियों में होने लगी और वे भी राजपूत कहलाये। चंदेलों के गोंड राज परिवारों से, गहड़वालों के भरों से और राठौरों के गहड़वालों से घनिष्ठ वैवाहिक सम्बन्ध
थे। सत्य यह है कि हिन्दू समाज में शताब्दियों तक जाति का निर्धारण जन्म और पेशे
दोनों से होता रहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार क्षत्रियों अथवा राजपूतों का वर्ग
वस्तुत: देश का शस्त्रोपजीवी तथा शासक वर्ग था, जो हिन्दू
धर्म और कर्मकाण्ड में आस्था रखता था। इसी कारण राजपूतों के अंतर्गत विभिन्न
नस्लों के लोग मिलते हैं।
मुग़लों
की अधीनता
नौवीं और दसवीं शताब्दी में राजपूत राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। 800 ई. से
राजपूत वंशों का उत्तर भारत में
प्रभुत्व था और बहुत से छोटे-छोटे राजपूत राज्य हिन्दू भारत पर मुस्लिम आधिपत्य के
रास्तें में प्रमुख बाधा थे। पूर्वी पंजाब और गंगा घाटी में
मुस्लिम विजय के बाद भी राजपूतों ने राजस्थान के दुर्गों और मध्य भारत के वन्य प्रदेशों में अपनी स्वतंत्रता क़ायम रखी। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन
ख़िलजी (शासनकाल,1296-1316) ने पूर्वी
राजस्थान में चित्तौड़गढ़ और रणथम्भौर के दो महान् राजपूत दुर्गों को जीत लिया, लेकिन वह
अपने नियंत्रण में नहीं रख सके। मेवाड़ के राजपूत राज्य ने राणा साँगा के नेतृत्व में अपनी प्रभुत्ता बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें मुग़ल बादशाह बाबर ने खानवा (1527) में
पराजित कर दिया। बाबर के पोते अकबर ने चित्तौड़गढ़ और रणथम्भौर के क़िले जीत लिए (1568-69) और मेवाड़ को छोड़कर सभी राजस्थानी राजकुमारों के साथ एक समझौता किया।
मुग़ल साम्राज्य की प्रभुता स्वीकार कर, ये राजकुमार दरबार
तथा बादशाह की विशेष परिषद में नियुक्त कर लिए गए और उन्हें प्रान्तीय शासकों के
पद व सेना की कमानें सौंपी गईं। हालाँकि बादशाह औरंगज़ेब (शासनकाल, 1658-1707) की असहिष्णुता से इस व्यवस्था
को नुक़सान पहुँचा, लेकिन इसके बावजूद 18वीं सदी में मुग़ल
साम्राज्य का पतन होने तक यह क़ायम रही।
शक्ति
का नष्ट होना
राजपूतों ने मुसलमान आक्रमाणियों से शताब्दियों तक वीरतापूर्वक युद्ध किया। यद्यपि उनमें परस्पर एकता के अभाव
के कारण भारत पर अन्तत:
मुसलमानों का राज्य स्थापित हो गया, तथापि उनके तीव्र विरोध
के फलस्वरूप इस कार्य में मुसलमानों को बहुत समय लगा। दीर्घकाल तक मुसलमानों का
विरोध और उनसे युद्ध करते रहने के कारण राजपूत शिथिल हो गए और उनकी देशभक्ति,
वीरता तथा आत्म-बलिदान की भावनाएँ कुंठित हो गईं। यही कारण है कि
भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के विरुद्ध किसी भी महत्त्वपूर्ण राजपूत
राज्य अथवा शासक ने कोई युद्ध नहीं किया। इसके विपरीत 1817 और
1820 ई. के बीच सभी राजपूत राजाओं ने स्वेच्छा से अंग्रेज़ों
की सर्वोपरि सत्ता स्वीकार करके अपनी तथा अपने राज्य की सुरक्षा का भार उन पर छोड़
दिया। स्वतंत्रता (1947) के
बाद राजस्थान के राजपूत राज्यों का भारतीय संघ के राजस्थान राज्य में विलय कर दिया
गया।
राजस्थान
राजपूताना या रजवाड़ा भी
कहलाता है। ये प्रारम्भ में गुर्जरो का देश था तथा गुर्जरत्रा (गुर्जरो से रक्षित देश), गुर्जरदेश, गुर्जरधरा आदि नामों से जाना जाता था।[1]गुर्जरों का साम्राज्य यहाँ 12वीं सदी तक रहा है।[2]गुर्जरों के बाद यहा राजपूतों की राजनीतिक सत्ता आयी तथा ब्रिटिशकाल में
यह राजपूताना (राजपूतों का देश) नाम से जाने जाना लगा। [3]इस प्रदेश का आधुनिक नाम राजस्थान है, जो उत्तर भारत के पश्चिमी भाग में अरावली की पहाड़ियों के दोनों ओर फैला हुआ है। इसका
अधिकांश भाग मरुस्थल है। यहाँ वर्षा अत्यल्प और वह भी विभिन्न क्षेत्रों में असमान
रूप से होती है। यह मुख्यत: वर्तमान राजस्थान राज्य की भूतपूर्व रियासतों का समूह है, जो भारत का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
भौगोलिक
स्थिति
3,43,328 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल
वाले इस इलाक़े के दो भौगोलिक खण्ड हैं, अरावली
पर्वत शृंखला का पश्चिमोत्तर क्षेत्र-जो अनुपजाऊ व
ज़्यादातर रेतीला है। इसमें थार मरुस्थल का एक हिस्सा शामिल है और पर्वत शृंखला का
दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र-जो सामान्यत: ऊँचा तथा अधिक उपजाऊ
है। इस प्रकार समस्त क्षेत्र एक ऐसे सघन अवरोध का निर्माण करता है, जिसमें उत्तर भारत के मैदान और प्रायद्वीपीय भारत के मुख्य पठार के मध्य
स्थित पहाड़ी और पठारी क्षेत्र सम्मिलित हैं।
राजस्थान
का उदय
राजपूताना में 23 राज्य,
एक सरदारी, एक जागीर और अजमेर-मेवाड़ का ब्रिटिश ज़िला शामिल थे। शासक राजकुमारों
में अधिकांश राजपूत थे। ये राजपूताना के ऐतिहासिक क्षेत्र के क्षत्रिय थे, जिन्होंने सातवीं शताब्दी में इस क्षेत्र में प्रवेश करना आरम्भ किया। जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर और उदयपुर सबसे बड़े राज्य थे। 1947 में विभिन्न चरणों में इन
राज्यों का एकीकरण हुआ, जिसके परिणामस्वरूप राजस्थान राज्य
अस्तित्व में आया। दक्षिण-पूर्व राजपूताना के कुछ पुराने क्षेत्र मध्य प्रदेश और
दक्षिण-पश्चिम में और कुछ क्षेत्र अब गुजरात का हिस्सा हैं।
इतिहास
भारत में मुसलमानों का राज्य स्थापित होने के पूर्व राजस्थान में कई शक्तिशाली राजपूत जातियों के वंश शासन कर रहे थे और उनमें सबसे
प्राचीन चालुक्य और राष्ट्रकूट थे। इसके उपरान्त कन्नौज के राठौरों (राष्ट्रकूट), अजमेर के चौहानों, अन्हिलवाड़ के सोलंकियों, मेवाड़ के गहलोतों या सिसोदियों और जयपुर के
कछवाहों ने इस प्रदेश के भिन्न-भिन्न भागों में अपने राज्य स्थापित कर लिये।
राजपूत जातियों में फूट और परस्पर युद्धों के फलस्वरूप वे शक्तहीन हो गए। यद्यपि
इनमें से अधिकांश ने बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में मुसलमान आक्रमणकारियों का
वीरतापूर्वक सामना किया, तथापि प्राय: सम्पूर्ण राजपूताने के
राजवंशों को दिल्ली सल्तनतकी सर्वोपरी सत्ता स्वीकार
करनी पड़ी।
राणा साँगा की पराजय
दिल्ली सल्तनत की सत्ता स्वीकार
करने के बाद भी मुसलमानों की यह प्रभुसत्ता राजपूत शासकों को सदेव खटकती रही और जब
कभी दिल्ली सल्तनत में दुर्बलता के लक्षण दृष्टिगत होते, वे अधीनता से मुक्त होने को प्रयत्नशील हो उठते। 1520 ई. में बाबर के
नेतृत्व में मुग़लों के आक्रमण के समय राजपूताना दिल्ली के सुल्तानों के प्रभाव से
मुक्त हो चला था और मेवाड़ के राणा संग्राम सिंह ने बाबर के दिल्ली पर अधिकार का विरोध किया। 1526 ई.
में खानवा के युद्ध में राणा
की पराजय हुई और मुग़लों ने
दिल्ली के सुल्तानों का राजपूताने पर नाममात्र को बचा प्रभुत्व फिर से स्थापित कर
लिया।
मुग़लों की अधीनता
इस पराजय के बाद भी राजपूतों का
विरोध शान्त न हुआ। अकबर की राजनीतिक सूझ-बूझ और दूरदर्शिता का
प्रभाव इन पर अवश्य पड़ा और मेवाड़ के अतिरिक्त अन्य सभी राजपूत शासक मुग़लों के
समर्थक और भक्त बन गए। अन्त में जहाँगीर के शासनकाल में मेवाड़ ने भी मुग़लों की अधीनता स्वीकार कर ली। औरंगज़ेब के सिंहासनारूढ़ होने तक राजपूताने के
शासक मुग़लों के स्वामिभक्त बने रहे। परन्तु औरंगज़ेब की धार्मिक असहिष्णुता की
नीति के कारण दोनों पक्षों में युद्ध हुआ। बाद में एक समझौते के फलस्वरूप
राजपूताने में शान्ति स्थापित हुई।
अंग्रेज़ों की शरण
प्रतापी मुग़लों के पतन से भी
राजपूताने के राजपूत शासकों का कोई लाभ नहीं हुआ, क्योंकि 1756
ई. के लगभग राजपूतों में मराठों का शक्ति विस्तार आरम्भ हो गया। 18वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में भारत की अव्यवस्थित राजनीतिक दशा में उलझनें तथा मराठों एवं पिण्डारियों की
लूटमार से त्रस्त होने के कारण राजपूताने के शासकों का इतना मनोबल गिर गया कि
उन्होंने अपनी सुरक्षा हेतु अंग्रेज़ों की शरण ली।
भारतीय संघ
भारतीय गणतंत्र की स्थापना के
उपरान्त कुछ राजपूत रियासतें मार्च, 1948 ई. में और कुछ
एक वर्ष बाद भारतीय संघ में सम्मिलित हो गईं। इस प्रदेश का आधुनिक नाम राजस्थान और इसकी राजधानी जयपुर है। राजप्रमुख (अब राज्यपाल) का निवास
तथा विधानसभा की बैठकें भी जयपुर में ही होती हैं।
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