सातवाहन वंश (30 ईसा पूर्व से 250 ईसवी तक)-
इस वंश को आंध्र सातवाहन वंश भी कहते हैं। शुंग
वंश के पश्चात मध्य भारत में सातवाहन वंश
की स्थापना हुई इसका केंद्र आधुनिक आंध्र प्रदेश व महाराष्ट्र प्रदेश था। तथा
प्रतिष्ठान सातवाहनों की राजधानी थी।
पुराणों
में सातवाहनों को आंध्र तथा अभिलेखों में
सातवाहन कहा गया है। इसीलिए इस वंश को आंध्र सातवाहन वंश कहा जाता है। सातवाहन
साम्राज्य मौर्य साम्राज्य की शक्ति कमज़ोर पड़ जाने के
बाद अपने चरमोत्कर्ष पर पहूँचने लगा था। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद प्रतिष्ठान (गोदावरी नदी के तट पर स्थित पैठन) को राजधानी बनाकर सातवाहन
वंश ने अपनी शक्ति का उत्कर्ष प्रारम्भ किया। इस वंश का
प्रथम राजा सिमुक था, जिसने अपने
स्वतंत्र राज्य की नींव डाली थी। तीसरी सदी ई.पू. के अन्तिम चरण में प्रारम्भ होकर सातवाहनों का यह स्वतंत्र राज्य
चार सदी के लगभग तक क़ायम
रहा। भारत के इतिहास में
लगभग अन्य कोई राजवंश इतने दीर्घकाल तक अबाधित रूप से शासन नहीं कर सका। इस
सुदीर्घ समय में सातवाहन राजाओं ने न केवल दक्षिणापथ में स्थायी रूप से शासन किया, अपितु उत्तरापथ पर आक्रमण कर कुछ समय के लिए मगध को भी अपने अधीन कर लिया। यही कारण है,
कि पौराणिक अनुश्रुति में काण्व वंश के
पश्चात् आन्ध्र वंश के शासन
का उल्लेख किया गया है। सातवाहन वंश के अनेक प्रतापी सम्राटों ने विदेशी शक आक्रान्ताओं के विरुद्ध भी अनुपम सफलता प्राप्त की। दक्षिणापथ के इन
राजाओं का वृत्तान्त न केवल उनके सिक्कों और शिलालेखों से जाना जाता है, अपितु अनेक ऐसे साहित्यिक ग्रंथ भी
उपलब्ध हैं, जिनसे इस राजवंश के कतिपय राजाओं के सम्बन्ध में
महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं।
इतिहास
सातवाहन भारत का एक राजवंश था, जिसने
केन्द्रीय दक्षिण भारत पर शासन
किया। भारतीय परिवार, जो पुराणों (प्राचीन धार्मिक तथा किंवदंतियों का साहित्य) पर आधारित कुछ व्याख्याओं के
अनुसार, आंध्र जाति (जनजाति) का था और दक्षिणापथ अर्थात
दक्षिणी क्षेत्र में साम्राज्य की स्थापना करने वाला यह पहला दक्कनी वंश था।
सातवाहन वंश का संस्थापक सिमुक था। उसके बाद उसका भाई कृष्ण और फिर कृष्ण का पुत्र सातकर्णी प्रथम गद्दी
पर बैठा। इसी के शासनकाल में सातवाहन वंश को सबसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। वह, खारवेल का समकालीन था। उसने गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठान नगर को अपनी राजधानी बनाया। ये हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। साथ ही इन्होंने बौद्ध और जैन विहारों को भी सहायता प्रदान की। यह मौर्य वंश के पतन के बाद शक्तिशाली हुआ 8वीं सदी ईसा पूर्व में इनका उल्लेख मिलता है।
पौराणिक प्रमाणों के आधार पर सातवाहन वंश की उत्पति पहली शताब्दी ई.पू. के उत्तर
काल में बताई जाती है, लेकिन कुछ विद्वान इस वंश को तीसरी
शताब्दी ई.पू. का भी बताते हैं। आरंभ में सातवाहन वंश का शासन पश्चिमी दक्कन के
कुछ हिस्सों तक ही सीमित था। नाणेघाट, नासिक, कार्ले और कन्हेरी में मिले अभिलेख आरंभिक
शासकों सिमुक, कृष्णा और शतकर्णी 1 के
स्मृति चिह्न हैं।
सातवाहन वंश के शासक
पुराणों के अनुसार सिमुक का उत्तराधिकारी उसका भाई कृष्ण था,
जिसने 18 वर्ष तक राज्य किया। अगला
उत्तराधिकारी सातकर्णि था और
इसका राज्यकाल भी 18 वर्ष का था।
1. सिमुक
2. सातकर्णि
3. गौतमीपुत्र
सातकर्णि
4. वासिष्ठी
पुत्र पुलुमावि
5. कृष्ण
द्वितीय सातवाहन
6. राजा
हाल
7. महेन्द्र
सातकर्णि
8. कुन्तल
सातकर्णि
9. शकारि
विक्रमादित्य द्वितीय
सिमुक-
आंध्र
सातवाहन वंश का संस्थापक था। सिमुक भारत के इतिहास में प्रसिद्ध 'सातवाहन राजवंश' का संस्थापक था। पुराणों के अनुसार सिमुक ने कण्व वंश के अन्तिम राजा सुशर्मा को मार कर मगध के
राजसिंहासन पर अपना अधिकार स्थापित किया था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सातवाहन वंश
के अन्यतम राजा ने कण्व वंश का अन्त कर मगध को अपने साम्राज्य के अंतर्गत किया था।
शतकर्णी प्रथम-
सातवाहन वंश का प्रथम योग्य शासक था। इसकी जानकारी नागनिका, जो उनकी पत्नी थी के नाना घाट
अभिलेख से मिलती है। इस अभिलेख में भूमि अनुदान का प्रथम लिखित साक्ष्य मिलता है।
हाथी गुंफा एवं सांची अभिलेख से भी इसके बारे में जानकारी मिलती है।
- उसने सातवाहन राज्य का बहुत विस्तार किया।
- उसका
विवाह नायनिका या नागरिका नाम की कुमारी के साथ हुआ था, जो एक बड़े महारथी सरदार की दुहिता थी।
- इस
विवाह के कारण सातकर्णि की शक्ति बहुत बढ़ गई, क्योंकि
एक शक्तिशाली महारथी सरदार की सहायता उसे प्राप्त हो गई।
- सातकर्णि
के सिक्कों पर उसके श्वसुर अंगीयकुलीन महारथी त्रणकयिरो का नाम भी अंकित है।
- शिलालेखों
में उसे 'दक्षिणापथ' और 'अप्रतिहतचक्र'
विशेषणों से विभूषित किया गया है।
- अपने
राज्य का विस्तार कर इस प्रतापी राजा ने राजसूय
यज्ञ किया, और दो बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था,
क्योंकि सातकर्णी का शासनकाल मौर्य
वंश के ह्रास काल में था, अतः
स्वाभाविक रूप से उसने अनेक ऐसे प्रदेशों को जीत कर अपने अधीन किया होगा,
जो कि पहले मौर्य साम्राज्य के अधीन थे। अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान इन विजयों के उपलक्ष्य में
ही किया गया होगा।
- सातकर्णी
के राज्य में भी प्राचीन वैदिक धर्म का पुनरुत्थान हो रहा था।
- शिलालेखों
में इस राजा के द्वारा किए गए अन्य भी अनेक यज्ञों का उल्लेख है। इनमें जो
दक्षिणा सातकर्णि ने ब्राह्मण पुरोहितों में प्रदान की, उसमें अन्य वस्तुओं के साथ 47,200 गौओं,
10 हाथियों, 1000 घोड़ों, 1 रथ और 68,000 कार्षापणों का भी दान किया गया
था।
- इसमें
सन्देह नहीं कि सातकर्णी एक प्रबल और शक्ति सम्पन्न राजा था।
- कलिंगराज खारवेल ने विजय यात्रा करते हुए उसके
विरुद्ध शस्त्र नहीं उठाया था, यद्यपि हाथीगुम्फ़ा शिलालेख के अनुसार वह
सातकर्णी की उपेक्षा दूर-दूर तक आक्रमण कर सकने में समर्थ हो गया था।
- सातकर्णी
देर तक सातवाहन राज्य का संचालन नहीं कर सका। सम्भवतः एक युद्ध में उसकी
मृत्यु हो गई थी,
और उसका शासन काल केवल दस वर्ष (172 से 162
ई. पू. के लगभग) तक रहा था।
- अभी
उसके पुत्र वयस्क नहीं हुए थे। अतः उसकी मृत्यु के अनन्तर रानी नायनिका ने
शासन-सूत्र का संचालन किया।
- पुराणों में सातवाहन राजाओं को आन्ध्र और
आन्ध्रभृत्य भी कहा गया है। इसका कारण इन राजाओं
का या तो आन्ध्र की जाति का होना है, और या यह भी सम्भव
है कि इनके पूर्वज पहले किसी आन्ध्र राजा की सेवा में रहे हों।
- इनकी
शक्ति का केन्द्र आन्ध्र में न होकर महाराष्ट्र के प्रदेश में था।
- पुराणों
में सिमुक या सिन्धुक को आन्ध्रजातीय कहा गया है। इसीलिए इस वंश को आन्ध्र-सातवाहन की संज्ञा दी जाती है।
हाल-
यह सातवाहन वंश का एक प्रसिद्ध कवि, शासक, विद्वान एवं विद्वानों का आश्रयदाता था। इसने
प्राकृत भाषा में गाथा सप्तशती नामक ग्रंथ की रचना की। हाल के दरबार में दो
प्रसिद्ध विद्वान सर्ववर्मन एवं गुणाढ्य निवास करते थे। जिसमें सर्ववर्मन ने कातंत्र एवं गुणाढ्य वृहतकथा नामक ग्रंथ की रचना की।
गौतमीपुत्र सातकर्णि-
यह सातवाहन वंश का एक महान शासक था। जिसको
आगमन निलय (वेदों का आश्रयदाता), एक ब्राह्मण आदित्य ब्राह्मण की उपाधि दी गई है। इसका काल वैदिक धर्म एवं
वर्ण व्यवस्था के पुनर्स्थापन का काल था। इसलिए इसको वैदिक धर्म का पुनर
प्रतिष्ठापक एवं वर्ण व्यवस्था का पोषक
कहा जाता है। गौतमीपुत्र सातकर्णि ने शक शासक नहपान को पराजित किया। एवं
उसके चांदी के सिक्कों के स्थान पर स्वयं का नाम किरण करवाया
इसमें वेणकटक स्वामी (समुद्र का विजेता/
प्रशासक) की उपाधि धरण की,
एवं गोदावरी नदी के तट पर वेण कटक नामक नगर बसाया।
इसने त्रि-
समुद्र तोय पिता वाहन की उपाधि धारण की
राजा सातकर्णी के उत्तराधिकारियों के केवल नाम ही पुराणों द्वारा ज्ञात होते हैं।
इनमें गौतमीपुत्र सातकर्णी के
सम्बन्ध में उसके शिलालेखों से बहुत कुछ परिचय प्राप्त होता है। यह प्रसिद्ध शक महाक्षत्रप 'नहपान'
का समकालीन था, और इसने समीपवर्ती प्रदेशों से
शक शासन का अन्त किया था। नासिक ज़िले के 'जोगलथम्बी' नामक गाँव से
सन् 1906 ई. में 13,250 सिक्कों का एक
ढेर प्राप्त हुआ था। ये सब सिक्के एक शक क्षत्रप नहपान के हैं। इनमें से लगभग दो
तिहाई सिक्कों पर गौतमीपुत्र का नाम भी अंकित है। जिससे यह सूचित होता है कि
गौतमीपुत्र सातकर्णि ने नहपान को परास्त कर उसके सिक्कों पर अपनी छाप लगवाई थी।
इसमें सन्देह नहीं, कि शकों के उत्कर्ष के कारण पश्चिमी भारत
में सातवाहन राज्य की बहुत क्षीण हो गई थी, और बाद में
गौतमीपुत्र सातकर्णि ने अपने वंश की शक्ति और गौरव का पुनरुद्धार किया।
गौतमीपुत्र सातकर्णि की माता का नाम
'गौतमी बालश्री' था। उसने नासिक में त्रिरश्मि पर एक
गुहा दान की थी, जिसकी दीवार पर एक प्रशस्ति उत्कीर्ण है। इस
प्रशस्ति द्वारा गौतमी बालश्री के प्रतापी पुत्र के सम्बन्ध में बहुत सी
महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती है। उसमें राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि के जो विशेषण
दिए हैं, उसमें से निम्नलिखित विशेष रूप से ध्यान देने योग्य
हैं -
यह उसके राज्य के विस्तार पर अच्छा
प्रकाश डालते हैं।
इस प्रशस्ति से यह निश्चित हो जाता
है कि गौतमीपुत्र सातकर्णि सच्चे अर्थों में दक्षिणापथपति था, और काठियावाड़, महाराष्ट्र और अवन्ति के प्रदेश
अवश्य ही उसके साम्राज्य के अंतर्गत थे।
गौतमीपुत्र सातकर्णि जो इतने विशाल साम्राज्य का
निर्माण कर सका था,
उसका प्रधान कारण 'शक यवन पल्हवों' की पराजय थी। शक, यवन और पार्थियन लोगों ने बाहर से
आकर भारत में जो अनेक राज्य
क़ायम कर लिए थे, उनके साथ सातकर्णि ने घोर युद्ध किए,
और उन्हें परास्त कर सातवाहन कुल की शक्ति और गौरव को प्रतिष्ठापित
किया। विदेशी शकों की भारत में बढ़ती हुई शक्ति का दमन करना सातकर्णि का ही कार्य
था। अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र आदि जिन अनेक प्रदेशों को सातकर्णि
ने अपने अधीन किया था, वे पहले क्षहरात कुल के शक क्षत्रप नहपान के अधीन थे। शकों को परास्त करके ही
सातकर्णि ने इन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था।
वाशिष्ठी पुत्र पूलूमावि-
सातवाहन अभिलेखों में इसको प्रथम आंध्र सम्राट कहा गया है। तथा इसी के
द्वारा प्रतिष्ठान को सातवाहन साम्राज्य की राजधानी बनाया गया।
वासिष्ठी पुत्र पुलुमावि सातवाहन वंश के प्रतापी राजाओं में से एक था।
वह अपने पिता गौतमीपुत्र सातकर्णि के बाद विशाल सातवाहन साम्राज्य का स्वामी बना था। उसका शासन काल 44 ई. पू. के लगभग
शुरू हुआ था। पुराणों में
उसका शासन काल 36 वर्ष बताया गया है। उसके समय में सातवाहन
राज्य की और भी वृद्ध हुई। उसने पूर्व और दक्षिण में आन्ध्र तथा चोल देशों की
विजय की।
सुदूर दक्षिण में अनेक
स्थानों पर वासिष्ठी पुत्र पुलुमावि के सिक्के उपलब्ध हुए हैं। चोल-मण्डल के तट से
पुलुमावि के जो सिक्के मिले हैं, उन पर दो मस्तूल वाले जहाज़ का
चित्र बना है। इससे सूचित होता है कि सुदूर दक्षिण में जारी करने के लिए जो सिक्के
उसने मंगवाए थे, वे उसकी सामुद्रिक शक्ति को भी सूचित करते
थे।
आन्ध्र और चोल के समुद्र तट पर अधिकार हो जाने के कारण सातवाहन
राजाओं की सामुद्रिक शक्ति भी बहुत बढ़ गई थी और इसीलिए जहाज़ के चित्र वाले ये
सिक्के प्रचलित किए गए थे।
इस युग में भारत के निवासी समुद्र को पार कर अपने उपनिवेश
स्थापित करने में तत्पर थे और पूर्वी एशिया के अनेक क्षेत्रों में भारतीय बस्तियों
का सूत्रपात हो रहा था।
पुराणों के अनुसार अन्तिम कण्व राजा सुशर्मा को
मारकर सातवाहन वंश के राजा सिमुक ने मगध पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था, जिसे पुराणों
में 'आन्ध्र वंश' कहा गया है।
कण्व वंश के शासन का अन्त
सिमुक के द्वारा नहीं हुआ था। कण्व वंशी सुशर्मा का शासन काल 38 से 28 ई. पू. तक था। सातवाहन वंश के तिथिक्रम के
अनुसार उस काल में सातवाहन वंश का राजा वासिष्ठी पुत्र श्री पुलुमावि ही थी। अतः
कण्व वंश का अन्त कर मगध को
अपनी अधीनता में लाने वाला सातवाहन राजा पुलुमावि ही होना चाहिए, न कि सिमुक।
इसमें सन्देह नहीं कि आन्ध्र
या सातवाहन साम्राज्य में मगध भी सम्मिलित हो गया था और उसके राजा केवल
दक्षिणापथपति न रहकर उत्तरापथ के भी स्वामी बन गए थे।
गौतमीपुत्र के समय सातवाहन
वंश के जिस उत्कर्ष का प्रारम्भ हुआ था, अब उसके पुत्र
पुलुमावि के समय में वह उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच गया। किसी समय जो स्थिति
प्रतापी मौर्य व शुंग सम्राटों की थी, वही
अब सातवाहन सम्राटों की हो गई थी।
शिव
श्री शातकर्णी- इसके बारे
में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है।
यज्ञ श्री शातकर्णी-
यह सातवाहन वंश का अंतिम शासक था। इसमें पोटीन के सिक्के जारी किए। तथा इसके सिक्कों पर
शंख,
मछली, जलयान के चित्र मिलते हैं। जो उसके
समुद्री व्यापार के प्रतीक माने गए हैं।
नोट-
शीशे के सर्वाधिक सिक्के सातवाहनों ने
जारी किए
सातवाहनों की
सांस्कृतिक उपलब्धियां-
भारत में सातवाहन शासकों ने शीशे के सिक्के जारी
किए।
सातवाहन शासकों
के समाज का स्वरूप मातृसत्तात्मक था।
सातवाहन शासकों की राजकीय भाषा प्राकृत एवं लिपि
ब्राह्मी थी।
सातवाहन शासकों के काल में कार्ले के प्रसिद्ध
चैत्य तथा अमरावती के स्तूप का निर्माण करवाया गया। और इस स्तूप में पहली बार सफेद
संगमरमर का प्रयोग किया गया।
नोट- भारत में
सिक्कों पर शासकों के चित्र व तिथि अंकित करवाने की परंपरा बैक्ट्रियन शासकों ने
शुरू की
अंतिम शासक
श्री यज्ञ सातवाहन वंश के इतिहास में अंतिम महत्त्वपूर्ण
शासक थे। उन्होंने क्षत्रपों पर विजय प्राप्त की, लेकिन उनके उत्तराधिकारी,
जिनके बारे में अधिकांश जानकारी पौराणिक वंशावलियों और सिक्कों से
मिलती है, ने उनकी तुलना में सीमित क्षेत्र पर ही शासन किया
बाद की मुद्राओं के जारी होने के स्थानीय स्वरूप और उनके पाए जाने वाले स्थानों से
सातवाहन वंश के बाद के विखंडन का पता चलता है। आंध्र क्षेत्र पहले इक्ष्वाकु वंश
के हाथों में और फिर पल्लव वंश के पास चला गया। पश्चिमी दक्कन के विभिन्न
क्षेत्रों में नई स्थानीय शक्तियों, जैसे चुटु, अभीर और कुरू का उदय हुआ। बरार क्षेत्र में चौथी शताब्दी के आरंभ में वाकाटक वंश अपराजेय राजनीतिक शक्ति के रूप में
उभरा। इस काल तक सातवाहन साम्राज्य का पुर्णतः विखंडन हो चुका था।
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