गुर्जर प्रतिहार वंश
गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने 725 ई.
में की थी। उसने राम के भाई लक्ष्मण को अपना पूर्वज बताते हुए अपने वंश को सूर्यवंशकी शाखा सिद्ध किया। अधिकतर गुर्जर सूर्यवंश का होना सिद्द करते है तथा गुर्जरो के शिलालेखो पर अंकित सूर्यदेव की कलाकृर्तिया भी इनके सूर्यवंशी
होने की पुष्टि करती है।आज भी राजस्थान में गुर्जर सम्मान से मिहिर कहे जाते हैं, जिसका अर्थ सूर्य होता है।
विद्वानों का मानना है कि इन
गुर्जरो ने भारतवर्ष को लगभग 300 साल तक अरब-आक्रन्ताओं से
सुरक्षित रखकर प्रतिहार (रक्षक)
की भूमिका निभायी थी, अत: प्रतिहार नाम से जाने जाने
लगे।।रेजर के शिलालेख पर प्रतिहारो ने स्पष्ट रूप से गुर्जर-वंश के होने की पुष्टि
की है।नागभट्ट प्रथम बड़ा वीर था। उसने सिंधकी ओर से
होने से अरबों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया। साथ ही दक्षिण के चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के आक्रमणों का भी प्रतिरोध किया और अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखा।
नागभट्ट के भतीजे का पुत्र वत्सराज इस वंश का प्रथम शासक था, जिसने सम्राट की पदवी धारण
की, यद्यपि उसने राष्ट्रकूट राजा
ध्रुवसे बुरी तरह हार खाई। वत्सराज के पुत्र नागभट्ट
द्वितीय ने 816 ई. के लगभग गंगा
की घाटी पर हमला किया, और कन्नौज पर अधिकार कर लिया। वहाँ के राजा को गद्दी से उतार दिया और वह अपनी
राजधानी कन्नौज ले आया।
यद्यपि नागभट्ट द्वितीय भी
राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय से पराजित हुआ, तथापि नागभट्ट के वंशज कन्नौज तथा आसपास के क्षेत्रों पर 1018-19 ई. तक शासन करते रहे। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज प्रथम था, जो कि मिहिरभोज के नाम से भी जाना जाता है और जो नागभट्ट द्वितीय का पौत्र
था। भोज प्रथम ने (लगभग 836-86 ई.) 50 वर्ष
तक शासन किया और गुर्जर साम्राज्य का विस्तार पूर्व में उत्तरी बंगाल से पश्चिम
में सतलुज तक हो गया। अरब व्यापारी सुलेमान इसी राजा भोज के समय में भारत आया था। उसने अपने यात्रा विवरण में राजी
की सैनिक शक्ति और सुव्यवस्थित शासन की बड़ी प्रशंसा की है। अगला सम्राट महेन्द्रपाल था, जो 'कर्पूरमंजरी' नाटक के रचयिता महाकवि राजेश्वर का
शिष्य और संरक्षक था। महेन्द्र का पुत्र महिपाल भी राष्ट्रकूट राजा इन्द्र तृतीय
से बुरी तरह पराजित हुआ। राष्ट्रकूटों ने कन्नौज पर क़ब्ज़ा कर लिया, लेकिन शीघ्र ही महिपाल ने पुनः उसे हथिया लिया। परन्तु महिपाल के समय में
ही गुर्जर-प्रतिहार राज्य का पतन होने लगा। उसके बाद के राजाओं–भोज द्वितीय, विनायकपाल, महेन्द्रपाल
द्वितीय, देवपाल, महिपाल द्वितीय और
विजयपाल ने जैसे-तैसे 1019 ई. तक अपने राज्य को क़ायम रखा।
देवपाल के शासन के अन्तिम दिनों में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य की शक्ति बढ़ने लगी।
महमूद
ग़ज़नवी के हमले के समय कन्नौज का शासक राज्यपाल था। राज्यपाल बिना लड़े ही भाग
खड़ा हुआ। बाद में उसने महमूद ग़ज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली। इससे आसपास के
गुर्जर राजा बहुत ही नाराज़ हुए। महमूद ग़ज़नवी के लौट जाने पर कालिंजर के चन्देल
राजा गण्ड के नेतृत्व में गुर्जर राजाओं ने कन्नौज के राज्यपाल को पराजित कर मार
डाला और उसके स्थान पर त्रिलोचनपाल को गद्दी पर बैठाया। महमूद के दोबारा आक्रमण करने पर कन्नौज फिर से उसके
अधीन हो गया। त्रिलोचनपाल बाड़ी में शासन करने लगा। उसकी हैसियत स्थानीय सामन्त
जैसी रह गयी। कन्नौज में गहड़वाल वंश अथवा राठौर वंश का
उद्भव होने पर उसने 11वीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में
बाड़ी के गुर्जर-प्रतिहार वंश को सदा के लिए उखाड़ दिया। गुर्जर-प्रतिहार वंश के
आन्तरिक प्रशासन के बारे में कुछ भी पता नहीं है। लेकिन इतिहास में इस वंश का
मुख्य योगदान यह है कि इसने 712 ई. में सिंध विजय करने वाले
अरबों को आगे नहीं बढ़ने दिया।
व्यवस्थापक, शक्तिशाली शासक राजा भोज
प्रतिहार
साम्राज्य का वास्तविक व्यवस्थापक, उस वंश का सबसे
अधिक शक्तिशाली शासक राजा भोज था। हमें यह पता नहीं है कि भोज कब सिंहासन पर बैठा।
उसके प्रारम्भिक जीवन के बारे में हमें पता इसलिए नहीं है क्योंकि नागभट्ट द्वितीय
तथा राष्ट्रकूट शासक गोपाल तृतीय से पराजित होने के बाद प्रतिहार साम्राज्य का लगभग
विघटन हो गया था। भोज ने धीरे धीरे फिर साम्राज्य की स्थापना की। उसने कन्नौज पर 836
ई. तक पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया और जो गुर्जर प्रतिहार वंश के
अंत तक उसकी राजधानी बना रहा। राजा भोज ने गुर्जरत्रा (गुजरात क्षेत्र) (गुर्जरो
से रक्षित देश) या गुर्जर-भूमि (राजस्थान का कुछ भाग) पर भी पुनः अपना प्रभुत्व
स्थापित किया, लेकिन एक बार फिर गुर्जर प्रतिहारों को पाल
तथा राष्ट्रकूटों का सामना करना पड़ा। भोज देवपाल से पराजित हुआ लेकिन ऐसा लगता है
कि कन्नौज उसके हाथ से गया नहीं। अब पूर्वी क्षेत्र में भोज पराजित हो गया,
तब उसने मध्य भारत तथा दक्कन की ओर अपना ध्यान लगा दिया। गुजरात और मालवा पर विजय
प्राप्त करने के अपने प्रयास में उसका फिर राष्ट्रकूटों से संघर्ष छिड़ गया। नर्मदा के तट पर एक भीषण युद्ध हुआ। लेकिन भोज
मालवा के अधिकतर क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में सफल रहा। सम्भव है कि
उसने गुजरात के कुछ हिस्सों पर भी शासन किया हो। हरियाणा के करनाल ज़िले में
प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार भोज ने सतलज नदी के पूर्वी तट पर कुछ क्षेत्रों को भी अपने अधीन कर लिया था। इस अभिलेख में
भोज देव के शक्तिशाली और शुभ शासनकाल में एक स्थानीय मेले में कुछ घोड़ों के
व्यापारियों द्वारा घोड़ों की चर्चा की गई है। इससे पता चलता है कि प्रतिहार
शासकों और मध्य एशिया के बीच
काफ़ी व्यापार चलता था। अरब यात्रियों ने बताया कि गुर्जर प्रतिहार शासकों के पास
भारत में सबसे अच्छी अश्व सेना थी। मध्य एशिया तथा अरब के साथ भारत के व्यापार में
घोड़ों का प्रमुख स्थान था। देवपाल की मृत्यु और उसके परिणामस्वरूप पाल साम्राज्य
की कमज़ोरी का लाभ उठाकर भोज ने पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
दुर्भाग्यवश
हमें भोज के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। भोज का नाम कथाओं
में अवश्य प्रसिद्ध है। सम्भवतः उसके समसामयिक लेखक भोज के प्रारम्भिक जीवन की
रोमांचपूर्ण घटनाओं,
खोए हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के साहस, तथा कन्नौज की विजय से अत्यनत प्रभावित थे। किंतु भोज विष्णु का भक्त था और उसने 'आदिवराह' की पदवी ग्रहण की थी जो उसके सिक्कों पर भी
अंकित है। कुछ समय बाद कन्नौज पर शासन करने वाले परमार
वंश के राजा भोज, और प्रतिहार वंश के इस राजा भोज में अन्तर करने के
लिए इसे कभी-कभी 'मिहिर भोज' भी कहा
जाता है।
भोज
की मृत्यु सम्भवतः 885
ई. में हुई। उसके बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम सिंहासन पर
बैठा। महेन्द्रपाल ने लगभग 908-09 तक राज किया और न केवल भोज
के राज्य को बनाए रखा वरन् मगध तथा उत्तरी बंगाल तक उसका विस्तार किया। काठियावाड़,
पूर्वी पंजाब और अवध में भी इससे सम्बन्धित प्रमाण मिले हैं। महेन्द्रपाल ने कश्मीर नरेश से भी युद्ध किया पर हार कर उसे
भोज द्वारा विजित पंजाब के
कुछ क्षेत्रों को कश्मीर नरेश को देना पड़ा।
अल मसूदी के अनुसार
इस
प्रकार प्रतिहार नौवीं शताब्दी के मध्य से लेकिर दसवीं शताब्दी के मध्य, अर्थात् एक सौ वर्षों तक उत्तरी भारत में शक्तिशाली बने रहे। बग़दाद निवासी अल मसूदी 915-16 में गुजरात आया था और उसने
प्रतिहार शासकों, उनके साम्राज्य के विस्तार, और उनकी शक्ति की चर्चा की है। वह गुर्जर-प्रतिहार राज्य को अल-जुआर
(गुर्जर का अपभ्रंश) और शासक को 'बौरा'
पुकारता है। जो शायद आदिवराह का ग़लत उच्चारण है। यद्यपि यह पदवी
राजा भोज की थी, जिसका इस समय तक देहान्त हो चुका था। अल
मसूदी कहता है कि जुआर राज्य में 1,800,000 गाँव और शहर थे।
इसकी लम्बाई 2,000 किलोमीटर थी और इतनी ही इसकी चौड़ाई थी।
राजा की सेना के चार अंग थे और प्रत्येक अंग में सात लाख से लेकर नौ लाख सैनिक थे।
अल मसूदी कहता है कि उत्तर की सेना से यह नरेश मुलतान के शासक और उसके मित्रों से
युद्ध करता है, दक्षिण की सेना से राष्ट्रकूटों से तथा पूर्व
की सेना से पालों से संघर्ष करता है। इसके पास युद्ध के लिए प्रशिक्षित केवल 2,000
हाथी थे लेकिन अश्व सेना देश में सबसे अच्छी थी। प्रतिहार शासक साहित्य तथा ज्ञान को बहुत प्रोत्साहित करते
थे। महान् संस्कृत कवि और
नाटककार राजशेखर भोज के पौत्र महीपाल के दरबार में रहता था। प्रतिहारों ने कई
सुन्दर भवनों और मन्दिरों का निर्माण कर कन्नौज की शोभा बढ़ाई। आठवीं-नौवीं
शताब्दी के दौरान कई भारतीय विद्वान् बग़दाद के ख़लीफ़ों के दरबार में गए। इन्होंन
अरब में भारतीय विज्ञान, विशेषकर
गणित, बीजगणित तथा चिकित्सा शास्त्र का प्रचार किया। हमें उन
राजाओं के नाम का पता नहीं जो अपने दूतों और इन विद्वानों को बग़दाद भेजते थे।
प्रतिहार सिंध के अरब शासकों
के शत्रु के रूप में जाने जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि इस काल में भी
भारत और पश्चिम एशिया के बीच विद्वानों और वस्तुओं का आदान-प्रदान जारी रहा।
राष्ट्रकूट
नरेश इन्द्र तृतीय ने 915 और 918
ई. के मध्य में एक बार फिर कन्नौज पर धावा बोल दिया। इससे प्रतिहार
साम्राज्य कमज़ोर पड़ गया और सम्भवतः गुजरात पर राष्ट्रकूटों का अधिकार स्थापित हो
गया क्योंकि अल मसूदी कहता है कि प्रतिहार साम्राज्य की समुद्र तक पहुँच नहीं थी।
गुजरात, समुद्र के रास्ते होने वाले व्यापार का केन्द्र था
तथा उत्तरी भारत से पश्चिम एशिया को जाने वाली वस्तुओं का प्रमुख द्वार था। गुजरात
के हाथ से निकल जाने से प्रतिहारों को और भी धक्का लगा। महीपाल के बाद प्रतिहार
साम्राज्य का धीरे-धीरे पतन हो गया। एक और राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण तृतीय ने 963 ई.
में उत्तरी भारत पर आक्रमण कर प्रतिहार शासक को पराजित कर दिया। इसके शीघ्र बाद
प्रतिहार साम्राज्य का विघटन हो गया।
गुर्जर समाज, प्राचीन एवं राज्य करने वाले समाज में से एक है। गुर्जर अभिलेखो के अनुसार
ये सूर्यवंश या रघुवंश से
सम्बन्ध रखते हैं। प्राचीन महाकवि राजसेखर ने गुर्जरो को रघुकुल-तिलक तथा
रघुग्रामिणी कहा है।7वीं से 10वीं
शताब्दी के गुर्जर शिलालेखो पर सूर्यदेव की कलाकृतिया भी इनके सूर्यवंशी होने की पुष्टि करती है।राजस्थान में आज
भी गुर्जरो को सम्मान से मिहिर बोलते हैं, जिसका अर्थ सूर्य होता है। कुछ इतिहासकरो के अनुसार गुर्जर मध्य
एशिया के कॉकेशस क्षेत्र (अभी के आर्मेनिया और जॉर्जिया) से आए आर्य योद्धा थे। संस्कृत के विद्वानों के अनुसार, गुर्जर शुद्ध संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ शत्रु का नाश करने वाला अर्थात्
शत्रु विनाशक होता है।प्राचीन महाकवि राजशेखर ने
गुर्जर नरेश महिपाल को अपने महाकाव्य में दहाड़ता
गुर्जर कह कर सम्बोधित किया है।
गुर्जर साम्राज्य
इतिहास
के अनुसार 5वी सदी में भीनमाल गुर्जर साम्राज्य की राजधानी थी तथा इसकी स्थापना
गुर्जरो ने की थी। भरुच का साम्राज्य भी गुर्जरो के अधीन था। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग अपने लेखों में गुर्जर साम्राज्य
का उल्लेख किया है।
छठी
से 12
वीं सदी में गुर्जर कई जगह सत्ता में थे। गुर्जर-प्रतिहार वंश की
सत्ता कन्नौज से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात तक फैली थी। मिहिरभोज को गुर्जर-प्रतिहार वंश का बड़ा शासक माना जाता है
और इनकी लड़ाई बंगाल के पाल
वंश और दक्षिण-भारत के राष्ट्रकूट शासकों से होती रहती थी। 12वीं सदी के बाद प्रतिहार वंश का पतन होना शुरू हुआ और ये कई हिस्सों में
बँट गए। अरब आक्रान्ताओं ने गुर्जरो की शक्ति तथा प्रशासन की अपने अभिलेखों में
भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
इतिहासकार
बताते है कि मुग़ल काल से पहले तक राजस्थान तथा गुजरात,
गुर्जरत्रा (गुर्जरो से रक्षित देश) या गुर्जर-भूमि के नाम से जाना
जाता था।अरब लेखकों के अनुसार गुर्जर उनके सबसे भयंकर शत्रु थे तथा उन्होंने ये भी
कहा है कि अगर गुर्जर नहीं होते तो वो भारत पर 12वीं सदी से
पहले ही अधिकार कर लेते।
प्रतिहार वंश' को गुर्जर
प्रतिहार वंश (छठी शताब्दी से 1036 ई.) इसलिए कहा गया, क्योंकि ये गुर्जरों की ही एक शाखा थे, जिनकी उत्पत्ति गुजरात व दक्षिण-पश्चिम राजस्थान में हुई थी। प्रतिहारों के अभिलेखों में उन्हें श्रीराम के अनुज लक्ष्मण का वंशज बताया गया है, जो श्रीराम के लिए प्रतिहार
(द्वारपाल) का कार्य करता था। कन्नड़ कवि 'पम्प' ने महिपाल को 'गुर्जर राजा'
कहा है। 'स्मिथ' ह्वेनसांग के वर्णन के आधार पर उनका मूल स्थान आबू पर्वत के उत्तर-पश्चिम में स्थित भीनमल को मानते हैं। कुछ अन्य विद्वानों के
अनुसार उनका मूल स्थान अवन्ति था।
गुर्जर-प्रतिहार वंश के शासक
नागभट्ट प्रथम (730
- 756 ई.)
नागभट्ट
प्रथम गुर्जर प्रतिहार वंश का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष
था। इसे 'हरिशचन्द्र' के नाम से भी
जाना जाता था।
हरिशचन्द्र की दो पत्नियाँ
थीं- एक ब्राह्मण थी और दूसरी क्षत्रिय।
माना जाता है कि, ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न पुत्र 'माला' पर शासन कर रहा था तथा क्षत्रीय पत्नी से उत्पन्न पुत्र जोधपुर पर शासन कर रहा था।
किन्तु इस वंश का वास्तविक
महत्त्वपूर्ण राजा नागभट्ट प्रथम (730 - 756 ई.) था।
उसके विषय में ग्वालियर अभिलेख से जानकारी मिलती है, जिसके अनुसर उसने अरबों को सिंध से आगे नहीं
बढ़ने दिया।
इसी अभिलेख में बताया गया है
कि,
वह नारायण रूप
में लोगों की रक्षा के लिए उपस्थित हुआ था तथा उसे मलेच्छों का नाशक बताया गया है।
वत्सराज (783
- 795 ई.)
वत्सराज राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव धारावर्ष का समकालीन था। वह 'सम्राट' की
उपाधी धारण करने वाला गुर्जर प्रतिहार वंश का पहला शासक था। इसे प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक कहा जाता
है।
नागभट्ट प्रथम के दो भतीजे 'कक्कुक' एवं 'देवराज' के शासन के बाद देवराज का पुत्र वत्सराज (783-795
ई.) गद्दी पर बैठा।
वत्सराज के समय में ही कन्नौज के स्वामित्व के लिए त्रिदलीय संघर्ष
आरम्भ हुआ।
राजस्थान के मध्य भाग एवं उत्तर भारत के पूर्वी भाग को जीतकर वत्सराज ने अपने राज्य में मिला लिया।
उसने पाल वंश के शासक धर्मपाल को भी पराजित किया, पर वह राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव से पराजित हुआ।
नागभट्ट द्वितीय (795
- 833 ई.)
नागभट्ट
द्वितीय (795
से 833 ई.), वत्सराज का पुत्र एवं उसका उत्तराधिकारी था।
उसने गुर्जर प्रतिहार वंश की प्रतिष्ठा को बहुत आगे
बढ़ाया।
ग्वालियर अभिलेख के अनुसार उसने कन्नौज से चक्रायुध को भगाकर उसे अपनी राजधानी बनाया।
नागभट्ट द्वितीय ने सम्राट
की हैसियत से 'परभट्टारक', 'महाराजाधिराज' तथा
'परमेश्वर' आदि की उपाधियाँ धारण की
थीं।
मुंगेर के नजदीक उसने पाल वंश के शासक धर्मपाल को
पराजित किया था, परन्तु उसे राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय से
हार खानी पड़ी।
ग्वालियर अभिलेखों में
नागभट्ट द्वितीय को 'तुरुष्क', 'किरात', 'मत्स्य',
'वत्स' का विजेता कहा गया है।
चन्द्रप्रभास कृत 'प्रभावकचरित' से जानकारी मिलती है कि, नागभट्ट द्वितीय ने पवित्र गंगा नदी में जल समाधि के द्वारा अपना प्राण त्याग किया।
नागभट्ट द्वितीय के बाद कुछ
समय (833
से 836 ई.) के लिए उसका पुत्र रामभद्र गद्दी
पर बैठा।
रामभद्र को पाल वंश के शासक
से हार का मुँह देखना पड़ा।
मिहिरभोज (भोज प्रथम) (836 - 889 ई.)
भोज प्रथम अथवा 'मिहिरभोज' गुर्जर
प्रतिहार वंश का सर्वाधिक प्रतापी एवं महान् शासक था।
उसने पचास वर्ष (850 से 900
ई.) पर्यन्त शासन किया। उसका मूल नाम 'मिहिर'
था और 'भोज' कुल नाम
अथवा उपनाम था। उसका राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में नर्मदा, पूर्व
में बंगाल और पश्चिम में सतलुज तक विस्तृत था, जिसे
सही अर्थों में साम्राज्य कहा जा सकता है। भोज प्रथम विशेष रूप से भगवान विष्णु के वराह
अवतार का उपासक था, अत: उसने अपने
सिक्कों पर आदि-वराह को उत्कीर्ण कराया था।
प्रारम्भिक
संघर्ष
भोज प्रथम ने 836 ई. के लगभग कन्नौज को
अपनी राजधानी बनाया, जो आगामी सौ वर्षो तक प्रतिहारों की
राजधानी बनी रही। उसने जब पूर्व दिशा की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहा,
तो उसे बंगाल के पाल शासक धर्मपाल से पराजित होना पड़ा। 842 से 860 ई. के बीच उसे राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने भी पराजित किया। पाल वंश के शासक देवपाल की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी
नारायण को भोज प्रथम ने परास्त कर पाल राज्य के एक बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया।
उसका साम्राज्य काठियावाड़, पंजाब, मालवा तथा मध्य देश तक फैला था।
यात्री
विवरण
भोज प्रथम के शासन काल का विवरण अरब यात्री सुलेमान के यात्रा विवरण से मिलता है। अरब यात्री सुलेमान उसे 'बरुआ' कहता है। भोज प्रथम के बारे में सुलेमान लिखता
है कि-
"इस राजा के पास बहुत बड़ी
सेना है और अन्य किसी दूसरे राजा के पास उसकी जैसी सेना नहीं है। उसका राज्य जिह्म
के आकार का है। उसके पास बहुत अधिक संख्या में घोड़े और ऊंट है। भारत में भोज के राज्य के अतिरिक्त कोई दूसरा
राज्य नहीं है, जो डाकुओं से इतना सुरक्षित हो।"
उपाधियाँ
भोज प्रथम ने 'आदिवराह' एवं 'प्रभास' की उपाधियाँ धारण की थीं। उसने कई नामों से, जैसे- 'मिहिरभोज' (ग्वालियर अभिलेख
में), 'प्रभास' (दौलतपुर अभिलेख में),
'आदिवराह' (ग्वालियर चतुर्भुज अभिलेखों), चांदी के 'द्रम्म'
सिक्के चलवाए थे। सिक्कों पर निर्मित सूर्यचन्द्र उसके चक्रवर्तिन
का प्रमाण है। अरब यात्री
सुलेमान के अनुसार वह अरबों का स्वाभाविक शत्रु था। उसने पश्चिम में अरबों का
प्रसार रोक दिया था।
साम्राज्य
गुजरात के सोलंकी एवं त्रिपुरा के कलचुरी के संघ ने मिलकर भोज प्रथम की राजधानी धार पर दो ओर से आक्रमण कर राजधानी को नष्ट कर दिया था। भोज प्रथम के बाद शासक
जयसिंह ने शत्रुओं के समक्ष आत्मसमर्पण कर मालवा से अपने अधिकार को खो दिया। भोज प्रथम के साम्राज्य के अन्तर्गत मालवा, कोंकण, ख़ानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उसने उज्जैन की जगह अपने नई राजधानी धार को बनाया।
विद्या
तथा कला का संरक्षक
भोज प्रथम एक पराक्रमी शासक होने के
साथ ही विद्वान् एवं विद्या तथा कला का उदार संरक्षक था। अपनी विद्वता के कारण ही उसने 'कविराज'
की उपाधि धारण की थी। उसने कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथ, जैसे- 'समरांगण
सूत्रधार', 'सरस्वती कंठाभरण', 'सिद्वान्त
संग्रह', 'राजकार्तड', 'योग्यसूत्रवृत्ति',
'विद्या विनोद', 'युक्ति कल्पतरु', 'चारु चर्चा', 'आदित्य प्रताप सिद्धान्त', 'आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश', 'प्राकृत व्याकरण',
'कूर्मशतक', 'श्रृंगार मंजरी', 'भोजचम्पू', 'कृत्यकल्पतरु', 'तत्वप्रकाश',
'शब्दानुशासन', 'राज्मृडाड' आदि की रचना की। 'आइना-ए-अकबरी' के वर्णन के आधार पर माना जाता है कि, उसके राजदरबार
में लगभग 500 विद्धान थे।
भोज प्रथम के दरबारी कवियों में 'भास्करभट्ट', 'दामोदर मिश्र', 'धनपाल' आदि प्रमुख थे। उसके बार में अनुश्रति थी कि
वह हर एक कवि को प्रत्येक श्लोक पर एक लाख मुद्रायें प्रदान करता था।
उसकी मृत्यु पर पण्डितों को हार्दिक दुखः हुआ था, तभी एक
प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार- उसकी मृत्यु से विद्या
एवं विद्वान, दोनों निराश्रित हो गये।
निर्माण
कार्य
भोज प्रथम ने अपनी राजधानी धार को विद्या एवं कला के महत्त्वपूर्ण केन्द्र
के रूप में स्थापित किया था। यहां पर भोज ने अनेक महल एवं मन्दिरों का निर्माण
करवाया, जिनमें 'सरस्वती मंदिर'
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उसके अन्य निर्माण कार्य 'केदारेश्वर', 'रामेश्वर', 'सोमनाथ
सुडार' आदि मंदिर हैं। इसके अतिरिक्त भोज प्रथम ने भोजपुर नगर एवं भोजसेन नामक तालाब का भी
निर्माण करवाया था। उसने 'त्रिभुवन नारायण', 'सार्वभौम', 'मालवा चक्रवर्ती' जैसे
विरुद्ध धारण किए थे।
आदिवराह एक प्रसिद्ध उपाधि थी, जिसे कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार राजा मिहिर भोज (840-890 ई.) ने धारण किया था। मिहिर भोज के चाँदी के सिक्कों पर यह नाम अंकित मिलता है, जो उत्तरी भारत में बहुतायत से मिले हैं।
मिहिर भोज को भारत के प्रतापी राजाओं में गिना जाता है।
उसके सिक्को पर निर्मित 'सूर्यचन्द्र' उसके 'चक्रवर्तिन'
का प्रमाण है।
अरब यात्री सुलेमान के
अनुसार, 'वह अरबों का स्वाभाविक शत्रु था और उसने पश्चिम में
अरबों का प्रसार रोक दिया था।'
मिहिर भोज ने कई अन्य नामों
से भी उपाधियाँ धारण की थीं, जैसे- 'मिहिरभोज'
(ग्वालियर अभिलेख में), 'प्रभास' (दौलतपुर अभिलेख में), 'आदिवराह' (ग्वालियर चतुर्भुज अभिलेख में)।
महेन्द्र पाल (890
- 910 ई.)
महेन्द्र
पाल (890-910
ई.), मिहिरभोज का उत्तराधिकारी था। उसने गुर्जर प्रतिहार
साम्राज्य का विस्तार मगध एवं उत्तरी बंगाल तक
किया।
लेखों के अनुसार उसे 'परमभट्टारक', 'महाराजाधिराज' तथा
'परमेश्वर' कहा गया है।
उसे 'महेन्द्रपुह' और 'निर्भयनरेन्द्र'
के नामों से भी जाना जाता है।
वह कश्मीर के शासक शंकर
वर्मन से युद्ध में परास्त हुआ था।
महेन्द्र पाल के शासन काल
में प्रतिहार साम्राज्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई।
इसके काल में कन्नौज का गौरव अपने शिखर पर था।
राजशेखर के 'बाल रामायण' में कन्नौज की प्रशंसा इस प्रकार मिलती है, “उस पवित्र नगर के लोग नई कविता के समान लालित्यपूर्ण थे, वहां की स्त्रियों के वस्त्र मनमोहक थे तथा उनके गहनों, केश प्रशासन और बोली की नकल अन्य प्रदेश की स्त्रियां करती थीं।”
संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान् 'राजशेखर', महेन्द्रपाल के गुरु थे।
राजशेखर की प्रसिद्ध कृति
हैं- 'कर्पूर मञ्जरी', 'काव्य मीमांसा', 'विद्वशालभंजिका', 'बाल रामायण', 'भुवकोश' और 'हरिविलास'।
राजशेखर ने अपनी रचनाओं में
महेन्द्र पाल का वर्णन 'निर्भयराज' और 'निर्भय
नरेन्द्र' के रूप में किया है।
महिपाल (914
- 944 ई.)
महिपाल (910-940
ई.) महेन्द्र पाल के बाद गुर्जर प्रतिहार वंश का शासक था। महिपाल के शासन काल में लगभग 915-918 ई
में राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय ने कन्नौज पर आक्रमण कर नगर को उजाड़ दिया।
सम्भवतः उसके शासन काल के
दौरान (915-916
ई.) में ही बग़दाद निवासी 'अलमसूदी' गुजरात आया था।
अलमसूदी ने गुर्जर प्रतिहारों को 'अलगुर्जर'
एवं राजा को 'बौरा' कहा
था।
पुनः लगभग 963 ई. में कृष्ण तृतीय ने
गुर्जर प्रतिहार वंश के अधिकार से मध्य भारत के क्षेत्र को छीन लिया, इससे कन्नौज का केन्द्रीय
शक्ति के रूप में ह्मस हो गया।
राज्यपाल के समय तक गुर्जर
प्रतिहारों की शक्ति कन्नौज के आस-पास तक सिमट कर रह गयी।
1018 ई. में जब महमूद गज़नवी ने कन्नौज पर आक्रमण किया,
तो महिपाल कन्नौज छोड़कर भाग खड़ा हुआ।
इसके बाद उसने गंगा पार कर 'बारी'
में अपनी राजधानी बनाई।
उसके इस कायरपन से दुःखी
होकर चन्देल शासक गंडदेव ने उसकी हत्या कर दी तथा 'त्रिलोचन पाल' को राजा बनाया।
त्रिलोचन पाल बस एक नाममात्र
का ही शासक था।
1036 ई. में
राष्ट्रकूटों ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
अन्ततः प्रतिहारों के सामंत गुजरात के चालुक्य 'जेजाकभुक्ति' के चंदेल, ग्वालियर के 'कच्छपघात', मध्य भारत के कलचुरी, मालवा के परमार,
दक्षिण राजस्थान के गुहिल, शाकंभरी के चौहान आदि क्षेत्रीय स्तर पर स्वतन्त्र हो गये।
गुर्जर प्रतिहारों ने
विदेशियों के आक्रमण के समय भारत के द्वारपाल की भूमिका निभाई।
प्रतिहार शासकों के पास भारत
में सर्वोत्तम अश्वरोही सैनिक थे। उस समय मध्य एशिया और अरब से घोड़ों का
आयात व्यापार का एक महत्त्वपूर्ण अंग था।
गुर्जर प्रतिहार के अधीन ब्राह्मण धर्म का अत्यधिक विकास हुआ। वैष्णव सम्प्रदाय सबसे अधिक प्रचलित था।
बौद्ध धर्म अपने अवनति पर था। जैन धर्म मुख्यतः राजपूताना एवं
पश्चिमी भारत तक ही सीमित था। इस बात में सोमेश्वर ने चण्डकौशिक की रचना की।
यशपाल इस वंश का अंतिम शासक
था। 1036
राष्ट्रकूटों ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
भोज द्वितीय
भोज
द्वितीय, भोज प्रथम का
पौत्र था। उसने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य पर सिर्फ़ दो-तीन वर्ष (908-10 ई.) की अल्प अवधि तक ही राज्य किया।
विनायकपाल
महेन्द्रपाल द्वितीय
देवपाल (940
- 955 ई.)
देवपाल, कन्नौज के प्रतिहार वंश का
एक राजा, जिसने 940 से 955 ई. तक शासन किया।
उसके शासनकाल में प्रतिहारों
की शक्ति क्षीण होने लगी थी।
चन्देल वंश के राजा यशोवर्मा ने
उसे पराजित किया था।
यशोवर्मा ने देवपाल को विष्णु की एक बहुमूल्य मूर्ति समर्पित करने के
लिए बाध्य किया।
इस मूर्ति को फिर खजुराहो के
मन्दिर में प्रतिष्ठित किया गया था।
महिपाल द्वितीय
विजयपाल
राज्यपाल
यशपाल
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