जैन धर्म
जैन धर्म के संस्थापक को तीर्थंकर कहा जाता है। जैन
धर्म में 24 तीर्थंकर हुए है। जिनमें प्रथम से 22 की एतिहासिकता संदिग्ध है।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव/ आदिनाथ
हुए, जिनका जन्म अयोध्या में हुआ माना जाता है।
23 वे तीर्थंकर
पार्श्वनाथ जिसे प्रथम ऐतिहासिक तीर्थंकर का माना जाता है।
24 वे तीर्थंकर
महावीर स्वामी जिनको वास्तविक संस्थापक माना जाता है जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक
माना जाता हैं।
जैन धर्म का महामंत्र णमोकार है।
पार्श्वनाथ- यहां जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर एवं प्रथम ऐतिहासिक तीर्थंकर थे।
यह
कांशी
के राजकुमार थे।
पार्श्वनाथ को सुमैद पर्वत पर ज्ञान की प्राप्ति हुई जो झारखंड में स्थित है।
पार्श्वनाथ के अनुयायियों को निर्ग्रंथ कहा जाता है।
पार्श्वनाथ ने जैन धर्म के पंच महाव्रत मे से प्रथम चार महाव्रत का प्रतिपादन किया।
महावीर स्वामी (जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक)
जन्म 599 ईसा पूर्व वैशाली के निकट कुंडल ग्राम
में।
मृत्यु 527
ईसा पूर्व पावा बिहार में ।
पिता का नाम सिद्धार्थ,
माता का नाम कृष्णा,
पत्नी का नाम यशोदा,
पुत्री का नाम प्रियदर्शना (अणोज्जा), दामाद का नाम जमाली।
इनके बचपन का नाम वर्तमान था, उपनाम निग्रंथ, केवलीन, जिन, निगठनाथ पुत्त।
महावीर स्वामी ने 30 वर्ष की अवस्था में गृह
त्याग दिया
एवं 12 वर्ष पश्चात 42 वर्ष की अवस्था में इन्हे जंभीय ग्राम मे ऋजुपलिका नदी के तट
पर ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात निग्रंथ, केवलीन, जिन, निगठनाथ पुत्त कहलाए।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात महावीर स्वामी ने
अपना प्रथम उपदेश श्रावस्ती में दिया।
प्रथम शिष्य जमाली एवं प्रथम शिष्या चांदना को बनाया।
नोट
जमाली ने
जैन धर्म का सबसे पहले विभाजन करवाया तथा बहुदेववाद चलाया।
जैन धर्म/ महावीर स्वामी की शिक्षाएं व सिद्धांत
1.
स्यादवाद का
सिद्धांत ( संपूर्ण ज्ञान का सिद्धांत)-
शायद है, शायद नहीं है,
शायद है नहीं है,
शायद कहा नहीं जा सकता,
शायद है किंतु कहा नहीं जा सकता,
शायद नहीं है किंतु कहा नहीं जा सकता,
शायद है नहीं है किंतु कहा नहीं जा सकता।
स्यादवाद जैन धर्म के संपूर्ण सिद्धांतों का मूल आधार है। इस सिद्धांत को
ज्ञान की अनेकता का सिद्धांत एवं ज्ञान का सापेक्षता का सिद्धांत एवं सप्तभंगीनय भी कहा जा सकता है।
इस
सिद्धांत के अनुसार साधारण मनुष्य ज्ञान अधूरा होता है, एवं ज्ञान
देश काल परिस्थितियों पर आधारित होता है, इसीलिए साधारण मनुष्य को
कुछ भी कहने से पहले शायद या स्याद शब्द का प्रयोग करना चाहिए ताकि विवादों से बचा जा सके।
2.
पंच महाव्रत/ पंच अणुव्रत
A. सत्य B. अहिंसा, C.
अस्तेय, D.
अपरिग्रह तथा E. ब्रह्मचर्य।
जैन धर्म में बंधनों से मुक्ति हेतु पंच महाव्रत
एवं पंच अणुव्रत का प्रतिपादन किया गया है।
पंच महाव्रत साधू सन्यासियों के लिए हैं। इसमें कठोरता पर बल दिया गया है। जबकि पंच
अणुव्रत ग्रस्त जीवन के लोगों के लिए है। इसमें कठोरता पर कम बल दिया गया है।
3. त्रिरत्न - जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति
हेतु 3 रत्नों का वर्णन किया गया है A. सम्यक दर्शन (दृष्टि), B. सम्यक ज्ञान तथा C.
सम्यक चरित्र।
4. अनेकांतवाद- अनेक आत्माओं के अस्तित्व को मानने वाला
सिद्धांत अनेकांतवाद कहलाता है और ऐसा मानने वाला जैन धर्म दुनिया का एकमात्र धर्म
है।
5. सल्लेखना (संथारा)- इस पद्धति में काया क्लेश पर बल दिया गया है
एवं व्रत व उपासना के द्वारा
भूखे-प्यासे रहते हुए शरीर को त्याग देना ही सल्लेखना / संथारा पद्धति कहलाती है।
प्राचीन भारत में चंद्रगुप्त मौर्य ने
श्रवणबेलगोला मैसूर कर्नाटक में इसी पद्धति के माध्यम से अपने प्राणों का त्याग
किया।
संथारा स्वेतांबर तथा सल्लेखना दिगंबर से संबंधित है।
6.
अनीश्वरवाद- ईश्वर के
अस्तित्व को नहीं मानने वाला सिद्धांत अनीश्वरवाद कहलाता हैं। जैन एवं बौद्ध धर्म ईश्वर को नहीं मानते हैं।
7.
बंधन का सिद्धांत- जीव +
कर्म (पुद्गल),
जीव//= कर्म
जीव व कर्मों का मिलना बंधन है तथा जीव व कर्मों का अलग होना मोक्ष कहलाता है। इसकी तीन स्थितियां है-
A. आस्राव-
अज्ञान के कारण कर्मों का जीव की ओर प्रवाहित होना ही जैन धर्म में आस्राव कहलाता है। यह बंधन की स्थिति है।
B. संवर- ज्ञान प्राप्ति के पश्चात
कर्मों का जीव की ओर प्रवाह रुक जाता है, यही स्थिति जैन धर्म में संवर कहलाती है और यह मोक्ष की स्थिति है।
C. निर्जरा- पूर्व जन्म के संचित कर्मों को
नष्ट करने की स्थिति ही जैन धर्म मे नीर्जरा कहलाती है मोक्ष के सर्वाधिक निकट स्थित है।
जैन धर्म का साहित्य-
आगम- (भाषा-
मागधी, अर्धमागधी,
प्राकृत)
जैन धर्म का प्राचीनतम साहित्य आगम कहलाता है,
जो प्राकृत, मागधी, अर्ध मागधी
भाषा में लिखा हुआ है। आगम के अंतर्गत अंग, उपांग, मूल सूत्र,
प्रकीर्ण ,
अनुयोग सूत्र इत्यादि आते हैं।
अन्य साहित्य-
1.
भगवती सूत्र- प्रथम बार 16 महाजनपदों का वर्णन मिलता है।
2.
कल्पसूत्र- भद्रबाहु द्वारा
रचित कानून संबंधी।
3.
परिशिष्ट पर्वन- हेमचंद्र।
4.
न्यायावतर- सिद्धसेन दिवाकर।
5.
स्यादवाद मंजरी- मल्लिसेन।
जैन धर्म की संगीतियां/ सभाएं
प्रथम
जैन संगीति पाटलिपुत्र नामक स्थल स्थूलभद्र की अध्यक्षता में 298 ईसा पूर्व
मैं संपन्न हुई। इस संगीति में अंग एवं उपांगो का संकलन हुआ। तथा दिगंबर और श्वेतांबर में जैन धर्म का विभाजन हुआ
द्वितीय जैन संगीति वल्लभी नामक स्थान पर देवर्धिगण क्षमाश्रमण
की अध्यक्षता में 513 ई0 में संपन्न हुई। इस संगीति में आगम का अंतिम संकलन हुआ।
जैन धर्म के संप्रदाय
दिगंबर- संस्थापक भद्रबाहु।
इस
संप्रदाय के अनुयाई वस्तुओं के परित्याग पर बल देते हैं।
इसमें महिलाओं का प्रवेश वर्जित है।
इसमें कठोर सिद्धांतों पर बल दिया गया है।
इसका प्रमुख केंद्र दक्षिण भारत में है।
श्वेतांबर- संस्थापक स्थूलभद्र।
इसमें श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।
इसमें महिलाओं के प्रवेश की अनुमति है।
इसमें उदारता पर बल दिया गया है।
इसका प्रमुख केंद्र उत्तर भारत में है।
नोट- महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद जैन संघ का
प्रथम अध्यक्ष सुधर्मन बना।
महावीर वेदों के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं
करते। वे व्रत, उपवास, तपस्या पर
अधिक बल देते हैं।
भगवान महावीर का प्रतीक चिन्ह सिंह है।
भगवान महावीर के 11 शिष्य थे गणधर या गंधर्व कहलाए।
निषिधी- जैनों द्वारा अपनाई गई
पारंपरिक मृत्यु क्रियाएं।
जैन
धर्म, कर्म,
कर्मफल, पुनर्जन्म में विश्वास करता
है।
जैन
धर्म हिंदुओं के सांख्य दर्शन के सबसे निकट है।
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Baudh Dharm
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