चोल साम्राज्य
चोल साम्राज्य का अभ्युदय नौवीं शताब्दी में हुआ और दक्षिण प्राय:द्वीप का अधिकांश भाग
इसके अधिकार में था। चोल शासकों ने श्रीलंका पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। कुछ समय तक इनका प्रभाव कलिंग और तुंगभद्र दोआब पर भी छाया था। इनके पास शक्तिशाली नौसेना
थी और ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य
था। अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक
अर्थात् बारहवीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया,
वरन् कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया। कुछ
इतिहासकारों का मत है कि चोल काल दक्षिण भारत का 'स्वर्ण युग'
था।
चोल
साम्राज्य की स्थापना
चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की, जो आरम्भ
में पल्लवों का एक सामंती
सरदार था। उसने 850 ई. में तंजौर को अपने अधिकार में कर लिया और पाण्ड्य राज्य पर चढ़ाई कर दी। चोल 897
तक इतने शक्तिशाली हो गए थे कि, उन्होंने
पल्लव शासक को हराकर उसकी हत्या कर दी और सारे टौंड मंडल पर अपना अधिकार कर लिया।
इसके बाद पल्लव, इतिहास के पन्नों से विलीन हो गए, पर चोल शासकों को राष्ट्रकूटों के विरुद्ध भयानक संघर्ष करना पड़ा। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई.
में चोल सम्राट परान्तक प्रथम को पराजित किया और चोल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
इससे चोल वंश को धक्का लगा, लेकिन 965 ई.
में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूटों के पतन के बाद वे एक बार फिर उठ खड़े
हुए।
चोल
साम्राज्य का उत्थान
छठी शताब्दी के मध्य के बाद दक्षिण भारत में पल्लवों, चालुक्यों तथा पाण्ड्य वंशों का राज्य रहा। पल्लवों की
राजधानी कांची, चालुक्यों की बादामी तथा पाण्ड्यों की राजधानी मदुरई थी, जो आधुनिक
तंजौर में है और दक्षिण अर्थात् केरल में, चेर शासक थे। कर्नाटक क्षेत्र में कदम्ब तथा गंगवंशों का शासन था। इस युग के अधिकतर समय में गंग शासक राष्ट्रकूटों के अधीन थे
या उनसे मिलते हुए थे। राष्ट्रकूट इस समय महाराष्ट्र क्षेत्र में सबसे अधिक प्रभावशाली थे। पल्लव, पाण्ड्य
तथा चेर आपस में तथा मिलकर राष्ट्रकूटों के विरुद्ध संघर्षरत थे। इनमें से कुछ
शासकों विशेषकर पल्लवों के पास शक्तिशाली नौसेनाएँ भी थीं। पल्लवों के दक्षिण
पूर्व एशिया के साथ बड़े
पैमाने पर व्यापारिक सम्बन्ध थे और उन्होंने व्यापार तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों को
बढ़ाने के लिए कई राजदूत भी चीन भेजे। पल्लव अधिकतर शैव मत के अनुयायी थे और इन्होंने आधुनिक चेन्नई के निकट महाबलीपुरम में
कई मन्दिरों का निर्माण किया।
राजराज
का काल
चोल वंश के सबसे शक्तिशाली राजा राजराज (985-1014 ई.) तथा उसका पुत्र राजेन्द्र प्रथम (1012-1044 ई.) थे। राजराज को
उसके पिता ने अपने जीवन काल में ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था और
सिंहासन पर बैठने के पहले ही उसने प्रशासन तथा युद्ध-कौशल में दक्षता प्राप्त कर
ली थी। राजराज ने सबसे पहले अपना ध्यान पाण्ड्य तथा चेर शासकों तथा उनके मित्र श्रीलंका के शासक की ओर दिया। उसने त्रिवेन्द्रम के निकट चेर की नौसेना को नष्ट
किया तथा कुइलान पर धावा बोल दिया। उसके बाद उसने मदुरई तक विजय प्राप्त की और पाण्ड्य शासक को अपना बंदी बना लिया। उसने श्रीलंका
पर भी आक्रमण किया और उस द्वीप के उत्तरी हिस्से को अपने साम्राज्य का अंग बना
लिया। ये क़दम उसने इसलिए उठाया क्योंकि वह दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से होने
वाले व्यापार को अपनी मुट्ठी में रखना चाहता था। उन दिनों कोरो मंडल तट तथा
मालाबार, भारत तथा दक्षिण
पूर्व एशिया के बीच होने वाले व्यापार के केन्द्र थे। राजराज ने मालदीव द्वीपों पर
भी चढ़ाई की। उत्तर में राजराज ने गंग प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों को भी अपने
अधिकार में ले लिया तथा वेंगी को भी विजित कर लिया।
राजेंद्र
प्रथम का काल
राजेन्द्र प्रथम ने राज के विस्तार की नीति को अपनाया और पाण्ड्य चेर देशों पर विजय
प्राप्त कर उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने श्रीलंका पर भी पूर्ण विजय
प्राप्त की और एक युद्ध में श्रीलंका के राजा और रानी के मुकुटों और राज चिह्नों
को अपने अधिकार में ले लिया। अगले पचास वर्षों तक श्रीलंका चोल शासकों के नियंत्रण
से मुक्त न हो सका।
राजराज
तथा शैलेन्द्र प्रथम ने विभिन्न जगहों पर शिव तथा विष्णु के मन्दिरों का निर्माण कर अपने विजय के प्रमाण दिए। इनमें से सबसे
प्रसिद्ध तंजावुर का राजराजेश्वर मन्दिर है जिसका निर्माण कार्य 1010 ई. में पूरा हुआ। चोल शासकों ने इन मन्दिरों की दीवारों पर अपनी विजय के
बड़े-बड़े अभिलेख खुदवाए। इन्हीं से हमें चोल शासकों और उनके पूर्वजों के बारे में
बहुत कुछ पता लगता है। राजेन्द्र प्रथम का एक प्रमुख अभियान वह था जिसमें वह कलिंग
होता हुआ बंगाल पहुँचा जहाँ
उसकी सेना ने दो नरेशों को पराजित किया। इस अभियान का नेतृत्व 1022 ई. में एक चोल सेनाध्यक्ष ने किया और उसने वही मार्ग अपनाया जो महान्
विजेता समुद्रगुप्त ने
अपनाया था। इस अभियान की सफलता की प्रशस्ति में राजेन्द्र प्रथम ने 'गंगई कौंडचोल' (अर्थात् गंगा का चोल विजेता) की पदवी
ग्रहण की। उसने कावेरी के तट
पर एक नयी राजधानी 'गंगाईकोंड चोलपुरम्' (गंगा के चोल विजेता का शहर) का निर्माण किया। राजेन्द्र प्रथम का एक और
मुख्य अभियान शैलेन्द्र साम्राज्य के विरुद्ध नौ सैनिक अभियान था। शैलेन्द्र
साम्राज्य का आठवीं शताब्दी में उदय हुआ था और मलाया प्रायद्वीप, सुमात्रा, जावा तथा
उसके निकट के द्वीपों पर इसका अधिकार था। चीन के साथ सड़क के रास्ते होने वाले
व्यापार पर भी इसका नियंत्रण था। शैलेन्द्र वंश के शासक बौद्धथे, चोलों
के साथ इनके बड़े अच्छे सम्बन्ध थे। शैलेन्द्र शासक ने नागपट्टम में एक बौद्ध मठ
का निर्माण किया था और उसके अनुरोध पर राजेन्द्र प्रथम ने मठ के खर्च के लिए एक
ग्राम का अनुदान दिया था। इन दोनों के बीच सम्बन्ध टूटने का कारण यह था कि चोल
शासक भारतीय व्यापार में पड़ने वाली बाधाओं को हटाना चाहते थे। इस अभियान से
उन्हें कादरम या केदार तथा मलाया प्राय:द्वीप और सुमात्रा में कई स्थानों पर विजय
मिली। कुछ समय तक इस क्षेत्र में चोलों की नौसेना सबसे अधिक शक्तिशाली थी तथा बंगाल की खाड़ी चोलों की झील के समान हो गई थी।
चोल
शासकों ने अपने कई दूत चीन भी भेजे। सत्तर व्यापारियों का एक मंडल 1077
ई. में चोल दूतों के रूप में चीन गया और वहाँ उसे 81,800 कांस्य मुद्राओं की माला मिली, अर्थात् यह संख्या
उतनी ही थी, जितनी उन व्यापारियों की वस्तुएँ थीं, जिसमें कपूर, कढ़ाई किए कपड़े, हाथी दांत, गैंडों के
सींग तथा शीशे का सामान था। चोल सम्राटों ने राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी चालुक्यों से बराबर संघर्ष किया। इन्हें
उत्तरकालीन चालुक्य कहा जाता है और इनकी राजधानी कल्याणीमें
थी। चोल और चालुक्यों में वेंगी (रायलसीमा), तुंगभद्र और
कर्नाटक के उत्तर-पश्चिम में गंगों के क्षेत्र पर प्रभुत्व के लिए संघर्ष हुआ। इस
संघर्ष में किसी भी पक्ष की निश्चित रूप से विजय नहीं हुई और दोनों पक्ष अन्ततः
कमज़ोर पड़ गए। ऐसा लगता है कि इस युग में युद्ध की भयंकरता बढ़ती गई। चोल शासकों
ने चालुक्यों के शहरों को, जिनमें कल्याणी शामिल था, तहस-नहस कर डाला और जनता का, जिसमें ब्राह्मण और बच्चे शामिल थे, क़त्लेआम किया। यही नीति उन्होंने पाड्य राजाओं के साथ अपनाई। उन्होंने श्रीलंका की प्राचीन राजधानी अनुराधापुर को भी
धराशायी कर दिया और वहाँ के राजा और रानी के साथ बड़ी कठोरता का व्यवहार किया। ये
कार्य चोल साम्राज्य के इतिहास पर कलंक हैं। लेकिन इसके बावजूद चोल किसी भी देश पर
विजय प्राप्त कर लेते थे, तो उसमें ठोस शासन व्यवस्था क़ायम
करते थे। चोल-प्रशासन की एक प्रमुख बात यह थी कि, वे अपने
सारे साम्राज्य के ग्रामों में स्वशासन को प्रोत्साहित करते थे।
चोल
बारहवीं शताब्दी तक समृद्धशाली बने रहे, लेकिन तेरहवीं
शताब्दी के आरम्भ में उनका पतन शुरू हो गया। बारहवीं शताब्दी तक महाराष्ट्र में उत्तर कालीन चालुक्यों की शक्ति
भी क्षीण पड़ गई थी। चोल साम्राज्य की जगह अब दक्षिण में पाण्ड्य तथा होयसल सम्राटों तथा उत्तरकालीन चोल सम्राटों की
जगह यादव और काकतीय सम्राटों ने ले ली थी। इन राज्यों ने भी कला तथा स्थापत्य को बढ़ावा दिया। दुर्भाग्यवश
उन्होंने आपस में संघर्ष कर स्वयं को कमज़ोर बना लिया। इन्होंने एक दूसरे के नगरों
का विध्वंस किया और यहाँ तक की मन्दिरों को भी नहीं छोड़ा। अन्ततः चौदहवीं शताब्दी
के आरम्भ में दिल्ली के
सुल्तानों ने इनको जड़ से उखाड़ दिया।
चोल
प्रशासन
चोल
प्रशासन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पद राजा का होता
था। चोल कालीन शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। राजा का पद वंशानुगत व्यवस्था पर
आधारित था। राजा के लिए एक मंत्रिपरिषद की व्यवथा थी। राजकीय आदेशों का
क्रियान्वयन 'ओलै' नाम के अतिविशिष्ट
अधिकारी किया करते थे। राजा के प्रधान सचित को 'औलनायमकम'
कहा जाता था। चोल प्रशासन में भाग लेने वाले उच्च पदाधिकारियों को 'पेरुन्दनम्' एवं निम्न श्रेणी के पदाधिकारियों को 'शेरुन्दनम्' कहा जाता था। इस समय अधिकारियों के वेतन
का भुगतान पकद रूप में न करके भूमि के रूप में किया जाता था। 'विडैयाधिकारिन' नाम का अधिकारी कार्य प्रेषक किराने
के रूप में कार्य करता था। राज्य के उच्च अधिकारियों (मंत्रियों) को 'उडनकुट्टम्' कहा जाता था।
प्रशासकीय
इकाइयाँ
प्रशासन
की सुविधा हेतु सम्पूर्ण चोल साम्राज्य 6 प्रान्तों
में विभक्त था। प्रान्तों को 'मण्डलम्' कहा जाता था। प्रायः राजकुमारों को यहां का प्रशासन देखना पड़ता था।
मण्डलम् को कोट्टम (कमिश्नरी) में, कोट्टम को नाडु (ज़िले)
में एवं प्रत्येक नाडु को कई कुर्रमों (ग्राम समूह) में विभक्त किया गया था। बड़े-बड़े शहर या गांव एक अलग कुर्रम
बन जाते थे और तनियूर या तंकुरम कहलाते थे। मण्डलम् से लेकर ग्राम स्तर तक के
प्रशासन हेतु स्थानीय सभाओं का सहयोग लिया जाता था। 'नाडु'
की स्थानीय सभा को 'नाटूर' एवं नगर की सभाओं को क्रमशः श्रेणी और पूग कहा जाता था। चोल सम्राट परान्तक प्रथम के शासन के 12वें एवं 14वें वर्ष के प्रसिद्व 'उत्तरमेरूर अभिलेखों' में चोल कालीन स्थानीय स्वशासन
एवं ग्राम प्रशासन व्यवस्था का साक्ष्य मिलता है। स्थानीय स्वशासन चोल शासन
प्रणाली की महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। स्थानीय स्वशासन में 'उर'
तथा 'सभा' व महासभा के
सदस्य वयस्क होते थे। उर सर्वसाधारण लोगों की समिति थी, जिसका
कार्य होता था- सार्वजनिक कल्याण के लिए तालाबों व बगीचों के निर्माण हेतु गांव की
भूमि का अधिग्रहण करना।
सभा
या ग्राम सभा
यह
मूलतः अग्रहारों व ब्राह्मणों बस्तियों
की संस्था थी। इसके सदस्यों को 'पेरुमक्कल' कहा जाता था। 'वारियम' (कार्यकारिणी
समिति) की सदस्यता हेतु 35 से 70 वर्ष
के बीच तक के व्यक्तियों को अवसर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त वह कम से कम डेढ़
एकड़ भूमि का मालिक एवं वैदिक मंत्रों का ज्ञाता हो। इन अर्हताओं को पूरा करके
चुने गये 30 सदस्यों में से 12 ज्ञानी
व्यक्तियों को वार्षिक समिति 'सम्वत्सर वारियम्' के लिए चुना जाता था और शेष बचे 18 सदस्यों में 12
उद्यान समिति के लिए एवं 6 को तड़ाग समिति के
लिए चुना जाता था।
सभी
की बैठक गांव में मन्दिर के वृक्ष के नीचे एवं तालाब के
किनारे होती थी। महासभा को 'पूरुगर्रि', इसके सदस्यों को 'पेरुमक्कल' एवं
समिति के सदस्यों को 'वारियप्पेरुमक्कल' कहा जाता था। व्यापारियों की सभा को 'नगरम्' कहा जाता था। नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे, जैसे- मणिग्राम, वलंजीयर आदि। चोल काल के 'उर' का रूप लघुगणतंत्र जैसा था। इस समय सार्वजनिक भूमि महासभा के अधिकार
क्षेत्र में होती थी। महासभा ग्रामवासियों पर कर लगाने, उसे
वसूलने एवं बेगार लेने का भी अधिकार अपने पास रखती थी। सभा या महासभा वर्ष में एक
बार केन्द्रीय सरकार को कर देती थी। महासभा की आय और व्यय का निरीक्षण केन्द्र
सरकार के अधिकारी किया करते थे। केन्द्र सरकार असामान्य स्थितियों में ही ग्रामसभा
के स्वायत्त शासन में हस्तक्षेप करती थी।
आय
का स्रोत
राज्य
की आय का मुख्य साधन भूराजस्व था। भूराजस्व निर्धारित करने से पूर्व भूमि का सर्वेक्षण,
वर्गीकरण एवं नाप-जोख कराई जाती थी। तत्कालीन अभिलेखों से ज्ञात
होता है कि, राजराज प्रथम एवं
कुलोत्तुंग के पैर की माप ही भूमि की लम्बाई मापने की इकाई बनी। भूमिकर भूमि की
उर्वरता एवं वार्षिक फ़सल चक्र देखने के बाद निर्धारित किया जाता था। सम्भवतः चोल
काल में भूमि कर उपज का एक तिहाई हुआ करता था, जिसे अन्न व
नक़द दोनों रूपों में लिया जाता था। चोल अभिलेखों में भूमि कर के अतिरिक्त अन्य
करों का उल्लेख मिलता है।
राजस्व
विभाग का उच्च अधिकारी 'वरित्पोत्तगकक्' कहा जाता था। इन करों के अतिरिक्त्
चोल राजा निकटवर्ती क्षेत्रों की लूट मार से भी अपनी आय बढ़ाते थे। विवाह समारोह
पर भी कर लगता था। अभिलेखों में करो व वसूलियों के लिए 'हरै'
या 'वरि', 'मरुन्पाडु'
और 'द्रंडम्' शब्द का
प्रयोग किया गया है। अन्न का मान एक कलम (तीन मन) था। बेलि भूमि माप की इकाई थी।
सोने के सिक्के को काशु कहा जाता था। चोल अभिलेखों में भूमि कर के अतिरिक्त अनेक
प्रकार के कर लगाए जाते थे, जैसे- मरमज्जाडि (उपयोगी
वृक्षकर), कडमै (सुपाड़ी के बाग़ान पर कर), मनैइरै (गृहकर), कढ़ैइरै (व्यापारिक प्रतिष्ठान कर),
पेविर (तेलघानी कर), पाडिकावल (ग्राम सुरक्षा
कर), मगन्यै (स्वर्णकार, लौहकार,
कुम्भकार, बढ़ई आदि के पेशों पर लगाया जाने
वाला कर)।
सैन्य
संगठन
चोलों
की स्थायी सेना में पैदल, गजारोही, अश्वारोही
आदि सैनिक शामिल होते थे। इनके पास एक बड़ी नौसेना थी, जो राजराज प्रथम एवं राजेन्द्र
प्रथम के समय में चरमोत्कर्ष पर थी। बंगाल की खाड़ी चोलों की नौसेना के कारण ही 'चोलों की झील' बन गई। 'बड़पेर्र
कैककोलस' राजा की व्यक्तिगत सुरक्षा में तैनात पैदल दल को
कहते थे, जबकि 'कुंजिर-मल्लर' गजारोही दल को, 'कुदिरैच्चैवगर' अश्वारोही दल को, 'बिल्लिगल' धनुर्धारी
दल को, 'कैककोलस' पैदल सेना में
सर्वाधिक शक्तिशाली को, 'सैगुन्दर' भाला
से प्रहार करने में निपुण सैनिकों को एवं 'वेलैक्कार'
राजा की अतिविश्वसनीय अंगरक्षक को कहते थे। सेना गुल्मों व छावनियों
(कडगम) में रहती थी। चोल काल में सेना की टुकड़ी का नेतृत्व करने वाले को नायक तथा
सेनाध्यक्ष को महादण्डनायक कहा जाता था। सेना में अनेक सेनापति ब्राह्मण थे, जिन्हें
ब्रह्माधिराज कहा जाता था।
न्याय
व्यवस्था
राजा
सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। चोल अभिलेखों में राजा के धर्मासन
का अंतिम न्याय प्राप्त करने के रूप में उल्लेख है, जहाँ पर
राजा धर्मासनभट्ट (स्मृतिशास्त्र ज्ञाता, ब्राह्मण एवं
विद्वान) की सहायता से न्याय करता था। छोटे विवादों पर स्थानीय निगम निर्णय देते
थे। चोलों की दण्ड व्यवस्था में आर्थिक दण्ड एवं सामाजिक अपमान का दण्ड दिया जाता
था। प्रायः आर्थिक दण्ड काशु (मुद्रा) में दिया जाता था।
चोलकालीन
समाज
चोलों
के समय जाति व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण एवं 'वेल्लाल' (शूद्र वर्ग के
बड़े भूस्वामी) का स्थान सर्वोच्च था। ब्राह्मणों को दी गयी कर मुक्त भूमि को 'चतुर्वेदि मंगलम्' कहते थे। इसके अतिरिक्त कुछ विशेष
अधिकार प्राप्त वर्गो में 'बलंगै' के
पास विशेष अधिकार होते थे। चोल काल में क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ग का अस्तित्व नहीं
था। चोल समाज में कुछ वर्गों को अछूत (परैया) माना जाता था। वेल्लाल शूद्र कृषक
थे। चोल काल में उच्च वर्ग के पुरुषों तथा निम्न वर्ग की महिलाओं से रथराज नामक एक
नये वर्ग का उदय हुआ। चोल काल में स्त्रियों की स्थिति पूर्वकाल की तुलना में
बेहतर थी। उच्च कुल की स्त्रियां प्रशासन से संबद्ध थीं, किन्तु सती प्रथा एवं देवदासी प्रथा जैसी कुरीतियां भी
विद्यमान थीं। दास प्रथा का भी प्रचलन था।
धार्मिक
स्थिति
चोलों
के समय में वैष्णव धर्म एवं शैव
धर्म व्यापक प्रचार हुआ। दक्षिण में इनके मतों के
प्रचार में शैव-नायनारों एवं वैष्णव-आलवारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अधिकतर चोल शासक कट्टर शैव थे। उन्होंने शैव धर्म के प्रचार-प्रसार में गहरी रुचि ली।
चोल नरेश आदित्य (चोल वंश) ने शिव पूजा के लिए कावेरी
नदी के किनारे शिव मंदिर का निर्माण और इसके पुत्र परान्तक प्रथम ने इन्हीं की अराधना में 'दभ्रसभा' का निर्माण करवाया। चोल सम्राट राजराज प्रथम के काल में तो शैव धर्म अपने
चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। राजराज ने तंजौर में'‘राराजेश्वर' अथवा 'बृहदीश्वर' मंदिर का निर्माण करवाया, साथ ही 'शिवपादशेखर' की उपाधि
भी धारण की। राजराज के समय शैव सन्त 'नम्बिआण्डारनम्बि'
ने शैव मंत्रों को धर्मग्रंथ में संग्रहीत किया। चोल काल में वैष्णव
मत के प्रसिद्ध आचार्य रामानुजाचार्य थे। उन्होंने विशिष्टाद्वैत मत का प्रतिपादन किया। उन्होंने कुलोत्तुंग
द्वितीय द्वारा चिदम्बरम् मंदिर से गोविन्दराज विष्णु की मूर्ति को समुद्र में फेंक देने के
बाद उसे तिम्पति के विशाल वैष्णव मंदिर में स्थापित करवाया।
साहित्य
चोल
राजाओं के समय में तमिल भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ। तमिल कवियों में प्रसिद्ध 'जयन्गोन्दार' कुलोत्तुंग प्रथम का राजकवि था। उसने 'कलिगुत्तिपुराण' नाम के ग्रंथ की रचना कीं कुलोत्तुंग तृतीय के दरबार में रहने वाले कवि कंबन का काल तमिल
साहित्य का स्वर्ण काल माना जाता है। इस काल की अन्य
रचनायें शेक्किल्लार द्वारा विरचित 'पेरिय पुराणम्', पुलगेन्दि की नलबेम्बा तथा तिरूक्तदेवर की 'जीवक
चिन्तामणि' है। कुलोत्तुंग
द्वितीय (1130-50) के शासनकाल में शेक्किलार ने
तिरुतोण्डार पुराणम् यो परियपुराणम् लिखा है। यह तमिल शैव साहित्य में एक बहुत
महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। प्रियपूर्णम या शेखर की 'तिरूटोण्डपूर्णम्'
को पांचवा वेद कहा जाता है। मामूलनार प्रमुख प्राचीन तमिल कवि थे,
जिन्होंने अपनी रचना में नन्द वंश एवं मौर्य
वंश का उल्लेख किया है। इस काल के अन्य धार्मिक
ग्रन्थों में नन्दी का 'तिरुविलाईयादल पूर्णम्' नम्बि, आंडारनम्बि का 'तिरुमुलाई-कांडपूर्णम्'
तथा अमुदनार का 'रामानुज नुरदादि' हैं। तमिल काव्य में आगम वर्ग की कविताएं भगवान शिव की प्रशंसा में लिखी गयी हैं।
सांस्कृतिक
जीवन
चोल
साम्राज्य के विस्तार और उसके वैभव से उसके शासकों
के लिए तंजौर, गंगईकोंडचोलपुरम, कांची जैसे बड़े नगरों का निर्माण सम्भव हो
सका। शासकों ने अपने लिए बड़े-बड़े महल, जो बाग़ानों से
सुसज्जित थे, बनवाए। चोल शासकों ने पाँच और सात मंज़िली
इमारतें बनवायीं और उनके सरदारों के पास तीन से पाँच मंज़िले महल थे। दुर्भाग्यवश
उस काल की एक भी इमारत ऐसी नहीं बची है। चोलों की राजधानी गंगईकोंडचोलपुरम अब
तंजौर के निकट एक छोटा सा गाँव मात्र है। लेकिन इस युग के साहित्य से हमें चोल
शासकों और उनके मंत्रियों तथा बड़े व्यापारियों के विशाल महलों और उनके वैभव के
बारे में पता चलता है।
मन्दिर
स्थापत्य कला
चोल
सम्राटों के युग में दक्षिण भारत में मन्दिर स्थापत्य अपने शिखर पर था। इनके समय मन्दिर स्थापत्य में एक
नयी शैली का विकास हुआ। इस शैली को 'द्रविड़' कहते हैं। क्योंकि यह अधिकांश दक्षिण भारत में सीमित थी। इसकी प्रमुख
विशेषता यह थी कि, गर्भगृह, अर्थात्
प्रतिमा कक्ष के ऊपर एक के बाद एक कर पाँच से सात मंज़िलों तक का निर्माण होता था।
हर मंज़िल एक विशेष शैली में निर्मित होती थी जिसे 'विमान'
कहते थे। प्रतिमा कक्ष के सामने खम्बों वाला और सपाट छत का एक विशाल
हौल था, जिसे 'मंडप' के नाम से जाना जाता था। इसके खम्बों पर बारीक खुदाई होती थी। मंडप में
विशेष अवसरों पर सभाएँ होती थीं और 'देवदासियों' का नृत्य होता था। देवदासियाँ ऐसी स्त्रियों को कहते थे, जिन्हें देवताओं की
सेवा के लिए अर्पित कर दिया जाता था। कभी-कभी प्रतिमा कक्ष के चारों ओर एक गलियारा
होता था। ताकि भक्त लोग प्रतिमा की परिक्रमा कर सकें। इस गलियारे में भी कई
देवी-देवताओं की मूर्तियाँ होती थीं। मंडप तथा प्रतिमा कक्ष एक ऊँची दीवारों वाले
बहुत बड़े प्रांगण से घिरा रहता था, जिसमें प्रवेश के लिए
बड़े-बड़े दरवाज़े थे जो 'गोपुरम्' के
नाम से जाने जाते थे। समय के साथ विमानों को और ऊँचा करने का रिवाज बढ़ता गया,
प्रांगणों की संख्या दो या तीन तक बढ़ा दी गई तथा गोपुरम् और अधिक
भव्य होते गए। इस प्रकार मन्दिरों ने छोटे-मोटे महल अथवा शहरों का रूप धारण कर
लिया। जिसमें पुरोहित तथा
मन्दिर से सम्बन्धित अन्य लोग रहते थे। मन्दिरों को खर्चे के लिए कर-मुक्त भूमि का
अनुदान दिया जाता था। इसके अलावा धनी व्यापारी भी इन्हें दान देते थे। कुछ
मन्दिरों के पास तो इतनी सम्पत्ति हो गई कि, वे भी व्यापार
और ऋण देने का काम करने लगे।
द्रविड़ शैली के आरम्भ के काल के मन्दिर स्थापत्य का उदाहरण हमें कांची में कैलाशनाथार
मंदिर में मिलता है। इसका उत्कृष्ट उदाहरण हमें तंजावुर में राजराज
प्रथम द्वारा निर्मित 'बृहदीश्वर
मन्दिर' में मिलता है। इसे राजराज मन्दिर कह कर पुकारा जाता
है। क्योंकि चोल सम्राट मन्दिरों में देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के अलावा अपनी तथा
रानियों की मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठापित करते थे। गंगाईकोंडाचोलापुरम् के मन्दिर में
भी, यद्यपि यह टूटी-फूटी स्थिति में है, हमें चोल सम्राटों के काल के मन्दिर स्थापत्य शैली का अच्छा उदाहरण देखने
को मिलता है। दक्षिण भारत के
अन्य जगहों में भी बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण कराया गया। लेकिन चोल
सम्राटों ने ऐसे कार्यों को पड़ोसी राज्यों की जनता को लूटकर किया।
चोलों
के पतन के बाद चालुक्यों और होयसलों ने मन्दिर निर्माण का काम जारी रखा। धारवार ज़िले तथा होयसलों की राजधानी 'हेलेबिड' में कई मन्दिर हैं। इनमें सबसे भव्य 'होयसलेश्वर मन्दिर' है। चालुक्य शैली का यह सबसे
अच्छा उदाहरण है। मन्दिर में देवी-देवताओं और उनके परिचारकों, यक्ष और यक्षिणी की मूर्तियों के अलावा ऐसे
चित्रपट्ट हैं जिन पर जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे नृत्य कला, संगीत, युद्ध
और प्रणय के दृश्य तराशे हुए हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि जीवन और धर्म में बहुत गहरा सम्बन्ध था। आम आदमी के लिए
मन्दिर मात्र पूजा का स्थान
नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का भी केन्द्र था।
इस
युग में दक्षिण भारत में वास्तु कला भी बड़ी विकसित थी। इसका एक उदाहरण हमें श्रावण बेलगोला में 'गोमतेश्वर'
की विशाल प्रतिमा में मिलता है। इस युग में प्रतिमा गढ़ने की कला भी
अपने शिखर पर थी, जैसा कि हम नृत्य की मुद्रा में शिव, नटराज,
की प्रतिमा में देखते हैं। इस काल की नटराज की प्रतिमाएँ, विशेषकर जो कांस्य में गढ़ी गई हैं, इस काल की
उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ये मूर्तियाँ भारतीय तथा विदेशी संग्रहालयों की शोभा हैं।
चोल
साम्राज्य का पतन
चोल
साम्राज्य के अंतिम शासक कुलोत्तुंग द्वितीय के उत्तराधिकारी निर्बल थे। वे अपने राज्य को अक्षुण्ण बना रखने में असफल
रहे। सुदूर दक्षिण में पाण्ड्य, केरल और सिंहल (श्रीलंका) राज्यों में विद्रोह की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई थी और वे चोलों की अधीनता
से मुक्त हो गए। समुद्र पार के जिन द्वीपों व प्रदेशों पर राजेन्द्र प्रथम द्वारा आधिपत्य स्थापित किया
गया था, उन्होंने भी अब स्वतंत्रता प्राप्त कर ली।
द्वारसमुद्र के होयसाल और
इसी प्रकार के अन्य राजवंशों के उत्कर्ष के कारण चोल राज्य अब सर्वथा क्षीण हो
गया। चोलों के अनेक सामन्त इस समय निरन्तर विद्रोह के लिए तत्पर रहते थे, और चोल राजवंश के
अन्तःपुर व राजदरबार भी षड़यत्रों के अड्डे बने हुए थे। इस स्थिति में चोल राजाओं
की स्थिति सर्वथा नगण्य हो गई थी।
·
उरवप्पहर्रे इलन जेत चेन्नी चोल राजवंश का प्रथम शासक था।
·
उसने अपनी राजधानी 'उरैपुर' में स्थापित की थी।
·
वैलिर वंश से उसके वैवाहिक सम्बन्ध
थे।
·
वह युद्ध में प्रयुक्त होने वाले
अपने सुन्दर रथों के लिए प्रसिद्ध था।
·
करिकाल प्रारम्भिक चोल शासकों
में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक था।
·
इसे 'जले हुए
पैरों वाला' कहा गया है।
·
अनुमानतः इस शासक ने 190 ई. में शासन किया था।
·
इस साम्राज्य विस्तारवादी शासक ने
अपने शासन के आरम्भिक वर्षों में 'वण्णि' नामक स्थान पर 'बेलरि' तथा अन्य
ग्यारह शासकों की संयुक्त सेना को पराजित कर प्रसिद्धि प्राप्त की थी।
·
उसकी दूसरी महत्त्वपूर्ण सफलता थी- 'वहैप्परन्लई' के 9 छोटे-छोटे
शासकों की संयुक्त सेना को पराजित करना।
·
इस प्रकार करिकाल ने पूरे तमिल प्रदेश को अपनी भुजाओं के पराक्रम के
द्वारा अपने अधीन कर लिया था।
·
उसके शासनकाल में पाण्ड्य साम्राज्य एवं चेर वंश के शासक महत्त्वहीन हो गये थे।
·
संगम साहित्य के अनुसार- करिकाल ने कावेरी नदी के मुहाने पर 'पुहार पत्तन' (कावेरीपट्नम)
की स्थापना की।
·
शक्तिशाली नौसेना रखने वाला करिकाल
शायद संगम युग को सबसे महान् एवं पराक्रमी शासक था।
·
‘पट्टिनप्पालै‘ कृति के उल्लेख के आधार पर ऐसा प्रतीत
होता है कि, करिकाल के समय में उद्योग तथा व्यापार उन्नति की
अवस्था में थे।
·
करिकाल ने पट्टिप्पालै के लेखक को 1,60,000 स्वर्ण मुद्रायें उपहार में दी थीं।
·
करिकाल सात स्वरों का ज्ञाता तथा वैदिक धर्म का अनुयायी था।
·
करिकाल के बाद उत्तराधिकार के लिए
गृह युद्ध हुआ। 'कोकर किलार' नामक कवि ने इस गृह युद्ध का काव्यात्मक
वर्णन किया है।
·
करिकाल के दो पुत्र 'नलन्गिल्लित' एवं 'नेडुंजेलि'
ने दो राजधानियों से अलग-अलग शासन किया।
·
बड़े पुत्र ने 'उरैयुर' से तथा छोटे पुत्र ने 'पुहार' से शासन किया।
·
इस वंश का करिकाल के बाद अन्तिम
महान् शासक 'नेडुजेलियन' था। उसने सफलतापूर्वक पाण्ड्यों तथा चेरों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।
·
उसकी मृत्यु युद्ध क्षेत्र में हुई।
उसकी प्रशंसा में संगम साहित्य में अनेक कविताओं का उल्लेख मिलता
है।
·
ईसा की तीसरी शताब्दी से 9वीं शताब्दी तक चोलों का इतिहास अंधेरे में था, पर 9वीं
शताब्दी के मध्य में ही चोल नरेश विजयालय ने चोल शक्ति का पुनः उद्धार किया।
·
विजयालय (850-875
ई.) ने 9वीं शताब्दी के मध्य लगभग 850ई. में चोल शक्ति का पुनरुत्थान किया।
·
विजयालय को चोल राजवंश का द्वितीय संस्थापक भी माना जाता
है।
·
आरम्भ में चोल पल्लवों के सामन्त थे।
·
विजयालय ने पल्लवों की अधीनता से
चोल मण्डल को मुक्त किया और स्वतंत्रतापूर्वक शासन करना शुरू किया।
·
उसने पाण्ड्य
साम्राज्य के शासकों से तंजौर (तंजावुर) को छीनकर 'उरैयूर' के
स्थान पर इसे अपने राज्य की राजधानी बनाया।
·
तंजौर को जीतने के उपलक्ष्य में
विजयालय ने 'नरकेसरी' की उपाधि धारण की थी।
- आदित्य प्रथम (875-907
ई.), विजयालय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।
- विजयालय
के बाद आदित्य प्रथम लगभग 875 ई. में चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा।
- उसने पल्लव नरेश अपराजित को पाण्ड्य नरेश
'वरगुण' के ख़िलाफ़ संघर्ष में
सैनिक सहायता दी थी।
- इस
सैनिक सहायता के बल पर इस संघर्ष में नरेश अपराजित विजयी हुआ, किन्तु कालान्तर में आदित्य प्रथम ने अपनी साम्राज्य विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षा के
वशीभूत होकर अपराजित को एक युद्ध में पराजित कर उसकी हत्या कर दी और इस तरह
पल्लव राज्य पर चोलों का अधिकार हो गया।
- इसके
फलस्वरूप 895
ई. के लगभग कांची पर भी चोलों का क़ब्ज़ा हो गया और सम्पूर्ण पल्लव राज्य पूरी तरह से
चोलों की अधीनता में ले लिया गया।
- पल्लवों
की पराजय के कारण आदित्य के चोल राज्य की उत्तरी सीमा दक्षिणापथ पति राष्ट्रकूटों के राज्य की सीमा के साथ आ
लगी।
- पल्लवों
के अतिरिक्त उसने पाण्ड्यों एवं कलिंग देश के गंगों को
भी पराजित किया और 'मदुरैकोण्ड' की
उपाधि धारण की।
- 949
ई. में राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने पश्चिमी गंगों की सहायता से चोलों पर आक्रमण कर दिया।
- इस
आक्रमण से 'तक्कोलम' के युद्ध में चोल बुरी तरह पराजित
हुये तथा साम्राज्य का उत्तरी भाग राष्ट्रकूट साम्राज्य में मिल गया।
चोल राजवंश (9वीं से 12वीं शताब्दी तक)
·
चोलों के विषय में प्रथम जानकारी पाणिनी कृत अष्टाध्यायी से मिलती है।
·
चोल वंश के विषय में जानकारी के
अन्य स्रोत हैं - कात्यायन कृत 'वार्तिक',
'महाभारत', 'संगम साहित्य', 'पेरिप्लस ऑफ़ दी इरीथ्रियन सी' एवं टॉलमी का उल्लेख आदि।
·
चोल राज्य आधुनिक कावेरी नदी घाटी, कोरोमण्डल,
त्रिचनापली एवं तंजौर तक विस्तृत था।
·
यह क्षेत्र उसके राजा की शक्ति के
अनुसार घटता-बढ़ता रहता था।
·
इस राज्य की कोई एक स्थाई राजधानी
नहीं थी।
·
साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है
कि,
इनकी पहली राजधानी 'उत्तरी मनलूर' थी।
·
कालान्तर में 'उरैयुर' तथा 'तंजावुर' चोलों की राजधानी बनी।
·
चोलों का शासकीय चिह्न बाघ था।
·
चोल राज्य 'किल्लि', 'बलावन', 'सोग्बिदास'
तथा 'नेनई' जैसे नामों
से भी प्रसिद्व है।
·
भिन्न-भिन्न समयों में 'उरगपुर' (वर्तमान 'उरैयूर',
'त्रिचनापली' के पास) 'तंजोर'
और 'गंगकौण्ड', 'चोलपुरम'
(पुहार) को राजधानी बनाकर इस पर विविध राजाओं ने शासन किया।
·
चोलमण्डल का प्राचीन इतिहास स्पष्ट
रूप से ज्ञात नहीं है।
·
पल्लव वंश के राजा उस पर बहुधा आक्रमण करते रहते थे, और उसे
अपने राज्य विस्तार का उपयुक्त क्षेत्र मानते थे।
·
वातापी के चालुक्य राजा भी
दक्षिण दिशा में विजय यात्रा करते हुए इसे आक्रान्त करते रहे।
·
यही कारण है कि, नवीं सदी के मध्य
भाग तक चोलमण्डल के इतिहास का
विशेष महत्त्व नहीं है, और वहाँ कोई ऐसा प्रतापी राजा नहीं
हुआ, जो कि अपने राज्य के उत्कर्ष में विशेष रूप से समर्थ
हुआ हो।
- परान्तक प्रथम (907-835
ई.), आदित्य प्रथम की मृत्यु के बाद चोल राजवंश की राजगद्दी पर बैठा।
- उसने पाण्ड्य नरेश राजसिंह द्वितीय पर आक्रमण
कर पाण्ड्यों की राजधानी मदुरै पर अधिकार कर लिया।
- इसी
हार का बदला लेने के लिए पाण्ड्य नरेश ने श्रीलंका के शासक से सैनिक सहायता प्राप्त कर परान्तक के ख़िलाफ़ युद्ध किया।
- जिस
समय परान्तक सुदूर दक्षिण के युद्ध में व्याप्त था, कांची के पल्लव
कुल ने अपने लुप्त गौरव की पुनः प्रतिष्ठा का
प्रयत्न किया। पर चोलराज ने उसे बुरी तरह से कुचल डाला और भविष्य में पल्लवों
ने फिर कभी अपने उत्कर्ष का प्रयत्न नहीं किया।
- परान्तक
ने राजसिंह की संयुक्त सेना को पराजित कर 'मदुरैकोण्ड'
की उपाधि धारण की।
- यद्यपि
परान्तक पल्लवों का पराभव करने में सफल हो गया, पर
शीघ्र ही उसे एक नए शत्रु का सामना करना पड़ा।
- कालान्तर में उसे राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने पश्चिमी गंगों की सहायता से तक्कोलम के युद्ध में बुरी तरह परास्त किया।
- राष्ट्रकूट
राजा कृष्ण तृतीय (940-968) ने दक्षिण के इस नए
शत्रु का सामना करने के लिए विजय यात्रा प्रारम्भ की और कांची को एक बार फिर राष्ट्रकूट साम्राज्य
के अंतर्गत ला किया।
- पर
कृष्ण तृतीय केवल कांची की विजय से ही संतुष्ट नहीं हुआ, उसने दक्षिण दिशा में आगे बढ़कर तंजौर पर भी आक्रमण किया, जो इस समय चोल राज्य की
राजधानी था।
- तंजोर
को जीतकर उसने 'तैजजयुकोण्ड' की उपाधि धारण की और कुछ समय के
लिए चोल राज्य की स्वतंत्र सत्ता का अन्त कर दिया।
- राष्ट्रकूटों
की इस विजय से चोल साम्राज्य को गहरा आघात लगा था।
- चोलराज
परान्तक के पुत्र 'राजादित्य' ने राष्ट्रकूटों से युद्ध करते हुए
वीरगति प्राप्त की।
- राष्ट्रकूटों
के उत्कर्ष के कारण दसवीं सदी के मध्य भाग में चोलों की शक्ति बहुत मन्द पड़ गई थी।
- यही
कारण है कि,
परान्तक प्रथम के पश्चात् जिन अनेक राजाओं ने दसवीं सदी के अन्त तक तंजौर में शासन किया,
उनकी स्थिति स्थानीय राजाओं के समान थी।
- परान्तक
प्रथम ने भूमि का सर्वेक्षण कराया और अनेक यज्ञ करने एवं मंदिर बनवाने का भी श्रेय परान्तक को ही जाता है।
- उसके
'उत्तरमेरुर लेख' से चोलों के स्थानीय स्वशासन
की जानकारी मिलती है।
- परान्तक
प्रथम के मरने के बाद लगभग तीन दशक तक चोल राज्य दुर्बलता एवं अव्यवस्था को
शिकार रहा।
- परान्तक
प्रथम के बाद क्रमशः 'गंडरादित्य' (953 से 965 ई.) परान्तक द्वितीय (956 से 973 ई.) एवं 'उत्तम' चोल वंश
के शासक हुए।
- इनमें
सबसे योग्य परान्तक द्वितीय ही था।
कुन्दाबाई चोल वंश के राजा परान्तक द्वितीय की पुत्री तथा राजराज प्रथम (985-1014 ई.) की बड़ी बहन थी।
·
परान्तक द्वितीय (956-873
ई.) को चोल राजवंश के शासक 'सुन्दरचोल' के नाम से
भी जाना जाता था।
·
उसने तत्कालीन पाण्ड्य शासक 'वीर
पाण्ड्य' को चेबूर के मैदान में पराजित किया था।
राजराज प्रथम (985-1014 ई.) अथवा अरिमोलिवर्मन परान्तक द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी,
परान्तक द्वितीय के बाद चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा। उसके शासन के 30 वर्ष चोल
साम्राज्य के सर्वाधिक गौरवशाली वर्ष थे। उसने अपने पितामह परान्तक प्रथम की 'लौह
एवं रक्त की नीति' का पालन करते हुए 'राजराज'
की उपाधि ग्रहण की
सामरिक
अभियान
राजराज
प्रथम ने अपने शासन के 9वें वर्ष में सामरिक अभियान प्रारम्भ किया। इस अभियान के अन्तर्गत
सर्वप्रथम उसने चोल विरोधी गठबंधन में शामिल पाण्ड्य
साम्राज्य, चेर वंश एवं श्रीलंका के ऊपर आक्रमण किया। इस संयुक्त
मोर्चे को नष्ट करने के लिए उसने सर्वप्रथम चेर नरेश भास्करवर्मन को पराजित किया।
चेरों के बाद राजराज ने पाण्ड्य शासक अमर भुजंग को पराजित कर राजधानी मदुरै को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। उसने
सर्वप्रथम चेरों की नौसेना को कंडलूर में परास्त किया तथा इस विजय के उपलक्ष्य में
'माण्डलूर शालैकमरुत' की उपाधि ग्रहण
की।
सफलताएँ
पाण्ड्य
राज्य पर अधिकार के बाद राजराज प्रथम ने श्रीलंका के शासक महेन्द्र पंचम पर आक्रमण
कर उसकी राजधानी 'अनुराधापुरम' को बुरी तरह नष्ट कर दिया। इस अभियान
में राजराज ने अपने द्वारा जीते गये प्रदेश का नाम 'मामुण्डी
चोलमण्डलम' रखा एवं 'पोलोन्नरुवा'
को उसकी राजधानी बनाया तथा सम्भवतः इस विजय के बाद राजराज प्रथम ने 'जननाथमंगलम्' नाम रखा। इन विजयों के बाद राजराज ने
पश्चिमी गंगों के कुछ
प्रदेशों को जीत कर पश्चिमी चालुक्य नरेश सत्याश्रय पर
आक्रमण किया। सत्याश्रय ने चोलों को तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी किनारे से आगे नहीं बढ़ने दिया। अपने शासन के अन्तिम दिनों में
राजराज प्रथम ने मालदीव को
भी अपने अधिकार में कर दिया। राजराज प्रथम के काल में एक दूतमण्डल चीन गया था। 1000 ई. में
उसने भूराजस्व के निर्धारण के लिए भूमि का सर्वेक्षण कराया और स्थानीय स्वशासन को
प्रोत्साहन दिया।
धार्मिक
सहिष्णुता
राजराज
प्रथम ने शैव मतानुयायी होने के कारण 'शिवपादशेखर' की उपाधि धारण की। उसके द्वारा प्रचलित
सिक्कों पर 'कृष्ण मुरलीधर'
तथा 'विष्णु-पद-चिह्न' आदि
का अंकन विशेष उल्लेखनीय है। अपनी धार्मिक सहिष्णुता की नीति का परिचय देते हुए
उसने तंजौर के राजराजेश्वर
मंदिर की भित्तियों पर अनेक बौद्ध प्रतिमाओं का निर्माण कराया था। इसके अतिरिक्त उसने 'रविकुल मणिक्य', 'मुम्माडि चोलदेव', 'चोलमार्त्तण्ड', 'जयनगोण्ड' आदि
अनेक उपाधियां धारण कीं। उसने तंजौर में द्रविड़ शैली के अन्तर्गत विश्व प्रसिद्ध 'राजराजेश्वर' या 'बृहदीश्वर
मंदिर' का निर्माण करवाया। राजराज प्रथम ने अपने शासन के
दौरान चोल अभिलेखों का प्रारम्भ 'ऐतिहासिक प्रशस्ति' के साथ करवाने की प्रथा की शुरुआत की। उसने शैलेन्द्र शासक श्रीमार
विजयोत्तुंगवर्मन को नागपट्टम में 'चूड़ामणि' नामक बौद्ध बिहार बनाने की अनुमति दी और साथ ही इसके निर्माण में आर्थिक
सहायता भी दी। राजराज ने अपने धर्म सहिष्णु होने का परिचय राजराजेश्वर मंदिर की
दीवारों पर बौद्ध प्रतिमाओं का निर्माण करवा कर दिया। राजराज प्रथम ने पूर्वी चालुक्य नरेश विमलादित्य के साथ अपने पुत्री का
विवाह किया था।
·
राजेन्द्र प्रथम (1014-1044ई.) राजराज प्रथम का
पुत्र एवं उत्तराधिकारी 1014 ई. में चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा।
·
राजेन्द्र अपने पिता के समान ही साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का
था।
·
उसकी उपलब्धियों के बारे में सही
जानकारी 'तिरुवालंगाडु' एवं 'करंदाइ
अभिलेखों' से मिलती है।
·
अपने विजय अभियान के प्रारम्भ में
उसने पश्चिमी चालुक्यों, पाण्ड्यों एवं चेरों को पराजित
किया।
·
इसके बाद लगभग 1017 ई. में सिंहल (श्रीलंका) राज्य के विरुद्ध अभियान
में उसने वहां के शासक महेन्द्र पंचम को परास्त कर सम्पूर्ण सिंहल राज्य को अपने
अधिकार में कर लिया।
·
सिंहली नरेश महेन्द्र पंचम को चोल
राज्य में बंदी के रूप में रखा गया। यही पर 1029 ई. में उसकी
मृत्यु हो गई।
·
सिंहल विजय के बाद राजेन्द्र चोल ने
उत्तर पूर्वी भारतीय प्रदेशों को जीतने के लिए विशाल हस्ति सेना का इस्तेमाल किया।
·
राजेन्द्र प्रथम के सामरिक अभियानों
का महत्त्वपूर्ण कारनामा था- उसकी सेनाओं का गंगा नदी पार कर कलिंग एवं बंगाल तक पहुंच जाना।
·
कलिंग में चोल सेनाओं ने पूर्वी गंग शासक मधुकामानव को पराजित किया। सम्भवतः इस
अभियान का नेतृत्व 1022 ई. में विक्रम चोल द्वारा किया गया।
·
गंगा घाटी के अभियान की सफलता पर
राजेन्द्र प्रथम ने 'गंगैकोण्डचोल' की उपाधि धारण की तथा इस विजय की
स्मृति में कावेरी तट के
निकट 'गंगैकोण्डचोल' नामक नई राजधानी
का निर्माण करवाया।
·
उसने सिंचाई हेतु चोलगंगम नामक एक
बड़े तालाब का भी निर्माण करवाया।
·
राजेन्द्र प्रथम ने अरब सागर स्थित सदिमन्तीक नामक द्वीप पर भी
अपना अधिकार स्थापित किया। चोल शासक द्वारा यह पश्चिम का सर्वप्रथम अभियान था।
·
श्रीलंका को विजित कर राजेन्द्र ने पाण्ड्य तथा चेरों को परास्त
किया।
·
इन राज्यों पर अधिकार करने के
पश्चात् उसने अपने पुत्र राजाधिराज प्रथम को पाण्ड्य प्रदेश का वायसराय
(महामण्डलेश्वर) नियुक्त किया तथा उसे चोल पाण्ड्य की उपाधि दी।
·
राजेन्द्र प्रथम की सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण विजय 1025
ई. कडारम के श्रीविजय साम्राज्य के विरुद्ध थी।
·
राजेन्द्र प्रथम द्वारा बंगाल पर आक्रमण निश्चित रूप् से तमिल प्रदेश द्वारा प्रथम सैनिक अभियान था।
·
राजेन्द्र प्रथम ने श्री विजय
(शैलेन्द्र) शासक विजयोत्तुंगवर्मन को पराजित कर जावा, सुमात्रा एवं मलया प्रायद्वीप पर अधिकार कर
लिया।
·
उसने 'गंगैकोण्डचोल', 'वीर राजेन्द्र', 'मुडिगोंडचोल' आदि उपाधियाँ धारण की थीं।
·
महान विद्याप्रेमी होने के कारण ही
उसने पंडित चोल की उपाधि ग्रहण की। उसने दो बार अपना दूतमंडल भी चीन भी भेजा था।
·
उत्तरी भारत की विजय यात्रा में जिन राज्यों को
राजेन्द्र ने आक्रान्त किया, उनमें कलिंग, दक्षिण कोशल, दण्डभुक्ति
(बालासोर और मिदनापुर) राढ, पूर्वी बंगाल और गौढ़ के नाम
विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
·
उत्तर-पूर्वी भारत में इस समय पालवंशी राजा महीपाल का शासन था। राजेन्द्र ने
उसे पराजित किया, और गंगा नदी के तट पर पहुँचकर 'गगैकोंण्ड' की
उपाधि धारण की।
·
उत्तरी भारत में स्थायी रूप से शासन
करने का प्रयास राजेन्द्र ने नहीं किया।
·
अपने साम्राज्य का विस्तार कर
चोलराज्य ने समुद्र पार भी अनेक आक्रमण किए, और पेगू (बरमा) के
राज्य को जीत लिया।
·
निःसन्देह, राजेन्द्र प्रथम अनुपम वीर और विजेता था। उसकी शक्ति केवल स्थम में ही
प्रकट नहीं हुई, नौ-सेना द्वारा उसने समुद्र पार भी विजय
यात्राएँ कीं।
राजाधिराज
प्रथम (1044-1052
ई.)
·
राजेन्द्र प्रथम का पुत्र था और उसके बाद राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी था।
·
उसकी शक्ति का उपयोग प्रधानतया उन
विद्रोहों को शान्त करने में हुआ, जो उसके विशाल साम्राज्य में
समय-समय पर होते रहते थे।
·
विशेषतया, पाड्य, चेर वंश और
सिंहल (श्रीलंका) के राज्यों ने राजाधिराज के शासन काल में
स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, पर चोलराज ने उन्हें बुरी
तरह से कुचल डाला।
·
उसका सर्वप्रथम संघर्ष कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों से हुआ।
·
राजाधिराज ने तत्कालीन चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल को पराजित कर चालुक्य
राजधानी कल्याणी पर अधिकार कर लिया।
·
इस विजय के उपलक्ष्य में राजाधिराज
ने अपना 'वीरभिषेक' करवाकर 'विजय
राजेन्द्र' की उपाधि ग्रहण की थी।
·
राजधानी कल्याणी की विजय स्मृति के
रूप में वहां से एक 'द्वार पालक की मूर्ति' लाकर राजाधिराज ने उसे तंजौर नगर के 'रासुरम'
नामक स्थान पर स्थापित करवाया।
·
कालान्तर में लगभग 1050 ई. में सोमेश्वर ने चोल सेनाओं को अपने प्रदेश से बाहर खदेड़ दिया और साथ
ही वेंगी के शासक राजाराम को
अपनी अधीन कर लिया।
·
कोप्पम के युद्ध (1052-54ई.) में चालुक्य नरेश सोमेश्वर बुरी तरह पराजित हुआ, पर इस युद्ध में लड़ते समय बुरी तरह घायल होने के कारण राजाधिराज की
मृत्यु युद्ध क्षेत्र में हो गई।
·
तत्पश्चात् राजाधिराज के छोटे भाई राजेन्द्र द्वितीय ने युद्ध क्षेत्र में ही
अपना राज्याभिषेक सम्पन्न करवाया।
राजेन्द्र द्वितीय (1052-1064 ई.)
चोल सम्राट राजेन्द्र
प्रथम (1014-1044 ई.) का द्वितीय पुत्र और राजाधिराज (1044-1052 ई.) का छोटा भाई था।
कोप्पम के युद्ध में जब राजेन्द्र द्वितीय का बड़ा भाई राजाधिराज कल्याणी के शासक सोमेश्वर
आहवमल्ल के द्वारा मारा गया, तब
वहीं रणभूमि में ही राजेन्द्र द्वितीय ने अपने भाई का मुकुट सिर पर धारण कर लिया
और युद्ध जारी रखा।
अक्षुण
साम्राज्य
राजाधिराज की मृत्यु के बाद उसके छोटे भाई राजेन्द्र द्वितीय ने रणक्षेत्र में ही चोल राजवंश के राजमुकुट को अपने सिर पर धारण कर
लिया और चालुक्य राजा
सोमेश्वर आहवमल्ल के साथ युद्ध जारी रखा। इन युद्धों में किसकी विजय हुई, यह निश्चित कर सकना सम्भव नहीं है, क्योंकि सोमेश्वर
और राजेन्द्र द्वितीय दोनों ने ही अपनी प्रशस्तियों में अपनी-अपनी विजयों का
उल्लेख किया है। सम्भवतः इन युद्धों में न चालुक्य राजा चोलों को परास्त सके और न
ही राजेन्द्र द्वितीय चालुक्यों को। वैसे राजेन्द्र द्वितीय ने चोलों की सत्ता और
प्रतिष्ठा को पूर्ववत ही बनाये रखा और उसे क्षीण नहीं होने दिया।
उपाधि
राजेन्द्र
द्वितीय की उपाधि 'प्रकेसरी' थी। उसके समय में भी चोल-चालुक्य संघर्ष अपनी चरम सीमा पर था।
राजेन्द्र द्वितीय ने 'कुंडलसंगमम्' में
चालुक्य सेना को पराजित किया था। सोमेश्वर प्रथम ने कुंडलसंगमम् के युद्व में
पराजित होने के पश्चात् नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली। उसने अपनी लड़की का विवाह पूर्वी चालुक्य नरेश राजेन्द्र के साथ
किया था।
·
राजेन्द्र द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई वीर
राजेन्द्र (1064-1070 ई.) गद्दी पर बैठा।
·
उसने लगभग 1060 ई. में अपने परम्परागत शत्रु पश्चिमी चालुक्यों को ‘कुडलसंगमम्’ के मैदान में
पराजित किया।
·
इस विजय के उपलक्ष्य में वीर
राजेन्द्र ने तुंगभद्रा नदी के किनारे एक विजयस्तम्भ की
स्थापना करवाई।
·
पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य के
ख़िलाफ़ एक अन्य अभियान में कम्पिलनगर को जीतने के उपलक्ष्य में 'करडिग ग्राम' में एक और विजयस्तम्भ स्थापित करवाया
था।
·
वीर राजेन्द्र ने सोमेश्वर द्वितीय के छोटे भाई विक्रमादित्य षष्ठ, जो कि सोमेश्वर द्वितीय के
विरुद्ध था, के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर पश्चिमी
चालुक्यों के साथ सम्बन्धों के नए अध्याय की शुरुआत की।
·
उसने सिंहल (श्रीलंका) नरेश विजयबाहु प्रथम के विरुद्ध सैनिक अभियान कर उसे पराजित कर वातगिरि
में शरण लेने के लिए बाध्य किया।
·
वीर राजेन्द्र के द्वारा कडारम् को
जीतने का भी प्रयास किया गया था।
·
वीर राजेन्द्र ने 'राजकेसरी' की उपाधी धारण की थी।
- वीर
राजेन्द्र की मृत्यु के बाद अधिराजेन्द्र (1070
ई.) चोल की
गद्दी पर बैठा।
- अधिराजेन्द्र
परान्तक का वंशधर था।
- वह चोल साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण रखने
में असमर्थ रहा।
- अधिराजेन्द्र शैव धर्म का अनुयायी था और प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रामानुज से इतना द्वेष करता था कि, रामानुज को उसके
राज्य काल में श्रीरंगम छोड़कर अन्यत्र चले जाना पड़ा।
- उसके
शासन काल में सर्वत्र विद्रोह शुरू हो गए और इन्हीं के विरुद्ध संघर्ष करते
हुए अपने राज्य के पहले साल में ही उसकी मृत्यु हो गई।
- उसकी
मृत्यु के साथ ही विजयालय द्वारा स्थापित चोल वंश समाप्त हो गया।
- इस
अशांतिमय परिस्थिति का फ़ायदा उठाकर कुलोत्तुंग
प्रथम चोल राजसिंहासन पर बैठा।
- इसके
बाद का चोल इतिहास चोल-चालुक्य वंशीय इतिहास के नाम से जाना जाता है।
- वीर
राजेन्द्र की मृत्यु के बाद अधिराजेन्द्र (1070
ई.) चोल की
गद्दी पर बैठा।
- अधिराजेन्द्र
परान्तक का वंशधर था।
- वह चोल साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण रखने
में असमर्थ रहा।
- अधिराजेन्द्र शैव धर्म का अनुयायी था और प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रामानुज से इतना द्वेष करता था कि, रामानुज को उसके
राज्य काल में श्रीरंगम छोड़कर अन्यत्र चले जाना पड़ा।
- उसके
शासन काल में सर्वत्र विद्रोह शुरू हो गए और इन्हीं के विरुद्ध संघर्ष करते हुए
अपने राज्य के पहले साल में ही उसकी मृत्यु हो गई।
- उसकी
मृत्यु के साथ ही विजयालय द्वारा स्थापित चोल वंश समाप्त हो गया।
- इस
अशांतिमय परिस्थिति का फ़ायदा उठाकर कुलोत्तुंग
प्रथम चोल राजसिंहासन पर बैठा।
- इसके
बाद का चोल इतिहास चोल-चालुक्य वंशीय इतिहास के नाम से जाना जाता है।
कुलोत्तुंग
प्रथम (1070-1120
ई.)
चोल
राजवंश के सबसे पराक्रमी शासकों में से एक था। उसने चोल
साम्राज्य में व्यवस्था स्थापित करने के कार्य में
अदभुत पराक्रम प्रदर्शित किया था। इसके पूर्व शासक अधिराजेन्द्र के कोई भी सन्तान नहीं थी, इसलिए चोल राज्य के
राजसिंहासन पर वेंगि का
चालुक्य राजा कुलोत्तुंग प्रथम को बैठाया गया था। यह चोल राजकुमारी का पुत्र था।
शासन काल
अधिराजेन्द्र
के समय में अनेक राजवंश प्रबल होने शुरू हो गए थे, और उनके साथ
निरन्तर संघर्ष करते रहने के कारण चोल राजा की शक्ति क्षीण होनी प्रारम्भ हो गई थी,
किंतु कुलोत्तुंग के शासन काल में राज्य की शक्ति काफ़ी हद तक क़ायम
रही। उसने दक्षिण के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ को पराजित किया। इसका उल्लेख विल्हण के 'विक्रमांकदेवचरित' में
मिलता है। 1075-76 ई. में कुलोत्तंग ने कलचुरी शासक यशकर्णदेव को तथा 1100 ई. में कलिंग नरेश अनन्तवर्मा चोडगंग को पराजित किया।
सिंहली
नरेश से मित्रता
कुलोत्तुंग
के शासन काल में सिंहली (श्रीलंका) नरेश विजयबाहु ने
अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया था। कुलोत्तुंग ने उसकी स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप
न कर उससे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाकर सिंहली राजकुमार वीरप्पेरुमाल के साथ अपनी
पुत्री का विवाह करा लिया।
इस घटना की जानकारी बौद्ध ‘महावंश’ से मिलती है।
प्रशासन
कार्य
कुछ
युद्धों को छोड़कर कुलोत्तुंग प्रथम का शासन काल शान्ति एवं सुव्यवस्था का काल था।
उसने विस्तारवादी नीति की निरर्थकता का अनुभव करते हुए अपनी महत्त्वाकांक्षा की
नीति को तिलांजलि दे दी थी। राजराज प्रथम की तरह कुलोत्तुंग ने भी भूराजस्व निर्धारण के लिए भूमि का पुनः सर्वेक्षण
कराया। उसने व्यापार की प्रगति में बाधक चुंगियों तथा तटकरों को समाप्त कर दिया,
जिसके कारण उसे 'शुंगम्' (करों को हटाने वाला) की उपाधि मिली। कुलोतुंग प्रथम द्वारा प्रसारित चोलों के स्वर्ण सिक्कों पर उसकी कुछ उपाधियाँ जैसे- 'कटैकोण्डचोल'
तथा 'मलैनडुकोण्डचोलन' का
उल्लेख प्राप्त होता है।
अन्य
राज्यों की स्वतंत्रता
कुलोत्तंग
प्रथम के शासन के अन्तिम दिनों में वेंगी व मैसूर स्वतन्त्र
हो गये थे। इस समय कुलोत्तुंग का शासन केवल तमिल प्रदेश एवं कुल तेलुगू क्षेत्रों तक सीमित रह गया। उसने 72 व्यापारियों
के एक दूतमण्डल को 1077 ई. में चीन भेजा था। चोल लेखों में कुलोत्तुंग को ‘शुगम्तविर्त
चोल' (करों को हटाने वाला) कहा गया है।
विक्रम चोल (1120-1133
ई.)
कुलोत्तुंग प्रथम का पुत्र था। पिता की मृत्यु के बाद वह चालुक्य
साम्राज्य के राजसिंहासन पर आसीन हुआ था।
·
विक्रमादित्य षष्ठ के मरने के बाद विक्रम चोल ने पुनः वेंगी पर अधिकार कर लिया।
·
1133
ई. के लगभग उसने पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर
तृतीय को पराजित किया।
·
विक्रम चोल अपने पिता की नतियों एवं आदर्शों के बिल्कुल
प्रतिकूल प्रवृत्ति का था। वह धार्मिक दृष्टि से असहिष्णु प्रवृत्ति का व्यक्ति
था।
·
विक्रम चोल ने चिदंबरम् के नटराज
मंदिर को अपार दान दिया था।
·
उसने ‘अकलक’ एवं ‘त्याग समुद्र’
की उपाधियाँ धारण की थीं।
कुलोत्तुंग
द्वितीय (1133-1150
ई.)
विक्रम चोल का पुत्र था। वह अपने पिता के बाद चोल राजवंश का
अगला राजा नियुक्त हुआ था।
·
कुलोत्तुंग ने चिदम्बरम मंदिर के
विस्तार एवं प्रदक्षिणापथ को स्वर्णमंडित कराने के कार्य को जारी रखा।
·
चोल राजवंश के इस शासक ने चिदम्बरम
मंदिर में स्थित गोविन्दराज की मूर्ति को समुद्र में फिंकवा दिया।
·
इस शासक की कोई भी राजनीतिक उपलब्धि
नहीं थी।
·
कुलोत्तंग द्वितीय और उसके सामन्तों
ने 'ओट्टाकुट्टन', 'शेक्किलर' और 'कंबल' को संरक्षण दिया था।
·
कुलोत्तंग ने कुंभकोणम के निकट 'तिरुभुवन'
में 'कम्पोरेश्वर मंदिर' का निर्माण करवाया था।
कुलोत्तुंग
तृतीय (1205-1218
ई.)
चोल राजवंश के शासकों में से एक था। इसके शासनकाल में चोल
साम्राज्य के वैभव का अपकर्ष हो रहा था।
·
कुलोत्तुंग तृतीय चोल राज्य के वैभव
के अपकर्षकाल का शासक था।
·
पहले तो कुलोत्तुंग तृतीय ने पांड्य नरेश जटावर्मन कुलेश्वर को बुरी तरह
पराजित किया। बाद में उसने होयसल नरेश वल्लाल द्वितीय की सहायता से अपने राज्य पर अधिकार प्राप्त किया;
किंतु उसे पांड्य नरेश की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
·
उसकी ख्याति कुम्भकोणम के निकट त्रिभुवनम में 'कंपहरेश्वर का मंदिर' बनवाने के लिए हैं।
·
कुलोत्तुंग तृतीय के दरबार में रहने
वाले कवि कंबन का काल तमिल
साहित्य का स्वर्ण काल माना जाता है। कुलोत्तुंग के ही
शासन काल में कंबन ने 'रामावतारम्' की रचना की थी।
नयनार सातवीं एवं आठवीं सदी के तमिल भाषा के कवि या संगीतज्ञों में कोई भी हो सकते है। नयनार ने भगवान शिव के सम्मान में बहुत सुंदर भजनों की रचना की है। कवि ज्ञानसंबंदर, अप्पार एवं सुंदरमूर्ति को दक्षिण भारत के मंदिरों में संत के रूप में पूजा जाता है। नयनार अपने
वैष्णव प्रतिरूपों, 'आलवार', के लगभग
समकालीन थे। नयनारों के भजनों का संकलन 10वीं सदी में नांबी
अनर नांबी ने तेवरम के रूप में किया तथा दक्षिण भारतीय मंदिरों में गायन के लिए
उन्हें संगीतबद्ध किया। चोल राजा
राजराजा (985-1014) के एक शिलालेख में उनके द्वारा तंजावूर के महामंदिर में भजनों के गायन की शुरुआत का ज़िक्र है। अक्सर नयनारों से
संबद्ध किये जाने वाले, हालांकि शायद कुछ समय बाद के श्रेष्ठ
भक्ति कवि मणिक्कवसागर हैं, जिनके भजन तिरुवसगम के रूप में संकलित हैं।
वारियम व्यवस्था चोल साम्राज्य में प्रचलित थी। चोल कालीन शासन
व्यवस्था में 'वारियम' एक प्रकार की
कार्यकारिणी समिति थी।
·
वारियम की सदस्यता हेतु 35 से 70 वर्ष के बीच
तक के व्यक्तियों को अवसर दिया जाता था।
·
यह भी आवश्यक था कि सदस्यता लेने
वाला व्यक्ति कम-से-कम डेढ़ एकड़ भूमि का मालिक एवं वैदिक
मंत्रों का ज्ञाता हो।
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उपरोक्त अर्हताओं को पूरा करके चुने
गये 30
सदस्यों में से 12 ज्ञानी व्यक्तियों को
वार्षिक समिति 'सम्वत्सर वारियम्' के
लिए चुना जाता था और शेष बचे 18 सदस्यों में 12 उद्यान समिति के लिए एवं 6 को तड़ाग समिति के लिए
चुना जाता था।
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सभी की बैठक गांव में मन्दिर के वृक्ष के नीचे एवं तालाब के
किनारे होती थी।
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