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मंगलवार, 10 अप्रैल 2018

पाल साम्राज्य पाल शासक और तिब्बत दन्तपुरी विश्वविद्यालय / उदंतपुरी विश्‍वविद्यालय उत्थान व पतन का क्रम सेन वंश का उत्कर्ष बौद्ध धर्म का संरक्षण गोपाल प्रथम मत्स्य न्याय राजवंश की नींव मत्स्यन्याय का अंत गोपाल के शासन की तुलना गोपाल द्वितीय धर्मपाल देवपाल विग्रहपाल (लगभग 850-860 ई.) नारायणपाल (लगभग 860-915 ई.) महिपाल प्रथम नयपाल महिपाल द्वितीय रामपाल


पाल साम्राज्य
हर्ष के समय के बाद से उत्तरी भारत के प्रभुत्व का प्रतीक कन्नौज माना जाता था। बाद में यह स्थान दिल्ली ने प्राप्त कर लिया। पाल साम्राज्य की नींव 750 ई. में 'गोपाल' नामक राजा ने डाली। बताया जाता है कि उस क्षेत्र में फैली अशान्ति को दबाने के लिए कुछ प्रमुख लोगों ने उसको राजा के रूप में चुना। इस प्रकार राजा का निर्वाचन एक अभूतपूर्व घटना थी। इसका अर्थ शायद यह है कि गोपाल उस क्षेत्र के सभी महत्त्वपूर्ण लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सका और इससे उसे अपनी स्थिति मज़बूत करन में काफ़ी सहायता मिली।
पाल वंश का सबसे बड़ा सम्राट 'गोपाल' का पुत्र 'धर्मपाल' था। इसने 770 से लेकर 810 ई. तक राज्य किया। कन्नौज के प्रभुत्व के लिए संघर्ष इसी के शासनकाल में आरम्भ हुआ। इस समय के शासकों की यह मान्यता थी कि जो कन्नौज का शासक होगा, उसे सम्पूर्ण उत्तरी भारत के सम्राट के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा। कन्नौज पर नियंत्रण का अर्थ यह भी थी कि उस शासक का, ऊपरी गंगा घाटी और उसके विशाल प्राकृतिक साधनों पर भी नियंत्रण हो जाएगा। पहले प्रतिहार शासक 'वत्सराज' ने धर्मपाल को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पर इसी समय राष्ट्रकूट सम्राट 'ध्रुव', जो गुजरात और मालवा पर प्रभुत्व के लिए प्रतिहारों से संघर्ष कर रहा था, उसने उत्तरी भारत पर धावा बोल दिया। काफ़ी तैयारियों के बाद उसने नर्मदा पार कर आधुनिक झाँसी के निकट वत्सराज को युद्ध में पराजित किया। इसके बाद उसने आगे बढ़कर गंगा घाटी में धर्मपाल को हराया। इन विजयों के बाद यह राष्ट्रकूट सम्राट 790 में दक्षिण लौट आया। ऐसा लगता है कि कन्नौज पर अधिकार प्राप्त करने की इसकी कोई विशेष इच्छा नहीं थी और ये केवल गुजरात और मालवा को अपने अधीन करने के लिए प्रतिहारों की शक्ति को समाप्त कर देना चाहता था। वह अपने दोनों लक्ष्यों में सफल रहा। उधर प्रतिहारों के कमज़ोर पड़ने से धर्मपाल को भी लाभ पहुँचा। वह अपनी हार से शीघ्र उठ खड़ा हुआ और उसने अपने एक व्यक्ति को कन्नौज के सिंहासन पर बैठा दिया। यहाँ उसने एक विशाल दरबार का आयोजन किया। जिसमें आस-पड़ोस के क्षेत्रों के कई छोटै राजाओं ने भाग लिया। इनमें गांधार (पश्चिमी पंजाब तथा काबुल घाटी)मद्र (मध्य पंजाब), पूर्वी राजस्थान तथा मालवा के राजा शामिल थे। इस प्रकार धर्मपाल को सच्चे अर्थों में उत्तरपथस्वामिन कहा जा सकता है। प्रतिहार साम्राज्य को इससे बड़ा धक्का लगा और राष्ट्रकूटों द्वारा पराजित होने के बाद वत्सराज का नाम भी नहीं सुना जाता।
इन तीनों साम्राज्यों के बीच क़रीब 200 साल तक आपसी संघर्ष चला। एक बार फिर कन्नौज के प्रभुत्व के लिए धर्मपाल को प्रतिहार सम्राट 'नागभट्ट' द्वितीय से युद्ध करना पड़ा। ग्वालियर के निकट एक अभिलेख मिला है, जो नागभट्ट की मृत्यु के 50 वर्षों बाद लिखा गया और जिसमें उसकी विजय की चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि नागभट्ट द्वितीय ने मालवा तथा मध्य भारत के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की तथा 'तुरुष्क तथा सैन्धव' को पराजित किया जो शायद सिंध में अरब शासक और उनके तुर्की सिपाही थे। उसने बंग सम्राट को, जो शायद धर्मपाल था, को भी पराजित किया और उसे मुंगेर तक खदेड़ दिया। लेकिन एक बार फिर राष्ट्रकूट बीच में आ गए। राष्ट्रकूट सम्राट गोविन्द तृतीय ने उत्तरी भारत में अपने पैर रखे और नागभट्ट द्वितीय को पीछे हटना पड़ा। बुंदेलखण्ड के निकट एक युद्ध में गोविन्द तृतीय ने उसे पराजित कर दिया। लेकिन एक बार पुनः राष्ट्रकूट सम्राट मालवा और गुजरात पर अधिकार प्राप्त करने के बाद वापस दक्षिण लौट आया। ये घटनाएँ लगभग 806 से 870 ई. के बीच हुई। जब पाल शासक कन्नौज तथा ऊपरी गंगा घाटी पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में असफल हुए, तो उन्होंने अन्य क्षेत्रों की तरफ अपना ध्यान दिया। धर्मपाल के पुत्र देवपाल ने, जो 810 ई. में सिंहासन पर बैठा और 40 वर्षों तक राज्य किया, प्रागज्योतिषपुर (असम) तथा उड़ीसा के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव क़ायम कर लिया। नेपाल का कुछ हिस्सा भी शायद पाल सम्राटों के अधीन था। देवपाल की मृत्यु के बाद पाल साम्राज्य का विघटन हो गया। पर दसवीं शताब्दी के अंत में यह फिर से उठ खड़ा हुआ और तेरहवीं शताब्दी तक इसका प्रभाव क़ायम रहा।
अरब व्यापारी सुलेमान के अनुसार
पाल वंश के आरम्भ के शासकों ने आठवीं शताब्दी के मध्य से लेकर दसवीं शताब्दी के मध्य, अर्थात् क़रीब 200 वर्षों तक उत्तरी भारत के पूर्वी क्षेत्रों पर अपना प्रभुत्व क़ायम रखा। दसवीं शताब्दी के मध्य में भारत आने वाले एक अरब व्यापारी सुलेमान ने पाल साम्राज्य की शक्ति और समृद्धि की चर्चा की है। उसने पाल राज्य को 'रूहमा' कहकर पुकारा है (यह शायद धर्मपाल के छोटे रूप 'धर्म' पर आधारित है) और कहा है कि पाल शासक और उसके पड़ोसी राज्यों, प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों में लड़ाई चलती रहती थी, लेकिन पाल शासन की सेना उसके दोनों शत्रुओं की सेनाओं से बड़ी थी। सुलेमान ने बताया है कि पाल शासक 50 हज़ार हाथियों के साथ युद्ध में जाता था और 10 से 15 हज़ार व्यक्ति केवल उसके सैनिकों के कपड़ों को धोने के लिए नियुक्त थे। इससे उसकी सेना का अनुमान लगाया जा सकता है।

तिब्बती ग्रंथों से
पाल वंश के बारे में हमें तिब्बती ग्रंथों से भी पता चलता है, यद्यपि यह सतरहवीं शताब्दी में लिखे गए। इनके अनुसार पाल शासक बौद्ध धर्म तथा ज्ञान को संरक्षण और बढ़ावा देते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय को, जो सारे पूर्वी क्षेत्र में विख्यात है, धर्मपाल ने पुनः जीवित किया और उसके खर्चे के लिए 200 गाँवों का दान दिया। उसने विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय की भी स्थापना की। जिसकी ख्याति केवल नालन्दा के बाद है। यह मगध में गंगाके निकट एक पहाड़ी चोटी पर स्थित था। पाल शासकों ने कई बार विहारों का भी निर्माण किया जिसमें बड़ी संख्या में बौद्ध रहते थे।

पाल शासक और तिब्बत
पाल शासकों के तिब्बत के साथ भी बड़े निकट के सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। उन्होंने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् सन्तरक्षित तथा दीपकर (जो अतिसा के नाम से भी जाने जाते हैं) को तिब्बत आने का निमंत्रण दिया और वहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म के एक नए रूप को प्रचलित किया। नालन्दा तथा विक्रमशील विश्वविद्यालयों में बड़ी संख्या में तिब्बती विद्वान् बौद्ध अध्ययन के लिए आते थे।
पाल शासकों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध थे। दक्षिण पूर्व एशिया के साथ उनका व्यापार उनके लिए बड़ा लाभदायक था और इससे पाल साम्राज्य की समृद्धि बढ़ी। मलायाजावा, सुमात्रा तथा पड़ोसी द्वीपों पर राज्य करने वाले शैलेन्द्र वंश के बौद्ध शासकों ने पाल-दरबार में अपने राजदूतों को भेजा और नालन्दा में एक मठ की स्थापना की अनुमति माँगी। उन्होंने पाल शासक देवपाल से इस मठ के खर्च के लिए पाँच ग्रामों का अनुदान माँगा। देवपाल ने उसका यह अनुरोध स्वीकार कर लिया। इससे हमें इन दोनों के निकट सम्बन्धों के बारे में पता चलता है।

दन्तपुरी विश्‍वविद्यालय / उदंतपुरी विश्‍वविद्यालय
·         ओदन्तपुरी विश्‍वविद्यालय भी नालंदा और विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय की तरह विख्‍यात था, परंतु उदंतपुरी विश्‍वविद्यालय का उत्‍खनन कार्य नहीं होने के कारण यह आज भी धरती के गर्भ में दबा है, जिसके कारण बहुत ही कम लोग इस विश्‍वविद्यालय के इतिहास से परिचित हैं।
·         अरब के लेखकों ने इसकी चर्चा 'अदबंद' के नाम से की है, वहीं 'लामा तारानाथ' ने इस 'उदंतपुरी महाविहार' को 'ओडयंतपुरी महाविद्यालय' कहा है। ऐसा कहा जाता है कि नालंदा विश्‍वविद्यालय जब अपने पतन की ओर अग्रसर हो रहा था, उसी समय इस विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना की गई थी।
·         इसकी स्‍थापना प्रथम पाल नरेश गोपाल ने सातवीं शताब्‍दी में की थी।

8वीं शताब्दी में पाल वंश के शासक धर्मपाल द्वारा बिहार प्रान्त के भागलपुर में विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। पूर्व मध्यकालीन भारतीय इतिहास में इस विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी। विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय नालन्‍दा के समकक्ष माना जाता था। इसका निर्माण पाल वंश के शासक धर्मपाल (770-810 ईसा पूर्व) ने करवाया था। मध्यकालीन भारतीय इतिहास में इस विश्वविद्यालय का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहां पर बौद्ध धर्म एवं दर्शन के अतिरिक्त न्याय, तत्व ज्ञान एवं व्याकरण का भी अध्ययन कराया जाता था|

पाल वंश का उद्भव बंगाल में लगभग 750 ई. में गोपाल से हुआ। इस वंश ने बिहार और अखण्डित बंगाल पर लगभग 750 से 1174 ई. तक शासन किया। इस वंश की स्थापना गोपाल ने की थी, जो एक स्थानीय प्रमुख था। गोपाल आठवीं शताब्दी के मध्य में अराजकता के माहौल में सत्ताधारी बन बैठा। उसके उत्तराधिकारी धर्मपाल (शासनकाल, लगभग 770-810 ई.) ने अपने शासनकाल में साम्राज्य का काफ़ी विस्तार किया और कुछ समय तक कन्नौजउत्तर प्रदेश तथा उत्तर भारत पर भी उसका नियंत्रण रहा।

 

उत्थान व पतन का क्रम

देवपाल (शासनकाल, लगभग 810-850 ई.) के शासनकाल में भी पाल वंश एक शक्ति बना रहा, उन्होंने देश के उत्तरी और प्राय:द्वीपीय भारत, दोनों पर हमले जारी रखे, लेकिन इसके बाद से साम्राज्य का पतन शुरू हो गया। कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक महेन्द्र पाल (नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द से आरंभिक दसवीं शताब्दी) ने उत्तरी बंगाल तक हमले किए। 810 से 978 ई. तक का समय पाल वंश के इतिहास का पतन काल माना जाता है। इस समय के कमज़ोर एवं अयोग्य शासकों में विग्रहपाल की गणना की जाती है। भागलपुर से प्राप्त शिलालेख के अनुसार, नारायण पाल ने बुद्धगिरि (मुंगेर), तीरभुक्ति (तिरहुत) में शिव के मन्दिर हेतु एक गाँव दान दिया, तथा एक हज़ार मन्दिरों का निर्माण कराया। पाल वंश की सत्ता को एक बार फिर से महिपाल, (शासनकाल, लगभग 978 -1030 ई.) ने पुनर्स्थापित किया। उनका प्रभुत्व वाराणसी (वर्तमान बनारस, उत्तर प्रदेश) तक फैल गया, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद साम्राज्य एक बार फिर से कमज़ोर हो गया। पाल वंश के अंतिम महत्त्वपूर्ण शासक रामपाल (शासनकाल, लगभग 1075 -1120) ने बंगाल में वंश को ताकतवर बनाने के लिये बहुत कुछ किया और अपनी सत्ता को असम तथा उड़ीसा तक फैला दिया।

 

सेन वंश का उत्कर्ष

'संध्याकर नंदी' द्वारा रचित ऐतिहासिक संस्कृत काव्य 'रामचरित' में रामपाल की उपलब्धियों का वर्णन है। रामपाल की मृत्यु के बाद सेन वंश की बढ़ती हुई शक्ति ने पाल साम्राज्य पर वस्तुत: ग्रहण लगा दिया, हालांकि पाल राजा दक्षिण बिहार में अगले 40 वर्षों तक शासन करते रहे। ऐसा प्रतीत होता है कि, पाल राजाओं की मुख्य राजधानी पूर्वी बिहार में स्थित 'मुदागिरि' (मुंगेर) थी।

 

बौद्ध धर्म का संरक्षण

पाल नरेश बौद्ध मतानुयायी थे। उन्होंने ऐसे समय बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया, जब भारत में उसका पतन हो रहा था। धर्मपाल द्वारा स्थापित विक्रमशिला विश्वविद्यालयउस समय नालन्दा विश्वविद्यालय का स्थान ग्रहण कर चुका था। इस काल के प्रमुख विद्वानों में 'सन्ध्याकर नन्दी' उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने 'रामचरित' नामक ऐतिहासिक काव्यग्रन्थ की रचना की। इसमें पाल शासक रामपाल की जीवनी है। अन्य विद्वानों में 'हरिभद्र यक्रपाणिदत्त', 'ब्रजदत्त' आदि उल्लेखनीय है। चक्रपाणिदत्त ने चिकित्सासंग्रह तथा आयुर्वेदीपिका की रचना की। जीमूतवाहन भी पाल युग में ही हुआ। उसने 'दायभाग', 'व्यवहार मालवा' तथा 'काल विवेक' की रचना की। बौद्ध विद्वानों में कमलशील, राहलुभद्र, और दीपंकर श्रीज्ञान आतिश आदि प्रमुख हैं।
वज्रदत्त ने 'लोपेश्वरशतक' की रचना की। कला के क्षेत्र में भी पाल शासकों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। स्मिथ ने पाल युग के दो महान् शिल्पकार 'धीनमान' तथा 'बीतपाल' का उल्लेख किया है। पाल वंश के शासकों ने बंगाल पर 750 से 1155 ई. तक तथा बिहार पर मुसलमानो के आक्रमण (1199 ई.) तक शासन किया। इस प्रकार पाल राजाओं का शासन काल उन राजवंशों में से एक है, जिसमें प्राचीन भारतीय इतिहास में सबसे लम्बे समय तक शासन किया।

गोपाल प्रथम
गौड़ (उत्तरी बंगाल) पाल वंश का प्रथम राजा तथा बंगाल और बिहार पर लगभग चार शताब्दी तक शासन करने वाले पाल वंशका संस्थापक था। गोपाल प्रथम का शासन लगभग 750 से 770 ई. तक था। उसके पिता का नाम 'वप्यट' और पितामह का नाम 'दयितविष्णु' था। इन दोनों का सम्बन्ध सम्भवत: किसी राजकुल से नहीं था। पाल वंश के अधिकांश राजा बौद्ध थे। गोपाल प्रथम के द्वारा स्थापित पाल वंश ने दीर्घकाल तक शासन किया। 12वीं शताब्दी तक बंगाल-बिहार पर इस वंश के राजाओं का शासन रहा था।

 

 

मत्स्य न्याय

शशांक की मृत्यु तथा हर्षवर्धन के पश्चात् बंगाल की राजनीतिक स्थिति काफ़ी अस्त-व्यस्त हो गयी थी। इस स्थिति को अभिलेखों में 'मत्स्य न्याय' की संज्ञा दी गयी है, इसके अन्तर्गत अधिक शक्तिशाली व्यक्ति कमज़ोर व्यक्ति का शोषण करता था। 'खालिमपुर अभिलेख' में कहा गया है कि 'मत्स्य न्याय' से छुटकारा पाने के लिए प्रकृतियों ने गोपाल प्रथम को लक्ष्मी का बांह ग्रहण कराई तथा उसे अपना शासक नियुक्त किया। इसके द्वारा कहाँ-कहाँ विजय प्राप्त की गईं, इस बारे में ठीक से कुछ भी ज्ञात नहीं है। तिब्बती लामा एवं इतिहासकार तारानाथ के अनुसार गोपाल प्रथम ने ओदान्तपुर में एक मठ का निर्माण करवाया था तथा 1197 ई. में मुसलमानों ने इस पर विजय प्राप्त कर ली।

 

राजवंश की नींव

गुप्त और पुष्यभूति वंश के ह्रास और अंत के बाद भारतवर्ष राजनीतिक दृष्टि से विच्छृंखलित हो गया और कोई भी अधिसत्ताक शक्ति नहीं बची। राजनीतिक महत्वाकांक्षियों ने विभिन्न भागों में नए-नए राजवंशों की नींव डाली। गोपाल भी उन्हीं में एक था। बौद्ध इतिहासकार तारानाथ और धर्मपाल के खालिमपुर के ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि जनता ने अराजकता और मात्स्यन्याय का अंत करने के लिये उसे राजा चुना। वास्तव में राजा के पद पर उसका कोई लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, यह निश्चित रूप से सही मान लेना तो कठिन है, यह अवश्य प्रतीत होता है कि अपने सत्कार्यों से उसने जनमानस में अपने लिये उच्चस्थान बना लिया था। उसका किसी राजवंश से कोई संबंध नहीं था और स्वयं वह साधारण परिवार का व्यक्ति था, जिसकी कुलीनता आगे भी कभी स्वीकृत नहीं की गई।

 

मत्स्यन्याय का अंत

संध्याकर नंदिकृत रामपाल चरित में गोपाल का मूल शासन वारेंद्र अर्थात्‌ उत्तरी बंगाल बताया गया है। इसमें संदेह नहीं कि धीरे धीरे पूरे वंगपर उसका अधिकार हो गया और वह गौड़ाधिपति कहलाने लगा। जैसा अनुश्रुति से ज्ञात होता है, उसने मत्स्यन्याय का अंत किया और वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा की नींव अच्छी तरह रखी जो मगध के भी कुछ भागों तक फैल गई। उसकी राजनीतिक विजयों और सुशासन का लाभ उसके पुत्र धर्मपाल ने खूब उठाया और उसने बड़ी आसानी से गौड़ राज्य को तत्कालीन भारत की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनाने में सफलता पाई।

गोपाल के शासन की तुलना

गोपाल के शासन की तुलना पृथु और सगर के सुशासनों से की गई है। धार्मिक विश्वासों में वह संभवत: बौद्ध था और तारानाथ का कथन है कि उसने पटना जिले में स्थित विहार के पास नलेंद्र (नालंदा) विहार की स्थापना की। मंजुश्री मूलकल्प से भी ज्ञात होता है कि उसने अनेक विहार और चैत्य बनवाए, बाग़ लगवाए, बाँध और पुल बनवाए तथा देवस्थान और गुफ़ाएँ निर्मित कराई। उसके शासनकाल का निश्चित रूप से निर्णय नहीं किया जा सका है। अत: यह कहना भी कठिन है कि गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज का गौड़ाधिपति शत्रु गोपाल था अथवा उसका पुत्र धर्मपाल था।

 

गोपाल द्वितीय

गोपाल द्वितीय पाल वंश की पतनावस्था का राजा था। अपने पिता राज्यपाल की मृत्यु के बाद 948 ई. में उसने गद्दी पाई। उसकी माता का नाम भाग्य देवी था, जो राष्ट्रकूट कन्या थी। उसकी कमज़ोरी के परिणाम स्वरूप उत्तरी और पश्चिमी बंगाल पालों के हाथ से निकलकर हिमालय के उत्तरी क्षेत्रों से आने वाली कांबोज नामक आक्रमणकारी जाति के हाथों चला गया। कदाचित चंदेल वंश के यशोवर्मा ने भी 953-54 ई. के आस-पास, उसके क्षेत्रों पर धावा कर उसे हराया था। उसके कुछ अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे मगध और अंग मात्र में उसका राजनीतिक अधिकार ज्ञात होता है। उसकी मृत्यु कब हुई थी, यह ज्ञात नहीं है।

धर्मपाल 
पाल वंश के गोपाल प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी व एक योग्यतम शासक था। उसका शासन काल लगभग 770 से 810 ई. तक माना जाता है। उसकी महत्त्वपूर्ण सफलता थीकन्नौज के शासक 'इंद्रायुध' को परास्त कर 'चक्रायुध' को अपने संरक्षण में कन्नौज की गद्दी पर बैठाना।
·         धर्मपाल ने पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार तक अपनी शक्ति स्थापित की थी।
·         उसने 'महाराजाधिराज', 'परमेश्वर' और 'परभट्टारक' जैसी उपाधियाँ धारण की थीं।
·         'खलीमपुर' ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि, उसने कन्नौज में एक दरबार किया था, जिसमें भोज (बरार), मत्स्य (जयपुर), मद्र (पंजाब), कुरु (थानेश्वर), यदु (मथुरा या द्वारका), यवन (सिन्ध का अरब शासक)अवन्ति(मालवा), गांधार (उत्तर-पश्चिमी सीमा) तथा कीड़ (कांगड़ा) के शासकों ने भाग लिया था।
·         11 वीं शताब्दी के कवि 'सोड्ढल' (गुजराती) ने 'उदयसुन्दरी कथा' में 'धर्मपाल' को 'उत्तरापथस्वामिन' कहा है।
·         धर्मपाल प्रतिहार वंशी शासक नागभट्ट द्वितीय से पराजित हुआ था।
·         उसे राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव ने भी पराजित किया था।
·         धर्मपाल बौद्ध धर्म का अनुयायी था, तथा इसने 'परमसौगत' की उपाधि धारण की थी।
·         'नारायणपाल' अभिलेख में उसे उचित कर लगाने वाला अर्थात् सबसे साथ समान व्यवहार करने वाला (समकर) कहा गया है।
·         उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्धान 'हरिभद्र' को संरक्षण दिया था, तथा वह सभी धर्मों का आदर करता था।
·         धर्मपाल ने बोधगया में चतुर्भुज महादेव मंदिर की स्थापना की थी, उसका मंत्री गर्ग एक ब्राह्मण था।
·         उसके शासन काल में प्रसिद्ध यात्री सुलेमान आया था, जिसने धर्मपाल को 'रुद्रमा' कहा था।
·         धर्मपाल द्वारा बहुत से बिहार एवं मठों का निर्माण करवाया गया था।
·         उसने प्रसिद्ध विक्रमशिला विश्वविद्यालय और नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना 'पाथरघाट भागलपुर' (बिहार) में की थी।
·         धर्मपाल ने नालंदा विश्वविद्यालय के ख़र्च के लिए 200 गाँवों को दान में दिया था।

देवपाल 
·         धर्मपाल का पुत्र एवं पाल वंश का उत्तराधिकारी था।
·         इसे 810 ई. के लगभग पाल वंश की गद्दी पर बैठाया गया था।
·         देवपाल ने लगभग 810 से 850 ई. तक सफलतापूर्वक राज्य किया।
·         उसने 'प्राग्यज्योतिषपुर' (असम), उड़ीसा एवं नेपाल के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया था।
·         देवपाल की प्रमुख विजयों में गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिर भोज पर प्राप्त विजय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थी।
·         अरब यात्री सुलेमान ने देवपाल को राष्ट्रकूट एवं प्रतिहार शासकों में सबसे अधिक शक्तिशाली बताया है।
·         देवपाल ने 'मुंगेर' में अपनी राजधानी स्थापित की थी।
·         'बादल स्तम्भ' पर उत्कीर्ण लेख इस बात का दावा करता है कि, "उत्कलों की प्रजाति का सफाया कर दियाहूणों का धमण्ड खण्डित किया और द्रविड़ तथा गुर्जर शासकों के मिथ्याभिमान को ध्वस्त कर दिया"।
·         प्रशासनिक कार्यों में देवपाल को अपने योग्य मंत्री 'दर्भपणि' तथा 'केदार मिश्र' से सहायता प्राप्त हुई तथा उसके सैनिक अभियानों में उसके चचेरे भाई 'जयपाल' ने उसकी सहायता की थी।
·         देवपाल भी बौद्ध था, उसे भी 'परमसौगात' कहा गया है।
·         जावा के शैलेन्द्र वंशी शासक 'वालपुदेव' के अनुरोध पर देवपाल ने उसे बौद्ध विहार बनवाने के लिए पाँच गाँव दान में दिया थे।
·         उसने 'नगरहार' (जलालाबाद) के प्रसिद्ध विद्धान 'वीरदेव' को 'नालन्दा विश्वविद्यालय' का प्रधान आचार्य नियुक्त किया।

विग्रहपाल (लगभग 850-860 ई.)
पाल वंश के राजा देवपाल का उत्तराधिकारी था। 810 से 978 ई. तक का समय पाल वंश के इतिहास का पतन काल माना जाता है। इस समय के कमज़ोर एवं अयोग्य शासकों में विग्रहपाल की भी गणना की जाती है।
·         तीन या चार वर्ष की अल्प शासन अवधि के बाद ही विग्रहपाल ने गद्दी त्याग दी।
·         विग्रहपाल के पुत्र और उत्तराधिकारी नारायणपाल (लगभग 860-915 ई.) की शासन अवधि लम्बी थी।
नारायणपाल (लगभग 860-915 ई.) 
पाल वंश के विग्रहपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी था। इसका शासन काल काफ़ी बड़ा था।
·         राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ने पाल शासक नारायणपाल को पराजित किया था।
·         प्रतिहारों ने भी धीरे-धीरे पूर्व की ओर अपनी शक्ति का विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया था।
·         ऐसे समय में नारायणपाल को न सिर्फ़ मगध से हाथ धोना पड़ा, अपितु पाल राज्य का मुख्य भाग उत्तरी बंगाल भी उसके हाथ से निकल गया।
·         अपने शासन के अंतिम चरणों में नारायणपाल ने प्रतिहारों से उत्तरी बंगाल और दक्षिणी बिहार को छीन लिया था, क्योंकि प्रतिहार राष्ट्रकूटों के आक्रमण के कारण काफ़ी कमज़ोर हो गये थे।
·         नारायणपाल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र राज्यपाल था।
  • गोपाल द्वितीय बंगाल के पाल वंश का एक परवर्ती राजा था।
  • यह अपने पिता 'राज्यपाल' के बाद राजगद्दी पर बैठा था।
  • इसने लगभग 940 - 957 ई. तक शासन किया था।
  • गोपाल द्वितीय के द्वारा किये गए कार्यों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है

महिपाल प्रथम 
·         'विग्रहपाल' का पुत्र तथा उसका उत्तराधिकारी था।
·         इसका शासनकाल 978 से 1038 ई. तक माना जाता है।
·         महिपाल प्रथम का राज्य मगध तक काफ़ी बड़े क्षेत्रफल में विस्तृत था।
·         उसने पाल वंश की खोई हुई शक्ति को पुनर्जीवन देने के लिए कठिन प्रयत्न किया।
·         महिपाल प्रथम को चोल वंश के राजेन्द्र प्रथम एवं कलचुरी वंश के गांगेयदेव से युद्ध में परास्त होना पड़ा।
·         महिपाल प्रथम को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक भी माना जाता है।
·         महिपाल ने बौद्ध भिक्षु अतिशा के नेतृत्व में तिब्बत में एक 'धर्म प्रचारक मण्डल' भेजा था।

नयपाल 
·         बिहार और बंगाल के पाल वंश के शासक महीपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी था।
·         वह पाल वंश का दसवाँ शासक था, और उसने लगभग 1038 से 1055 ई. तक राज्य किया था।
·         उसके राज्य काल में दीर्घकाल तक कलचुरियों से संघर्ष चलता रहा।
·         पाल शासन का विघटन नयपाल के राज्य काल से ही प्रारम्भ हो गया था।
·         उसके शासन काल में पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी बंगाल उसके हाथ से निकल गया था।
·         नयपाल के काल में ही प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् 'अतिशा' (दीपशंकर श्रीज्ञान) ने तिब्बत के शासकों के निमंत्रण पर अपने शिष्यों सहित वहाँ की यात्रा की।

महिपाल द्वितीय 
·         पाल वंश के महिपाल प्रथम का प्रपौत्र था।
·         वह राजा 'विग्रहपाल' के तीन पुत्रों में सबसे बड़ा था।
·         बड़ा पुत्र होने के कारण पिता के बाद वही पाल साम्राज्य की राजगद्दी का वास्तविक उत्तराधिकारी हुआ।
·         महिपाल द्वितीय केवल 1070 से 1075 ई. तक ही राज्य कर सका।
·         उसका शासन अत्यन्त ही निर्बल था।
·         वह अपने राज्य के विद्रोही नेता 'दिव्य' से युद्ध में पराजित हुआ और मारा गया।
रामपाल 
बंगाल तथा बिहार का 14वाँ पाल वंशीय शासक था। उसने लगभग 42 वर्षों (1075 - 1120 ई.) तक राज्य किया।
·         रामपाल से पूर्व उसका ज्येष्ठ भ्राता महिपाल द्वितीय शासक था, किंतु कैवतों के मुखिया 'दिव्य' अथवा 'दिव्योक' के नेतृत्व में जनता द्वारा विद्रोह करने पर उसे सिंहासन और अपने जीवन से भी हाथ धोना पड़ा।
·         कुछ समय उपरांत दिव्य का उत्तराधिकारी 'भीम' सिंहासन पर आसीन हुआ, किंतु रामपाल ने उसे अपदस्थ करके परिवार के सभी सदस्यों सहित उसका वध कर डाला।
·         इसके बाद रामपाल ने राज्य में फैली अव्यवस्था को दूर करके सर्वत्र शांति और व्यवस्था स्थापित कर दी।
·         रामपाल ने आसाम और उड़ीसा पर विजय प्राप्त की और कन्नौज के गहड़वाल शासक को बिहार की ओर साम्राज्य विस्तार करने से सफलतापूर्वक रोका।
·         'संध्याकर नंदी' ने अपने विलक्षण काव्य ग्रंथ 'रामपालचरित' में रामपाल की उपलब्धियों का वर्णन किया है।
  • गोपाल तृतीय बंगाल के पाल वंश का परवर्ती राजा था।
  • यह अपने पिता 'कुमारपाल' के बाद पाल साम्राज्य की राजगद्दी पर आसीन हुआ।
  • यह राजा रामपाल का प्रपौत्र था।
  • गोपाल तृतीय के चाचा 'मदनपाल' ने 1145 ई. में इसे गद्दी से उतार दिया।
  • गोपाल तृतीय के बारे में भी अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।


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