वैदिक काल, Vedaik kal, वेद ब्राह्मण ग्रंथ आरण्यक उपनिषद वेदांग आर्यों का आगमन बोगजगोई अभिलेख ऋग्वैदिक काल में सामाजिक जीवन ऋग्वैदिक काल का धार्मिक जीवन उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक जीवन उत्तर वैदिक काल का सामाजिक जीवन उत्तर वैदिक काल का धार्मिक जीवन - Read Here and get Success Sure

Read Here and get Success Sure

Read Here and get Success Sure..... This is an educational blog

Breaking


Home Top Ad

Responsive Ads Here

Post Top Ad


Responsive Ads Here

रविवार, 25 फ़रवरी 2018

वैदिक काल, Vedaik kal, वेद ब्राह्मण ग्रंथ आरण्यक उपनिषद वेदांग आर्यों का आगमन बोगजगोई अभिलेख ऋग्वैदिक काल में सामाजिक जीवन ऋग्वैदिक काल का धार्मिक जीवन उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक जीवन उत्तर वैदिक काल का सामाजिक जीवन उत्तर वैदिक काल का धार्मिक जीवन


वैदिक काल
1500 - 600 ईसा पूर्व तक के काल को वैदिक काल कहते हैं इसे दो भागों में बांटा गया है   ऋग्वेदिक काल  और उत्तर वैदिक काल! 1500 से 1000  ईसा पूर्व के काल को ऋग्वेदिक काल कहते हैं इस काल की जानकारी ऋग्वेद से मिलती है जबकि 1000 से 600 ईसा पूर्व काल को उत्तर वैदिक काल कहते हैं इस काल में ब्राह्मण ग्रंथ आरण्यक उपनिषद आदि की रचना की गई
 वैदिक साहित्य-  वैदिक काल की जानकारी वैदिक साहित्य से मिलती है चार वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषदों को सम्मिलित रूप से वैदिक साहित्य कहा जाता है
 वैदिक साहित्य को श्रुति साहित्य भी कहते हैं क्योंकि यह एक पीढ़ी में सुनकर लिखा गया है
 वेदों को अपौरुषेय भी कहा गया है क्योंकि इसकी रचना किसी पुरुष द्वारा ना होकर ईश्वर द्वारा की गई है
 वेदों को नित्य शाश्वत का गया है
 प्रथम तीन वेदों को  वेदत्रई   कहा जाता है

A वेद-  वेद चार है-  ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद अथर्ववेद, वेदों के रचयिता महर्षि कृष्ण द्वैपायन/ वेद व्यास को माना जाता है

1.  ऋग्वेद-  सर्वाधिक प्राचीन वेद है एवं मानव जाति की प्रथम रचना है   ऋग्वेद से ऋग्वेद  काल की जानकारी मिलती है  ऋग्वेद में 10 मंडल  एवं  1028 सूक्त है 2 से 7 मंडल सर्वाधिक प्राचीन है जबकि अन्य मंडल बाद में जुड़े हुए हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल में गायत्री मंत्र का उल्लेख है  तथा  7th मंडल में जबकि नोवा मंडल सोम देवता को समर्पित है  ऋग्वेद का दसवां मंडल सबसे नवीनतम बंधन है इसी में सर्वप्रथम पुरुष सूक्त की जानकारी मिलती है और पुरुष सूक्त में पहली बार वर्ण व्यवस्था की जानकारी मिलती है जिसमें विराट पुरुष से चारों वर्णों की उत्पत्ति बताई गई है।

2.  यजुर्वेद-  यह कर्मकांडी वेद है जिसने देवताओं की स्तुति में किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान एवं कर्मकांडों का वर्णन मिलता है। यह एकमात्र वेद है जो गद्य पद्य दोनों में लिखा गया है इसकी दो शाखाएं है शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद!
 शुक्ल यजुर्वेद को ही वाजसनेयी  संहिता कहा  जाता है  राजसूया  व वाजपेयी  यज्ञ का सर्वप्रथम उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है

3.   सामवेद-  गायन का वेद है जिसमें देवताओं की स्तुति में गाए जाने वाले मंत्रों का  संग्रहण है।  इसको भारतीय संगीत शास्त्र का जनक कहा जाता है क्योंकि संगीत के सात सुरों की उत्पत्ति और जानकारी सर्वप्रथम इसी में मिलती है

4.   अथर्ववेद-   इसकी रचना  ऋषि अथर्वा के द्वारा की गई।  इसमें जादू टोना, भूत प्रेत इत्यादि का वर्णन मिलता है इसलिए यह सर्वाधिक लोकप्रिय वेद माना गया है।  यज्ञ के समय बाधा उत्पन्न होने पर उनका निराकरण अथर्ववेद द्वारा ही किया जाता है।   इसलिए इसे ब्रह्म वेद  या श्रेष्ठ वेद  कहा जाता है
 नोट-  यह वेद युद्ध से संबंधित भी था
B.  ब्राह्मण ग्रंथ वेदों को ठीक ढंग से समझने के लिए ब्राह्मण ग्रंथों की रचना की गई एवम प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण ग्रंथ है
1.  ऋग्वेद के ब्राह्मण ग्रंथ ऐतिरेय ब्राह्मण कौषीतकि ब्राह्मण है।
2-  यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रंथ के तेंतिरेय और शतपथ ब्राह्मण है।  शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ सबसे बड़ा ब्राह्मण ग्रंथ है
3-  सामवेद के ब्राह्मण ग्रंथ  जैमिनी ब्राह्मण तांडय ब्राह्मण है।
4-  अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रंथ गोपथ ब्राह्मण है।

C. आरण्यक-  वनों में रहकर लिखा गया साहित्य आरण्यक साहित्य कहलाता है इसलिए इसको वन पुस्तक भी कहा जाता है।  आरण्यको से हमें दार्शनिक एवं रहस्यवादी सिद्धांतों की जानकारी मिलती है।  सभी वेदों के अपने-अपने आरण्यक ग्रंथ है किंतु एकमात्र अथर्ववेद का कोई भी आरण्यक ग्रंथ नहीं है।  आरण्यक ग्रंथों की संख्या 108 है

D.  उपनिषद-  शिष्य द्वारा गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किया गया ज्ञान उपनिषद कहलाता है
  उपनिषद ज्ञानमार्गी है।   जिसमें सभी प्रकार के अंधविश्वास व एवं कर्मकांडों की आलोचना की गई है।   उपनिषदों से हमें आत्मा एवं ब्रम्हा  के पारस्परिक संबंधों की जानकारी मिलती है।
 उपनिषदों की संख्या 108 है किंतु उनमें से ईश, केन कंठ, मुंडक, मांडूक्य, छांदोग्य, वृहदारण्य  प्रमुख है।
मुंडक उपनिषद से भारतीय सत्यमेव नामक वाक्य मुंडकोपनिषद इस से लिया गया है।
 मांडूक्य सबसे छोटा उपनिषद है।
वृहदारण्य   सबसे बड़ा उपनिषद है।
 उपनिषद वैदिक साहित्य का अंतिम भाग होने के कारण इसे वेदांत भी कहा जाता है।


 वेदांग-  संपूर्ण वैदिक साहित्य को समझने के लिए वेदांगों की रचना की गई है इनकी संख्या 6 है यह वेदों के भाग नहीं है
1-  शिक्षा 2- कल्प  3- निरुक्त 4- छंद 5- ज्योतिष 6- व्याकरण

 आर्यों का आगमन__  आर्यों के आगमन को लेकर विद्वानों में मतभेद है,    एवं आर्यों का मूल निवास स्थान अलग-अलग माना जाता है जो निम्न है
1-  अविनाश चंद्र दास एवं संपूर्णानंद के अनुसार  सप्त सैंधव प्रदेश।
2-  दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार तिब्बत।
3-  तिलक आरती होम ऑफ वेदांत के अनुसार उत्तरी ध्रुव।
4-  मैक्स मूलर के अनुसार मध्य एशिया बैक्टीरिया ईरान।  (सर्वाधिक मान्य मत)
5-  गार्डन चाइल्ड के अनुसार दक्षिण रूस।
6- पी गाईल्स  के अनुसार डोंगरी डेन्यूब नदी घाटी समशीतोष्ण प्रदेश।

 बोगजगोई अभिलेख  1400  ईसा पूर्व__  यह मानव जाति का सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख है जो  मध्य एशिया के बोगजगोई  नामक स्थान से मिला है।  इस अभिलेख में मध्य एशिया के 2 कबीले  हत्तनी व मिथनी के मध्य संधि की शर्तों का उल्लेख है।  और इन शब्दों के लिए 4 देवताओं को साक्ष्य माना गया है  1 इंद्र, 2 वरुण, 3 मित्र, 4 नासत्य।
  यह अभिलेख मध्य एशिया में आर्यों के मूल निवास स्थान होने की पुष्टि करता है।

ऋग्वैदिक काल  मे राजनीतिक जीवन
 1- राज्य का स्वरूप_  ऋग्वैदिक काल में  व्यवस्थित राज्य प्रणाली का अभाव था।  राजनीतिक जीवन की मुख्य इकाई जन थी जो बहुत सारे कबीलो से मिलकर बनती थी।  जन का प्रमुख राजन कहलाता था।
l-  विदथ _  यह ऋग्वैदिक  आर्यों की प्राचीनतम जनसभा थी जिसमें कबीले के सभी लोग मिलकर भाग लेते थे यहां आर्यों के सामाजिक और धार्मिक मामलों की सुनवाई करती थी।  ऋग्वेद में सर्वाधिक बार (122) इसी का उदय हुआ है।

ll  सभा_  यह ऋग्वैदिक लोगों की एक कुलीन संस्था थी जो  विशिष्ट एवं वृद्ध  लोगों से मिलकर बनती थी।  यह एक सहकारी संस्था थी जिसका ऋग्वेद में 8 बार उल्लेख हुआ है

lll  समिति_  यह ऋग्वैदिक  आर्यों की महत्वपूर्ण राजनीतिक संस्था थी,  जो प्रशासनिक एवं राजनीतिक मामलों की सुनवाई करती थी।  यहां सभी कबीलो से मिलकर बनती थी।  यह राजा के निर्वाचन में भाग लेती थी इसका स्वरूप  वर्तमान लोकसभा के समान है।  इसका ऋग्वेद में 9 बार  उल्लेख हुआ है।

2-  कर प्रणाली_ ऋग्वैदिक  काल में व्यवस्थित कर प्रणाली का अभाव था किंतु बली नामक कर का उल्लेख मिलता है जो राजा को दिया जाने वाला उपहार था।

3-  सैन्य प्रणाली_ ऋग्वैदिक  काल में  व्यवस्थित   सैन्य प्रणाली का अभाव था किंतु आवश्यकता पड़ने पर राजा द्वारा एक नागरिक सेना का गठन किया जाता था जो मिलिशिया कहलाती थी।

 दशराज्ञ युद्ध_ ऋग्वेद के सातवें मंडल में इसका उल्लेख मिलता है  जो भरत जन के राजा सुदास  तथा 10 कबीले राजाओं के संघ के मध्य रावी ( परुषणी)  नदी के तट पर लड़ा गया था जिसने सूदास की विजय हुई।  इस युद्ध का मूल कारण राजा सुदास द्वारा अपने पुरोहित विश्वामित्र को पद से हटाया  जाना था।

ऋग्वैदिक  काल में सामाजिक जीवन-
A.  कुल व परिवार- ऋग्वैदिक  काल में समाज की मुख्य इकाई परिवार थी जो अन्य कबीलो से मिलकर बनता था। संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी एवं समाज का स्वरूप पितृ सत्तात्मक था जहां पिता को ही समस्त अधिकार प्राप्त थे।
B.  वर्ण व्यवस्था-  ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का प्रचलन या उत्पत्ति हो गई थी, जिस का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में मिलता है, किंतु इस काल में वर्ण व्यवस्था अत्यंत लचीली थी यह जन्म पर आधारित ना होकर कर्म पर आधारित थी। समाज मे 2 वर्ग प्रचलित थे आर्य एवं अनार्य।  अनार्य को दास सदस्यों कहा गया है।
C.  विवाह-  विवाह एक प्रचलित संस्कार था जिसके दो रूप प्रचलित थे 1. अनुलोम 2. प्रतिलोम।
 अनुलोम विवाह- उच्च वर्ग के पुरुष का निम्न वर्ग की महिला के साथ होने वाला विवाह अनुलोम विवाह कहलाता था।
 प्रतिलोम विवाह-  उच्च वर्ग की महिला का निम्न वर्ग के पुरुष के साथ होने वाला विवाह प्रतिलोम विवाह कहलाता था।
D.  महिलाओं की स्थिति-  इस काल में महिलाओं की स्थिति सर्वाधिक अच्छी थी। उनको सभी प्रकार के राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक कार्य में भाग लेने का अधिकार था। इसलिए यह काल महिलाओं का स्वर्ण काल कहलाता है
 प्रमुख महिलाएं/विदुषी- अलापा, लोपामुद्रा, गोशाला आदि इस काल की प्रमुख महिलाएं थी।
E.  खानपान एवं  रहन सहन-  इस काल के लोग शाकाहारी एवं मांसाहारी थे। इनका प्रिय पेय पदार्थ सोमरस था। प्रिय भोजन पदार्थ क्षीर पकोदन था, जो जौ और दूध से बनता था।
ऋग्वैदिक काल का धार्मिक जीवन
1.  धार्मिक उपासना का उद्देश्य- ऋग्वैदिक   काल में धार्मिक उपासना का उद्देश्य पारलौकिक ना होकर लौकिक था। उनको पारलौकिक के संबंध में कोई भी जानकारी नहीं थी। अपने भौतिक उद्देश्यों को जैसे अन्न, संतान, धन की प्राप्ति हेतु धर्म की उपासना करते थे।
2.  उपासना की पद्धति-  इस काल में उपासना की पद्धति अत्यंत ही सरल थी वे लोग मंत्रों का उच्चारण, प्रार्थना, भेंट, स्तुति आदि के माध्यम से उपासना करते थे।
3. बहुदेववाद प्रमुख देवता-  इस काल में बहुदेववाद का प्रचलन था। वे लोग प्रकृति का मानवीकरण कर के विभिन्न रूपों में उनकी पूजा करते थे। उनके देवताओं को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है
A.  आकाश का देवता-  सूर्य,  मित्र,  वरुण,   पुषन,  अदिति,  सविता,  अश्विन।
B.  अंतरिक्ष के देवता-  इंद्र (प्रमुख देवता),  मरुत,  रूद्र,  वायु,  पर्जन्य।
C.  पृथ्वी का देवता-  अग्नि,  सोम,  बृहस्पति,  सरस्वती, अरण्यानी। 
नोट-  अग्नि एकमात्र देवता था जिसे तीनों श्रेणीयों में रखा गया।
वरुण-   जल/ समुद्र का देवता
 अश्विन-  आर्यों के चिकित्सक
 सोम-  वनस्पतियों का देवता
 बृहस्पति-  यज्ञ का देवता
 पुषन -  पशुओं का देवता
नोट-  बहुदेववाद के साथ-साथ एकाधिदेव वाद की प्रथा भी प्रचलित थी जिसको मैक्स मूलर ने हिनोथीज्म कहा है। इसमें ऋग्वैदिक आर्य एक समय में एक ही देवता को महत्व देते थे। अन्य देवताओं को बहुत मानते थे।

4. त्त की अवधारणा-  इस काल में ऋत्त की अवधारणा का प्रचलन था ऋत्त वस्तुतः ब्रह्मांड की प्रकृतिक और नैतिक अवस्था को कहा गया है, जिसका संरक्षक देवता वरुण को माना गया है।


उत्तर वैदिक काल 1000 ईसा पू0 से 600 ईसा पू0 तक के काल को उत्तर वैदिक काल कहते हैं।

 उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक जीवन
1.  राज्य का स्वरूप-  उत्तर वैदिक काल में स्थाई निवास के कारण राज्य के स्वरूप में परिवर्तन आया। इस समय राज्य की इकाई जनपद कहलाती थी, जो वस्तुतः भौगोलिक क्षेत्र था।

2.  राजा की स्थिति-  उत्तर वैदिक काल में राजा की स्थिति एवं शक्ति में वृद्धि हुई। अलग-अलग क्षेत्रों का शासन अलग-अलग नाम से जाना जाने लगा। पूर्व में सम्राट, उत्तर में विराट,  मध्य में राजा,   पश्चिम में स्वराज, दक्षिण में भोज,  चारों दिशाओं का शासक ( महापदम नंद) एकराट कहलाते थे।
अपनी शक्ति के प्रदर्शन हेतु अन्य खेलों का आयोजन करने लगे, जो निम्न  थे
A.  राजसूय यज्ञ-   राज्यारोहण के समय।
B.  वाजपेई यज्ञ-  शक्ति प्रदर्शन हेतु ( रतवा घुड़दौड़ का आयोजन)।
C.  अश्वमेध यज्ञ-  साम्राज्य विस्तार के लिए।

3.  राजा के अधिकारी
          उत्तर वैदिक काल में राजा के अधिकारियों में वृद्धि हुई जिनका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है, जिनको रत्नित कहा जाता है। कुल 12 अधिकारी होते थे, जिनमें से निम्न प्रमुख थे
A.   भागदूत-  कर एकत्रित करने वाला अधिकारी।
B.  संगृहीता-  कोषाध्यक्ष।
C.  अक्षवाप- धृतक्रीड़ा मे राजा का अधिकारी।
D.  पालाग-  वन अधिकारी
E. स्थापति- न्यायाधीश।
F.  स्पर्श- पुलिस अधिकारी।

4. राजनीतिक संस्थाएं
 उत्तर वैदिक काल में विद्युत को हटाया गया।
 अथर्ववेद की सभा व समिति को प्रजापति (राजा)  की दो पुत्रियां कहा गया है।
5.  कर प्रणाली- 
A. बलि- नियमित कर( प्राचीन) 
B. भाग- भूमि/ राजस्व कर (नवीन कर)

उत्तर वैदिक काल का सामाजिक जीवन
A.  कुल/परिवार-  पिता की  सर्वोच्चता
B.  वर्ण व्यवस्था-   उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था जतिन एवं कठोर हो गई। यह कर्म के बजाए जन्म पर आधारित हो गई। शूद्रों की स्थिति सबसे दयनीय हो गई
C.  आश्रम व्यवस्था-  उत्तर वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था का उदय हुआ जिस का सर्वप्रथम उल्लेख छांदोग्य उपनिषद में मिलता है। चार आश्रमों का पहली बार उल्लेख जबालोपनिष में मिलता है 1. ब्रह्मचर्य, 2. गृहस्थ, 3. वानप्रस्थ, 4. सन्यास।
D.  विवाह-  उत्तर वैदिक काल में विवाह एक जटिल संस्कार हो गया। आशवलयान ग्रह सूत्र में विवाह के आठ प्रकार मिलते हैं
1.  ब्रह्म विवाह- कन्या के माता-पिता द्वारा योग्य श्रेष्ठ गुणवान व्यक्ति के साथ किया गया विवाह
2.    देव विवाह-  यज्ञ संपन्न करता वर्ग के साथ किया गया विवाह।
3.  आर्ष विवाह-  1 जोड़ी गाय व बैल के बदले किया जाने वाला विवाह।
4.  प्रजापति विवाह-  वचनबद्धता के साथ क्या-क्या विवाह।
5.  असुर विवाह-  बिक्री विवाह।
6.  गंधर्व विवाह-  प्रेम विवाह.
7.  राक्षस विवाह-  जबरदस्ती से किया गया विवाह।
8.  पैशाच विवाह-  अपहरण,  चोरी,  धोखे से किया गया विवाह।
 नोट-  ब्रह्म विवाह सबसे श्रेष्ठ तथा पैशाच विवाह सबसे निकृष्ट हुआ था।
     प्रथम चार विवाह को शास्त्रों में मान्यता दी गई है तथा अंतिम चार विवाह को शास्त्रों में मान्यता नहीं दी गई।
E. महिलाओं की स्थिति-  उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति में गिरावट आई. उनके राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक कार्य में भाग लेने पर प्रतिबंध लग गया। इस काल की विदुषी महिला गार्गी, मैत्री, कात्यायनी आदि थी।

उत्तर वैदिक काल का धार्मिक जीवन-
1.  धार्मिक उपासना का उद्देश्य-  उत्तर वैदिक काल में धार्मिक उपासना का उद्देश्य लौकिक के साथ साथ पारलौकिक हो गया था जिसकी पुष्टि शतपथ ब्राह्मण से होती है शतपथ ब्राह्मण में पहली बार कर्म एवं पुनर्जन्म का उल्लेख मिलता है।  
2.  उपासना की पद्धति-  उत्तर वैदिक काल में उपासना की पद्धति अत्यंत जटिल हो गई थी जैसे- A.  ब्राह्मणों/ पुरोहितों का महत्व बढ़ गया।  B.   यज्ञ एवं पशु बलि का प्रचलन।  C.  कर्मकांड एवं अंधविश्वासों का प्रचलन।  D.  अलग-अलग वेद के लिए अलग-अलग पुरुषों का प्रचलन।   ऋग्वेद के लिए होता,  यजुर्वेद के लिए अध्वर्यू,   सामवेद के लिए उद्गाता एवं अथर्ववेद के लिए ब्रह्मा।
3.  बहुदेववाद एवं प्रमुख देवता-  उत्तर वैदिक काल में बहुदेववाद का प्रचलन रहा, किंतु देवताओं की महता में परिवर्तन आया। इस काल का प्रमुख देवता प्रजापति हो गया एवं रूद्र विष्णु का महत्व बढ़ गया

4.  ऋत्त की अवधारणा- इस काल में ऋत्त की अवधारणा समाप्त हो गई।
नोट- 1000 ईसा पूर्व लोहे का अविष्कार अंतरजीखेड़ा उत्तर प्रदेश में हुआ।

प्रमुख दर्शन एवं उसके प्रणेता-
 सांख्य दर्शन-  कपिल,
 योग दर्शन-  पतंजलि,
 न्याय दर्शन-  महर्षि गौतम,
 वैशेषिक दर्शन-  महर्षि कणाद,
 पूर्व मीमांसा-  महर्षि जैमिनी,
 उत्तर मीमांसा-  महर्षि बादरायण
 चावार्क दर्शन-  वनस्पति/ चावार्क





1 टिप्पणी:

Thank you for comment.

Post Bottom Ad

Responsive Ads Here

Pages